आखिर किसके हवाले किए जाएंगे हमारे जंगल?

आखिर किसके हवाले किए जाएंगे हमारे जंगल?

  • भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन प्रस्तावित है। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि भारतीय वन क्षेत्र अत्यंत आवश्यक सुधारों के लिए खड़ा हो रहा है? दुर्भाग्य से ये सुधार सही प्रकार के नहीं हैं। वन क्षेत्र 1990 के दशक से ही विक्षोभ का शिकार है। सुधार के हालिया प्रयास मिले सुर मेरा तुम्हारा वाले अंदाज में कम और जरूरतों पर चोट करने पर ज्यादा केंद्रित हैं। इस विषय पर विचार की शुरुआत किसी को भी इस बात से करनी चाहिए कि वास्तव में भारतीय वन अधिनियम जंगलों पर कब्जा करने का औपनिवेशिक औजार था। इस अधिनियम ने वनों का वर्गीकरण किया - आरक्षित वन (आरएफ) और संरक्षित वन (पीएफ) अधिनियम ने वन विभाग को वनों के अधिग्रहण, प्रबंधन और संरक्षण का अधिकार दिया। लकड़ी और सॉफ्टवुड का उत्पादन ही इस विभाग का निहितार्थ था। साम्राज्यवादी वन विभाग का एक ही लक्ष्य था। वनों का एकल प्रबंधक और रक्षक साम्राज्यवादी वन विभाग ही था। .
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वन क्षेत्र के लक्ष्यों को फिर से परिभाषित करने और इसके प्रशासन के पुनर्गठन की आवश्यकता को नजरंदाज कर दिया गया। साम्राज्यवादी वन विभाग ही आजाद भारत में शासकीय वन विभाग हो गया। कोई भी यह पूछ सकता है कि वनों पर सरकार या राज्य के अधिकार में बुरा क्या है? क्या वन जल संरक्षण, जैव विविधता, कार्बन अनुक्रमीकरण, सार्वजनिक संसाधन उपलब्ध कराने वाली राष्ट्रीय संपदा नहीं हैं? 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों का तर्क उनका निजीकरण करने का सुझाव देता है, जिसमें राज्य केवल एक नियामक के रूप में कार्य करते हैं। .
  • दक्षिण एशिया के जंगल जटिल सामाजिक-पारिस्थितिक संस्थाओं की तरह हैं, जहां विविध आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदाय बसे हुए हैं। ये लोग आम संपत्ति के रूप में वनों को सबसे अच्छी तरह से प्रबंधित करते हैं। वे व्यापक सकारात्मक पर्यावरण का निर्माण करते हैं, जैव विविधता, कार्बन या हाइड्रोलॉजिकल लाभ प्रदान करते हैं, यहां हम भले ही आंशिक नियमन को सही ठहरा सकते हैं, लेकिन राज्य प्रबंधन सही नहीं ठहराया जा सकता और वनों पर कॉरपोरेट स्वामित्व को तो कतई सही नहीं माना जा सकता। वनवासियों को अपने परिवेश का प्रबंधन करने का मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार है और यहां कोई भी बाहरी विनियमन पारदर्शी और जवाबदेह होना चाहिए।.
  • हम देख सकते हैं कि औपनिवेशिक अधिग्रहण ने वनवासियों को उनकी आजीविका से वंचित कर दिया है। वन अधिकारियों को पुलिस की शक्तियां देने से भी हाशिये पर खड़े अनपढ़ वनवासियों, समुदायों का बहुत उत्पीड़न हुआ है। 2006 का वन अधिकार अधिनियम अशक्तों के भूमि अधिकारों के संदर्भ में उभरा, लेकिन इसने सामुदायिक अधिकारों के माध्यम से वनों पर ग्राम सभा के नियंत्रण की भी पेशकश की। इसके अलावा इसने समुदायों को वन डायवर्जन को कहने का अधिकार भी दिया। इस अधिनियम के नख-दंत अर्थात प्रभावशाली हिस्सों का विरोध किया गया। सेवानिवृत्त वन-अधिकारियों ने इस अधिनियम की सांविधानिकता को चुनौती देते हुए रिट याचिकाएं दायर कीं। यह छिपी हुई बात नहीं है कि ज्यादातर वन सेवकों या वन अधिकारियों ने वनवासियों को वन अधिकार देने में बाधा डाली है। नतीजा यह कि एक बहुत आवश्यक वन प्रशासन सुधार को रोक दिया गया। वर्तमान अधिनियम का मसौदा वानिकी उत्पादन को बढ़ावा देता है और ऐसा स्थानीय आजीविका पर्यावरण लक्ष्यों की कीमत पर करता है। .
  • वर्तमान प्रस्तावित संशोधन भी राष्ट्रीय वन नीति 2018 की प्रतीक्षा किए बिना ही उससे कई कदम आगे बढ़ जाता है। यह सार्वजनिक शक्तियों को मजबूत किए बिना पुलिस शक्तियों को मजबूत करता है। यह अपनी जरूरतों को सुधारे बिना उत्पादन वन नामक एक नई श्रेणी का पक्ष लेता है। मजबूत नौकरशाही, जो देश की सबसे बड़ी जमींदार रही है, स्वेच्छा से इन व्यापक शक्तियों को नहीं छोड़ेगी। शायद एक शुरुआत की जा सकती है, यदि वे औपनिवेशिक विरासत को पहचानें, जो उन्हें विरासत में मिली है। अब लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण केवल व्यापक दबाव के माध्यम से हो सकता है और इसके लिए सार्वजनिक समझ बनाना पहला कदम होगा। .

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