जलवायु परिवर्तन से बढ़ गया मिट्टी के क्षरण का जोखिम

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Facts:

  • करीब 12 करोड़ हेक्टेयर जमीन यानी देश के कुल भूमि क्षेत्रफल का करीब 37 फीसदी हिस्सा किसी न किसी स्तर पर निम्नीकृत हो चुका है। इसकी बड़ी वजह पानी के बहाव के चलते होने वाला मृदा अपरदन है।
  • हरेक साल एक वर्ग किलोमीटर इलाके में औसतन 1,535 टन मिट्टी नष्ट हो जाती है।
  • मिट्टी के व्यर्थ होने से पौधों के सालाना 53.7 लाख टन पोषण तत्त्व भी नष्ट हो जाते हैं।
  • करीब 1.34 करोड़ टन की संभावित फसली उपज भी मिट्टी नष्ट होने से नहीं उग पाती है।
  • इसकी वजह से 2015-16 की कीमतों के आधार पर कृषि क्षेत्र को सालाना 205.32 अरब रुपये का नुकसान होता है।
  • प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया में जमीन की एक सेंटीमीटर की परत तैयार होने में 200 से लेकर 400 साल तक का समय लगने और इसे उपजाऊ बनने में 3,000 साल का और समय लगने जैसे पहलुओं को देखें तो एनएएएस के ये आंकड़े काफी महत्त्वपूर्ण हैं। अगर सैकड़ों वर्षों की विकास प्रक्रिया में बनी मिट्टी एक बार नष्ट होती है तो फिर वह हमेशा के लिए खत्म हो जाती है। लिहाजा इस तरह मिट्टी एक तरह से गैर-नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है जिसे हर कीमत पर संरक्षित रखने की जरूरत है। हालांकि वाटरशेड विकास के सिद्धांत पर आधारित मृदा एवं जल संरक्षण के कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान में मनचाहे नतीजे नहीं मिल पा रहे हैं

भूमि और उसके भौतिक, रासायनिक एवं जैविक स्वास्थ्य को संरक्षित रखना इस लिहाज से भी जरूरी है कि यह सीमित है और इसकी गुणवत्ता में लगातार ह्रïास हो रहा है। इसी के साथ विभिन्न विकास गतिविधियों के चलते जमीन की मांग भी बढ़ रही है। शुद्ध सिंचित क्षेत्र लंबे समय से 14-14.2 करोड़ हेक्टेयर पर कमोबेश अटका हुआ है। प्रति व्यक्ति भूमि उपलब्धता 1951 के 0.90 हेक्टेयर से घटकर 2007-08 में महज 0.27 हेक्टेयर पर आ गई थी। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह आंकड़ा और भी सीमित होकर केवल 0.19 हेक्टेयर ही रह जाएगा। इससे भी बुरा यह है कि खेती योग्य जमीन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1961 के 0.34 हेक्टेयर से घटकर 2013 में 0.12 हेक्टेयर पर आ गई। जबकि निर्वाह के लिए प्रति व्यक्ति 1 हेक्टेयर सिंचित भूमि या 2 हेक्टेयर असिंचित भूमि को मानक सीमा माना जाता है।

एनएएएस का नीति-पत्र कहता है कि जलवायु परिवर्तन मिट्टी के क्षरण के खतरे को क्रमिक रूप से बढ़ा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में सालाना बारिश की मात्रा एवं तीव्रता वर्ष 2050 तक 10 फीसदी बढ़ जाने का अनुमान है। असल में, भारी बारिश और बादल फटने जैसी प्रतिकूल मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी के कुछ सबूत पहले ही दिखने लगे हैं। नीति-पत्र में उल्लिखित अध्ययन रिपोर्टों के मुताबिक बारिश की तीव्रता में 1 फीसदी बढ़ोतरी होने पर मिट्टी के क्षरण में 2 फीसदी की वृद्धि हो सकती है। यह भारत में मिट्टी को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल असर के लिहाज से और अधिक असुरक्षित कर देता है। ऐसी स्थिति में भारत की खाद्य एवं पर्यावरणीय सुरक्षा भी कमजोर पड़ सकती है।

ऐसी स्थिति में मृदा एवं जल संरक्षण के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर अधिक ध्यान देने एवं उन पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है। इन संरक्षण कार्यक्रमों में किए जाने वाले निवेश पर मिलने वाले प्रचुर रिटर्न के अलावा कई दूसरे लाभ भी हैं। इससे फसलों की उपज में वृद्धि, रोजगार के अधिक अवसरों के सृजन, किसानों की आय को दोगुनी करने, गरीबी में कमी लाने और भूमिगत जल संसाधनों के संवद्र्धन जैसे लाभ भी होते हैं। देश में चल रहे 636 वाटरशेड विकास कार्यक्रमों के व्यापक आकलन से पता चलता है कि ये प्रति हेक्टेयर भूमि पर करीब 151 मानव श्रम दिवस का अतिरिक्त रोजगार पैदा करते हैं, साल भर में लगने वाली फसलों की आवृत्ति में 35 फीसदी वृद्धि होती है, पानी के व्यर्थ जाने में 45 फीसदी की कटौती होती है और प्रति हेक्टेयर मृदा क्षरण में भी सालाना 1.1 टन की कमी आती है। वाटरशेड पर आधारित मृदा एवं जल संरक्षण कार्यक्रमों में किए गए निवेश पर औसतन 27.4 फीसदी रिटर्न मिला है। यह आंकड़ा इन संरक्षण कार्यक्रमों के लिए अधिक बजट आवंटन को उचित ठहराने के लिए काफी है

हालांकि इस दिशा में एक बाध्यता यह है कि ये तमाम लाभ तभी मिल सकते हैं जब जमीन का उपयोग उसके गुण-दोषों को ध्यान में रखते हुए किया जाए। अगर गलत तरीके से जमीन का इस्तेमाल किया जा रहा है तो मिट्टी की गुणवत्ता में और भी अधिक कमी आ सकती है। खेती-योग्य जमीन का इस्तेमाल आम तौर पर गैर-कृषि कार्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। केवल असाधारण स्थितियों में ही इसकी इजाजत दी जा सकती है। इसके अलावा नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में भी अधिक छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। इस तरह के हालात में जरूरत इस बात की है कि भूमि के उपयोग की एक सुविचारित नीति अपनाई जाए जो भूमि की क्षमता की श्रेणियों पर आधारित हो

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