शहर की समस्या और ग्रामीण विकास

प्रत्येक व्यक्ति न केवल एक परिवार से अपितु समुदाय से भी संबंध रखता है। समुदाय की दो विशेषता मानी गई है एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र एवं इसके सदस्यों के बीच ' हम की भावना ' गाँव और शहर समुदाय के दो रूप हैं। समुदाय के सदस्य सामान्य रूप से इसमें स्थायी रूप से निवास करते है।समुदाय का भाव अपने पास-पड़ोस से आरम्भ होकर कुछ अंश तक 'हम-भावना' से सामाजिक वर्ग तक फैलता है। किसी भी संस्कृति की पूर्ण अभिव्यक्ति समुदायों के अंतर्गत ही होती है।


गाँवों में रहना मानव समाज की एक चिरपरिचित विशेषता रही है जो मानव सभ्यता के उदय काल से परिलक्षित होती है। ग्रामीण समुदाय एक प्रकार का विस्तृत प्राथमिक समूह है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसके अधिकांश सदस्य कृषि या पशुपालन के कार्य में लगे रहते हैं और इनका जीवन प्रकृति पर बहुत अधिक निर्भर रहता है। इनके सदस्यों के बीच सामान्यत: घनिष्ठ एवं आत्मीय संबंञ् होता है जो आमने सामने के संपर्कों पर आधारित होता है। इसके सदस्य इसमें स्थायी रूप से निवास करते हैं और अपने सांस्कृतिक मानदंडों पर अपने व्यक्तिगत एवं सामुदायिक जीवन को पूर्णता देने की कोशिश करते हैं। नगरीय समुदाय लोगों का एक खुला संगठन है जिसमें व्यक्ति एक सीमित क्षेत्र में रहते है, जहाँ जनसंख्या-घनत्व अपेक्षाकृत अधिक होता है तथा जीविका का साधन शिल्प, उद्योग या व्यापार होता है। नगरीय जीवन जटिल सामाजिक शक्तियों का प्रतिफल होता है। ये सामाजिक शक्तियाँ जनसंख्या के संवेग, ग्रामीणों के अप्रवास, संचार एवं यातायात के साधनों के विकास, व्यापारिक केंद्रों की अत्यधिक वृध्दि और औद्योगीकरण के प्रभाव से विकसित होती हैं। अमेरिकन मानवशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने समुदायों का सुव्यवस्थित अधययन किया। इनका अध्ययन उद्विकासवादी सिध्दांत पर आधारित है। इनकी दृष्टि में अल्प - विकसित समाजों में लघुसमुदाय ( गाँव) एवं विकसित समाजों में बृहत् समुदाय (शहर) का विकास होता है। गाँवों की संस्कृति को उन्होंने सरल, अविकसित एवं स्थानीय माना जबकि शहरों की संस्कृति को जटिल - विकसित एवं सार्वभौमिक माना !भारतीय समाज में सिन्धु घाटी की सम्यता के जमाने से ही गाँवों और शहरों का सहअस्तित्व रहा है। दोनों समुदाय एक - दूसरे के पूरक रहे हैं। दोनों की संस्कृति में विशेष अंतर नहीं रहा है। जबकि पश्चिम में विकसित आञ्निक समाज में ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों के बीच बहुत अंतर है। पाश्चात्य विचारक गाँव एवं नगर के अंतर पर विशेष बल देते हैं जहाँ नगरों को गाँवों से श्रेष्ठ माना जाता है। पश्चिमी समाजों में गाँव अधिकांशत: आर्थिक रूप से कमजोर, विशेषज्ञता और कौशल में निम्न और मुख्यत: नगरों पर आश्रित थे। दूसरी तरफ अंग्रेजी शासन के पूर्व भारतीय ग्रामीण समाज अपेक्षाकृत शक्तिशाली एवं स्वतंत्र थे एवं ग्रामीण्ा लोग अनेक व्यवसायों एवं कलाओं में दक्ष थे।
समकालीन भारत में नगरीय क्षेत्रों का निर्धारण राज्य सरकारों द्वारा होता है और इसके लिए विभिन्न राज्यों ने भिन्न-भिन्न मानदंडों का प्रयोग किया। ये संविधिक शहर कहलाते हैं तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए शहरी विकास मंत्रालय से अनुदान प्राप्त करते हैं। इन शहरों का शासन अलग प्रकार की इकाइयाँ जैसे नगरपालिका, अधिसूचित क्षेत्रीय समिति अथवा निगम के द्वारा होता है।


संविधिक शहरों के अलावा जनगणना के आधार पर भी शहरों को परिभाषित किया जाता है। जनगणना अधिकारी संपूर्ण भारतीय क्षेत्र को दो वृहत समूहों में विभाजित करते हैं - ग्रामीण एवं नगरीय केन्द्र!

Government's view regarding Urbanisation


शहरीकरण को लेकर सरकार का नजरिया यह है कि इस पर सियापा करने के बजाय इसे मौके के रूप में देखा जाना चाहिए। उसके मुताबिक शहरों में गरीबी दूर करने की ताकत होती है और हमें इस ताकत को और आगे बढ़ाना चाहिए ताकि आर्थिक समृद्धि का स्वत: प्रसार हो।
सुख-सुविधाओं की मौजूदगी के चलते शहर सदा से मनुष्य के आकर्षण के केंद्र रहे हैं। आज की तारीख में तो ये विकास के इंजन बन चुके हैं। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरों में लोगों की ज्यादा आमदनी और वस्तुओं का अधिक उपभोग जहां ‘पुल फैक्टर’ का काम करता है वहीं गांवों की गरीबी-बेरोजगारी ‘पुश फैक्टर’ का। ये दोनों मिल कर शहरों में भीड़ बढ़ा रहे हैं। चूंकि शहरों में लोगों की आमदनी ज्यादा होती है इसलिए वस्तुओं और सेवाओं की खपत बढ़ती है जिसका नतीजा अंतत: कंपनियों की अधिक कमाई और देश के जीडीपी की तेज रफ्तार के रूप में सामने आता है। लेकिन शहरीकरण को विकास का पर्याय मानने से पहले शहरी संरचना और और उसकी वैश्विक प्रवृत्ति का संक्षिप्त परिचय अपेक्षित है।

What is urbanisation

शहर मानव की सबसे जटिल संरचनाओं में से एक है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसका कोई अंत नहीं है। शहर में व्यवस्था और अव्यवस्था साथ-साथ चलते हैं। आमतौर पर शहरों को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है क्योंकि शहरीकरण अनिवार्य रूप से औद्योगीकरण से जुड़ा है। आज दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है और अनुमान है कि 2050 तक यह अनुपात बढ़ कर सत्तर फीसद हो जाएगा। उस समय विकसित देशों की चौदह फीसद और विकासशील देशों की मात्र तैंतीस फीसद आबादी शहरी सीमा से बाहर होगी।


शहरीकरण की रफ्तार विकासशील देशों में सबसे तेज है। यहां हर महीने पचास लाख लोग शहरों में आ जाते हैं और विश्व में शहरीकरण में वृद्धि के पंचानबे प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं। शहरीकरण के संदर्भ में एक नई प्रवृत्ति यह उभरी है कि बड़े-बड़े महानगर आपस में मिल कर बृहत महानगर या ‘मेगा रीजन’ बना रहे हैं। उदाहरण के लिए, भारत में दिल्ली-गाजियाबाद-नोएडा-गुड़गांव-फरीदाबाद, जापान में नगोया-ओसाका-क्योटो और चीन में हांगकांग-शेनजेन-ग्वांझाऊ। ये वृहत महानगर देशों की तुलना में संपदा की चालक-शक्ति बन कर उभरे हैं। उदाहरण के लिए, चोटी के पच्चीस शहरों के खाते में दुनिया की आधी संपत्ति आती है। भारत और चीन के पांच सबसे बड़े महानगर इन देशों की आधी संपदा रखते हैं।


देखा जाए तो शहरीकरण कई कारकों के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम है, जैसे भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या वृद्धि, ग्रामीण-शहरी प्रवास, राष्ट्रीय नीतियां, आधारभूत ढांचा, राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां। 1990 के दशक में विकासशील देशों में शहर ढाई प्रतिशत वार्षिक की गति से बढ़ रहे थे, लेकिन इसके बाद उदारीकरण, भूमंडलीकरण ने विकासशील देशों में शहरीकरण को पंख लगा दिए। विशेषज्ञों के मुताबिक विकासशील देशों में शहरीकरण की गति तभी धीमी पड़ेगी जब अफ्रीका व एशिया के ग्रामीण बहुल क्षेत्र शहरी केंद्रों में बदल जाएंगे। 2050 तक विकासशील देशों की शहरी जनसंख्या 5.3 अरब हो जाएगी, जिसमें अकेले एशिया की भागीदारी 63 प्रतिशत या 3.3 अरब की रहेगी। 1.2 अरब लोगों के साथ अफ्रीका दुनिया की एक-चौथाई शहरी जनसंख्या का घर होगा।


इसे एक विरोधाभास ही कहेंगे कि विकासशील देशों के विपरीत विकसित देशों की शहरी जनसंख्या में बढ़ोतरी की रफ्तार थमती जा रही है। उदाहरण के लिए, 2005 में इन देशों की शहरी आबादी नब्बे करोड़ थी, जिसके 2050 तक 1.1 अरब पहुंचने की संभावना है। इन क्षेत्रों के कई शहरों में कम प्राकृतिक वृद्धि और प्रजनन क्षमता में ह्रास के चलते कुल जनसंख्या में कमी आएगी। विकासशीलऔर विकसित देशों के शहरीकरण में एक मूलभूत अंतर यह है कि जहां विकसित देशों में उद्योग व सेवा क्षेत्र के विस्तार और व्यापक सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के कारण शहरी क्षेत्र बेरोजगारी व झुग्गी-झोपड़ियों से मुक्त रहे, वहीं विकासशील देशों में स्थिति इसके विपरीत है।

साभार : हरेन्द्र प्रसाद ( helbo )

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