पेरिस समझौते के सार पर गंभीरता से करें विचार

This article discuss about the contentious issues of BONN

#Business_Standard

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते ने जलवायु नेतृत्व को विश्व स्तर पर बांटने का काम किया। अमेरिका के इस समझौते से हटने की घोषणा के मद्देनजर हाल में हुए 23वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (सीओपी23) का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए था कि पेरिस समझौते के सार और भावना को कैसे कायम रखा जाए। लेकिन ऐसा लगता है कि सम्मेलन अपने इस उद्देश्य से भटक गया।

What was agreed in Paris?

  • पेरिस समझौते का सार यह है कि देशों को उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों के लिए बाध्य करने के बजाय हर देश को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपनी योजना सौंपने की इजाजत दी जाए।
  • समझौते की भावना यह है कि हर देश अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ पारदर्शी तरीके से काम करे ताकि देशों के बीच आपस में विश्वास कायम हो और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक स्तर पर अधिक प्रभावी ढंग से सामूहिक कार्रवाई की जा सके।

जर्मनी के शहर बॉन में फिजी की अध्यक्षता में संपन्न सीओपी23 वार्ता के दौरान तीन विवाद उभरे।

  • पहला यह कि भारत और अन्य विकासशील देशों ने इस बात का जमकर विरोध किया कि एजेंडे में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कनवेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत 2020 से पहले की प्रतिबद्घताओं का कोई जिक्र नहीं है। वर्ष 2012 में देशों ने इस बात पर सहमति जताई थी कि क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा चरण 2013 से 2020 तक क्रियान्वित किया जाएगा। अब तक केवल पहली सूची में शामिल 21 देशों (यूरोपीय संघ के केवल 14 सदस्य देशों सहित) ने ही इसे मंजूरी दी है। सम्मेलन में पूरा जोर पेरिस समझौते पर ही रहा जिसमें 2020 के बाद किए जाने वाले उपायों की बात है।

धरती का तापमान बढऩे से भारत के बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है। तापमान में महज 2 फीसदी बढ़ोतरी के ही विनाशकारी परिणाम होंगे। इनमें भयंकर लू, फसलों को नुकसान, बेमौसम बाढ़ और मूसलाधार बारिश जैसी अनपेक्षित मौसमी घटनाएं शामिल हैं। 2020 से पहले के उपायों का मामला उठाना नैतिक और कानूनी रूप से पूरी तरह उचित था क्योंकि उत्सर्जन में व्यापक अंतर (2020 के बाद) से विकासशील देशों पर भारी बोझ पड़ेगा और उन्हें उत्सर्जन में कटौती पर भारी खर्च करना पड़ेगा। विकसित देशों ने अपनी मौजूदा प्रतिबद्घताओं को पूरा नहीं किया है तो यह कैसे माना जा सकता है कि भविष्य के लक्ष्यों को हासिल कर लिया जाएगा? आखिरकार यह तय हुआ कि 2020 से पहले के उपायों की 2018 और 2019 में समीक्षा होगी। लेकिन इसमें किसी तरह की नानुकुर से देशों के बीच भरोसे का संकट पैदा होगा। जलवायु परिवर्तन के निपटने के उपायों को तेज करने के लिए यह भरोसा जरूरी है (पेरिस समझौते की धारा 13 में ऐसी मंशा जाहिर की गई है)।

  • दूसरी बात यह थी कि इस बात पर भी चिंता जताई जा रही थी कि बातचीत कितने पारदर्शी तरीके से हो रही है। सीओपी23 को एक तरह से पूर्वाभ्यास के तौर पर देखा जा रहा था जिससे 2018 के सम्मेलन की तैयारी का मार्ग प्रशस्त होना था। इस सम्मेलन में पेरिस की नियम पुस्तिका को अंतिम रूप दिए जाने की संभावना है। लेकिन कई मौकों पर विकासशील देशों को लगा कि उनके मतलब के मुद्दों को जानबूझकर या फिर अनजाने में नजरअंदाज किया जा रहा है। पेरिस समझौते को लागू करने के लिए जलवायु वित्त को अतिरिक्त विषय में शामिल करने का अहम मुद्दा अंतिम दस्तावेज के प्रारूप से पूरी तरह गायब था। यूएनएफसीसीसी सचिवालय ने इसे टंकण की गलती बताकर पल्ला झाडऩे की कोशिश की जबकि इसमें भारी भरकम बदलाव किए गए थे।
  • तीसरी बात यह है कि सीओपी23 ने जिस तरह पारदर्शिता और उपायों को बढ़ाने का मुद्दा निपटाया उससे असंतुलन पैदा होने का जोखिम है। जन वित्त संसाधनों के बारे में पूर्व सूचना से जुड़ी धारा 9.5 से पारदर्शिता हासिल करने में थोड़ी बहुत प्रगति की है, खासकर जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों की रिपोर्टिंग के लिए औपचारिक प्रावधानों की तुलना में। विकासशील देश पेरिस समझौते पर अस्थायी कार्य समूह (एपीए) के जरिये जलवायु वित्त की रिपोर्टिंग पर औपचारिक प्रक्रियाएं चाहते हैं। इस समूह को पेरिस समझौते के कार्यक्रम से संबंधित सभी अतिरिक्त मामलों पर नजर रखने का अधिकार है। विकसित देश चाहते थे कि सम्मेलन इस मामले को निपटाए। इसका मतलब यह था कि इस मुद्दे पर दिसंबर 2018 में होने वाले सीआओपी24 से पहले चर्चा नहीं होती। समय की कमी को देखते हुए सम्मेलन के अध्यक्ष फिजी ने इस मामले पर अंतर सत्र बैठकों में चर्चा करने के लिए इसे सहायक क्रियान्वयन निकाय (एसबीआई) के हवाले कर दिया। इस तरह एक निकाय के बजाय यह मामला तीन निकायों एपीए, सीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) और एसबीआई के बीच खिंच गया है। इस तरह जलवायु वित्त की रिपोर्टिंग को संचालित करने वाले तौर तरीकों में शायद ही किसी का विश्वास है।

इनसे साफ है कि अगर प्रतिबद्वता, पारदर्शिता और संतुलन के मामले में समझौता हुआ तो अगले साल जलवायु परिवर्तन पर वार्ता नाकाम हो सकती है। भारत को ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों से ज्यादा उपाय करने और जवाबदेही (उत्सर्जन में कटौती के साथ-साथ वित्त और तकनीक) की मांग करनी चाहिए। उसे 2020 के बाद विकसित देशों द्वारा ज्यादा विश्वसनीय कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए प्री-2020 फैसले का फायदा उठाना चाहिए। उसकी दूसरी प्राथमिकता यह सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि लगातार और विस्तृत रिपोर्टिंग की क्षमता निर्माण और समीक्षा के लिए विकासशील देशों के वास्ते बढ़ी पारदर्शिता जरूरतों में लचीलापन बरकरार रहे। साथ ही भारत को अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) को व्यावहारिक सॉल्यूशंस विकसित करने में मदद करके जलवायु के मुद्दे पर अपनी अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करना चाहिए।

Need a concerted effort

सरकार और नागरिक समाज को स्वतंत्र रूप से लेकिन समन्वय के साथ काम करना चाहिए। उत्सर्जन में कटौती और वित्त में संतुलन कायम करने के मामले में आईएसए (जो 6 दिसंबर 2017 को अंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त संस्था बन जाएगी) स्वच्छ ऊर्जा निवेश में जोखिम को कम करने के लिए गैर लाभकारी संस्थानों के साथ मिलकर वित्तीय ढांचे का डिजाइन बनाने की दिशा में काम कर रहा है। पारदर्शिता पर भारत की नागरिक समाज संस्थाओं के पास सूक्ष्म स्तर पर सभी क्षेत्रों में उत्सर्जन को सूचीबद्घ करने की क्षमता है। इस संस्थागत क्षमता से अन्य विकासशील देशों को इस तरह के तरीके अपनाने में मदद मिल सकती है। प्रतिबद्घता के मामले में भारतीय (और अन्य विकासशील देशों) संस्थाओं को उत्सर्जन अंतर, अनुकूलन समर्थन, वित्त की आपूर्ति और विकसित देशों तथा दुनिया के शीर्ष उत्सर्जकों द्वारा प्रतिबद्घ या प्रवर्तित तकनीकी मंचों के बारे में स्वतंत्र आकलन कराना चाहिए।

पेरिस समझौते का संबंध पूरी दुनिया से है, किसी एक देश से नहीं। हमें प्रतिबद्घताओं को लागू कराने, पारदर्शिता बढ़ाने और संतुलन सुनिश्चित करने की चुनौती का सामना करना चाहिए। अन्यथा, इस समझौते का सार कम हो जाएगा और इसकी भावना लुप्त हो जाएगी।

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