#Dainik_Jagaran
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की मदद से चलने वाला ‘सिक्योर हिमालय’ प्रोजेक्ट एक बड़ी पहल है। उत्तराखंड जैसे राज्य में इसकी जरूरत भी थी। ऐसा नहीं है कि इस पहाड़ी प्रदेश का आम नागरिक पर्यावरण का मूल्य न समझता हो। वन और जन के बीच जितना गहरा रिश्ता यहां है, बहुत कम राज्यों में ऐसा होगा। पौड़ी से पिथौरागढ़ और चमोली से चम्पावत तक लोग व्यक्तिगत प्रयास से जंगलों का संरक्षण कर रहे हैं। टिहरी जिले का लस्याल गांव इसका एक उदाहरण है, जहां अपने बलबूते ग्रामीणों ने बांज का जंगल उगा दिया। तकरीबन चार वर्ग किलोमीटर में फैली हरियाली गांवों वालों की भावना व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है। थोड़ा अतीत में झांके तो पता चलता है कि वन के प्रति जन की उदासीनता के लिए सरकारी सिस्टम जिम्मेदार है।
जब से ग्रामीणों के हक-हकूक पर पाबंदी लगाई गई, तब से इस रिश्ते में कुछ दूरी आई। दरअसल, सरकारी कायदे-काूननों ने कुछ ऐसा संदेश दिया कि जंगलों के सानिध्य में रहने वाले लोगों को लगने लगा कि वे विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं। उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री के इलाके को ईको सेंसिटिव क्षेत्र घोषित करने पर जनभावनों का जो ज्वार देखने को मिला, उससे साफ है कि सरकारें ग्रामीणों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहीं कि पर्यावरण संरक्षण और विकास एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। जब पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण की बात की जाती है तो ऐसा लगता है कि उस क्षेत्र में अब कोई निर्माण संभव नहीं है। आजादी के 70 साल बाद भी पहाड़ के कई गांव आज भी सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं। इनमें से ज्यादातर की दिक्कत यह है कि सड़क वनभूमि से गुजरनी है। बिजली, पानी, स्कूल और स्वास्थ्य की सुविधा भी काफी कुछ सड़क पर ही निर्भर करती है। इतना ही नहीं ग्रामीणों की जिंदगी जब वन उत्पादों पर निर्भर थी, तब उनमें वन को सहेजने का नैसर्गिक बोध भी था। इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पर्यावरण के सरंक्षण और विकास के बीच संतुलन बनाए बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वन और जन के रिश्ते को मजबूत किए बिना जैवविविधता बचाने की बात करना बेमानी होगी। हिमालय तभी सुरक्षित रहे जब यहां के निवासियों की परेशानियों को समझ योजनाएं बनेंगीं। उम्मीद की जानी चाहिए ‘सिक्योर हिमालय’ इस दिशा में पहल करेगा।