Environment is important for human survival and i needs to be made part of curriculum
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करीब दो दशक से भी ज्यादा वक्त हो गया जब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह देश भर के कॉलेजों में पर्यावरण को एक अनिवार्य विषय बनाए। काफी प्रयासों के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने इस पाठ्यक्रम के लिए व्यापक विषय सूची तैयार की। स्नातक स्तर के अध्ययन के लिए इसे अनिवार्य बनाया गया लेकिन छात्रों के कुछ पाठ्यक्रम में इसकी महत्ता काफी कम रखी गई।
Need to understand Importance of Environment
सच तो यह है कि हम सब पर्यावरण के युग में जी रहे हैं। यह एक ऐसा युग है जिसमें मनुष्यों का दबदबा है और उन्होंने पर्यावरण को काफी हद तक प्रभावित किया है। वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो यह बात स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और इसने अर्थव्यवस्थाओं और आम लोगों, दोनों को असुरक्षित किया है। मौसम में बदलाव और अधिक विचित्र तथा अतिरंजित रूप लेता जा रहा है और ऐसे में तूफान, समुद्री तूफान, सूखे और बाढ़ की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन इसलिए पैदा हुआ क्योंकि मनुष्य के ईंधन, उद्योगों, घरों आदि से होने वाले उत्सर्जन ने वातावरण में कार्बन बढ़ाया। इसलिए हमें ही यह सबक सीखना होगा कि कैसे बिना विनाश के भविष्य का निर्माण किया जाए।
यही वजह है कि हमें पर्यावरण की अहमियत को भी समझना होगा। इसका ताल्लुक हमारी अर्थव्यवस्था से है, हमारे अस्तित्व से है और हमारी बेहतरी से है। पर्यावरण अब बीते दिनों की चिंता नहीं रह गया है। हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण हमारे विकास की अवधारणा के केंद्र में है। यह विकास समावेशी होना चाहिए क्योंकि केवल तभी यह स्थायित्व भरा हो सकेगा।
Importance of Environment Education
पर्यावरण के बारे में पढऩे और पढ़ाने का अर्थ है हमारी जिंदगी के हर पहलू के बारे में पढऩा और पढ़ाना। हमें यह संबंध स्थापित करना होगा। पर्यावरण संबंधी अध्ययन दुनिया भर के विषयों का हिस्सा है। रसायन शास्त्र से लेकर भूगोल और इतिहास तक यह हमारी जिंदगी से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण शिक्षा का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम अपने आसपास की घटनाओं से शिक्षा लेते रहें।
पर्यावरण संबंधी अध्ययन कभी किताबी अध्ययन बनकर नहीं रह सकता है बल्कि इसे समझने के लिए वास्तविक जीवन से जुड़ी घटनाओं का अध्ययन, अध्यापन और उनकी जटिलताओं को पूरी समग्रता में समझना आवश्यक है। पर्यावरण प्रबंधन की समस्या का कोई एक हल नहीं है। कुछ परिस्थितियों में लागू होने वाली बात अन्य परिस्थितियों में नहीं लागू होती है। इसके अलावा कई बार हम एक समस्या का हल तलाश करते हैं लेकिन तब तक दूसरी समस्या सामने खड़ी हो जाती है। पर्यावरण को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम सवाल पूछना शुरू करें। हमें पूरी विनम्रता से यह स्वीकार करना होगा कि हम पर्यावरण को अच्छी तरह नहीं समझते हैं और हमें पूरी जिज्ञासा से सवाल पूछने होंगे।
Developed world & Environment
जरा समृद्ध देशों के शहरो में वायु प्रदूषण नियंत्रण पर नजर डालें। विश्वयुद्ध के बाद के दौर में आर्थिक वृद्धि के प्रयास में प्रदूषण को नियंत्रित करना मुश्किल बना रहा। लंदन से लेकर टोक्यो और न्यूयॉर्क तक ऐसा ही था। इस बीच जब नागरिकों में पर्यावरण को लेकर जागरूकता बढऩे लगी तो इन शहरों ने वाहनों और ईंधन के क्षेत्र में नई तकनीक में निवेश करना शुरू किया। सन 1980 के दशक के मध्य तक प्रदूषण संकेतक यह बताते रहे कि ये शहर स्वच्छ हैं। परंतु सन 1990 के दशक के आरंभ में प्रदूषण के आकलन के तरीकों में प्रगति हुई। तब वैज्ञानिकों ने माना कि प्रदूषण के लिए वे छोटे और महीन कण उत्तरदायी हैं जिनका आकलन नहीं हो पा रहा था। ये सांस के माध्यम से अंदर जाते थे और हमारे फेफड़ों तथा रक्त संचार को प्रभावित करने की हैसियत रखते थे। इसकी सबसे अहम वजह था वाहन उद्योग द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला डीजल। यही वजह है कि वाहन और ईंधन तकनीक में नवाचार आरंभ हुआ। इससे डीजल में सल्फर की मात्रा कम की जा सकी और वाहनों से निकलने वाले कणों की रोकथाम संभव हुई। यह माना जाने लगा कि नई तकनीक ने प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में कामयाबी हासिल कर ली है।
परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब वैज्ञानिकों को पता चल रहा है कि उत्सर्जन-ईंधन से जुड़ी तकनीक अधिकांश प्रदूषक कणों को रोक लेता है, उनका आकार कम कर देता है लेकिन उत्सर्जन का स्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। क्योंकि कई कण अत्यंत छोटे होते हैं। इन्हें नैनोपार्टिकिल्स कहा जाता है और इनका आकलन नैनोमीटर में किया जाता है। यह माप एक मीटर के सौ करोड़वें हिस्से के आकार की होती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये कण कहीं अधिक घातक हो सकते हैं क्योंकि ये मानव शरीर को आसानी से भेदने की क्षमता रखते हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि प्रौद्योगिकी ने इन कणों की मात्रा तो कम कर दी है लेकिन वाहनों से समान रूप से घातक नाइट्रोजन ऑक्साइड का निकलना जारी है।
एक कटु तथ्य और है। दुनिया के जो देश अमीर हैं उन्होंने शायद अपने शहरों को साफ कर लिया होगा लेकिन उन्होंने जो उत्सर्जन किया है उसने पूरी दुनिया की जलवायु को जोखिम में डाल दिया है। इसके चलते लाखों लोगों के लिए जोखिम उत्पन्न हो गया है। जो पहले से कमजोर थे वे और पीडि़त हो गए। इस तरह समस्या वैश्विक हो चली है। बिगड़ते हालात ने कमजोर देशों की वृद्घि के लिए मुश्किलें खड़ी की हैं।
यही वजह है कि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो यह कह सके कि उसे स्थायी या सतत विकास का मतलब जानता है। किसी को इसका संपूर्ण स्वरूप नहीं मालूम जो हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए बेहतर हो और जो कम लागत में हम सबकी जरूरतें पूरी कर सके। पर्यावरण को लेकर शिक्षण और सबक का संबंध इसे लेकर नए विचारों को आगे बढ़ाने से भी है