पहले 2 भाग में हमने विश्व राजनीति पर कोरोना के प्रभाव तथा पोस्ट कोरोना दौर में भारत की विदेश नीति के संभावी बदलावों की चर्चा की थी जिसे आगे बढ़ाते हुए हम अब भारतीय राजनीति पर इस महामारी से उपजे घटनाक्रम और संवैधानिक, राजनीतिक परिदृश्य में दिख रहे नवीन आयामों और भावी दिशा की चर्चा करने और समझने की कोशिश करेंगे।
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(राजव्यवस्था के कुछ सैद्धांतिक पहलुओं को समझने के लिए मैं कुछ बिंदुओं पर चर्चा भारत और अमेरिका के मध्य तुलना के बिंदुओं के आधार पर करूँगा कि किस तरह दोनों देशों ने महामारी का सामना करने में भिन्न भिन्न रणनीति अपनाई और जो दोनों राजव्यवस्थाओं की भिन्नता को भी दर्शाता है।)
1 कोरोना महामारी से जिस तरह से निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी प्रभावशीलता दर्शाई है उसने यह स्पष्ट कर दिया है कि सैद्धांतिक राजनीति में 'लोक कल्याणकारी राज्य' की संकल्पना अभी भी प्रासंगिक बनी हुई है।
राज्य के समक्ष उत्पन्न निरंतर नवीन चुनौतियों ने नकारात्मक उदारवाद के 'मिनिमल स्टेट' की संकल्पना पर एक बार पुनः संदेह पैदा किए हैं।
महामारी से जनित चुनौती ने पुनः 'सामाजिक न्याय' की संकल्पना को और प्रभावी रूप से समझने की जरूरत रेखांकित की है और ऐसा ना केवल भारत बल्कि जनवादी लोकतंत्र वाले देश चीन और साथ ही साथ उदारवाद की घोर पैरवी करने वाले ब्रिटेन, अमेरिका जैसी राजनीतिक व्यवस्थाओं में भी देखा जा रहा है।
2 इस चुनौती ने 'पुलिस राज्य' की संकल्पना के विपरीत एक बार पुनः सरकारों के कार्यक्षेत्र में वृध्दि की है और राज्य की भूमिका 'फ्रॉम क्रैडल टू ग्रेव' ( From Cradle to Grave ) तक बढ़ गई है।
भारत में ही एक ओर केंद्र सरकार द्वारा 'प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना' के तहत 1.70 लाख करोड़ रुपये आर्थिक मदद के लिए खर्च किए जाने हैं, चिकित्सा सुविधाओं पर खर्च बढ़ाया जा रहा है, लगातार मेडिकल उपकरणों के आयातों के माध्यम से महामारी के प्रभाव से आमजन को सुरक्षित रखने की कोशिश की जा रही हैं और हर राज्य सरकार भी अपने अपने संसाधनों के साथ हर व्यक्ति तक जुड़ी हुई हैं।
राशन और पेंशन की घरों तक डिलीवरी, अंतरराज्यीय सीमाओं पर फँसे श्रमिकों के लिए भोजन की व्यवस्था, विद्यार्थियों को घर पहुंचाने के लिए बसें, विदेशों में फंसे हुए भारतीयों को भारत लाना जैसे सभी कदम राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि के ही परिचायक हैं।
सरकारों के कार्यक्षेत्र में यह वृद्धि भी केवल भारतीय परिघटना नहीं है बल्कि महामारी से प्रभावित विश्व के अधिकांश देश इसी रणनीति का अनुसरण कर रहे हैं।
राज्य के कार्यक्षेत्र में इस वृद्धि के पक्ष विपक्ष में विचारधारा अनुसार तर्क दिए जा सकते हैं। राज्य के कार्यक्षेत्र में यह वृध्दि नौकरशाही के व्यापक होने का सूचक है और कोरोना के परवर्ती दौर में नौकरशाही की व्यापकता की समीक्षा किया जाना अनिवार्य होगा।
3 राज्य के कार्यक्षेत्र की इस वृध्दि ने राज्य नेतृत्वकर्ताओं के मूल्यांकन के अवसर भी राजनीतिक विश्लेषण के लिए एक विषय के रूप में उपलब्ध कराए हैं।
नेतृत्व की राजनीतिक परीक्षा का यह पक्ष भारत और अमेरिकी दृष्टिकोण की भिन्नता से प्रकट होता है। जहाँ भारत के प्रयासों और रणनीति की अनेक स्वतंत्र विश्लेषक और शोधकर्ताओं ने भी प्रशंसा की है वहीं अमेरिका का नेतृत्व इस मूल्यांकन में तुलनात्मक रूप से कमजोर प्रतीत होने लगा है जहाँ महामारी के खिलाफ कोई ठोस रणनीति दृष्टिगत नहीं होती और आज अमेरिका इस महामारी के खिलाफ अपने इतिहास की सबसे व्यापक जंग लड़ रहा है।
भारत की आन्तरिक राजनीति का भी यदि विश्लेषण करें तो राज्यों के स्तर पर भी नेतृत्व की कुशलता और महामारी का सामना करने की रणनीति ने राज्य क्षत्रपों के प्रभाव में वृध्दि की है। केरल, गोआ, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों के कुशल नेतृत्व ने महामारी के व्यापक फैलाव को रोकने में प्रभावी भूमिका अदा की है।
4 नेतृत्व की परीक्षा के साथ साथ महामारी ने राजव्यवस्था के स्वरूप का विश्लेषण करने का अवसर दिया है। भारत के सन्दर्भ में अक्सर चुनावी राजनीति के दौर में यह कहा जाता है कि यहाँ भी संसदात्मक व्यवस्था के स्थान पर अध्यक्षात्मक व्यवस्था के विकल्प को अपनाया जाना चाहिए लेकिन वर्तमान में यदि हम भारत और अमेरिका में महामारी के प्रसार और रोकथाम के प्रयासों की तुलना करें स्पष्ट होता है कि भारत ने जिस बेहतर तरीके से इस महामारी का सामना किया है, अमेरिका तुलनात्मक रूप से इसमें पिछड़ गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि वहां अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के चलते एक ही व्यक्ति के हाथ में निर्णय की समस्त शक्ति है जबकि भारत में निर्णय लेने में समग्रता को महत्व दिया जा रहा है जहाँ प्रधानमंत्री के साथ साथ स्वास्थ्य मंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री आदि की भी प्रभावी भूमिका है तथा राज्य सरकारें भी अपने अपने राज्य में सामूहिक रूप से इस महामारी का सामना कर रही हैं और यह भारतीय समाज व्यवस्था के अनुरूप भी है। यह स्पष्ट करता है कि भारत के परिप्रेक्ष्य में आज भी अध्यक्षात्मक व्यवस्था एक विकल्प के रूप में उचित नहीं है।
इसी के साथ-साथ यदि भारत और अमेरिका की संघात्मक व्यवस्था की तुलना की जाए तो भी यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संघात्मक व्यवस्था इस प्रकार की चुनौतियों से निपटने में अमेरिकी संघात्मक व्यवस्था से कहीं बेहतर है और यह भारतीय संविधान निर्माताओं की सूझबूझ और उस दूरदर्शिता को प्रकट करता है जब उन्होंने संघात्मक व्यवस्था के प्रमुख उदाहरण अमेरिका की शासन प्रणाली को भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्वीकार न कर संघात्मक व्यवस्था के कनाडाई मॉडल को अपनाया।
5 भारतीय संघवाद के विश्लेषक 'सहयोगी संघवाद' के मॉडल को भारतीय परिस्थितियों में सर्वाधिक व्यावहारिक पाते हैं और कोरोना से निपटने में सहयोगी संघवाद का यह ढांचा और मजबूत ही हुआ है।
केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य परस्पर समन्वय, लगातार वार्ता, माननीय प्रधानमंत्री के द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, केंद्र द्वारा दिए गए निर्देशों और लॉक डाउन के संबंध में दिए गए सुझावों का राज्य सरकारों द्वारा पालन आदि ने संघवाद को और मजबूत बनाया है।
केंद्र और राज्यों के मध्य सहयोग के साथ साथ राज्यों ने भी इस महामारी का सामना करने में अपनी मजबूती और दृढ़ता का प्रदर्शन किया है। दिल्ली में कोरोना प्रभावित मरीज के उपचार में प्लाज्मा थेरेपी की सफलता के बाद ICMR ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी इसके प्रयोग की सहमति दी है।
सहयोगी संघवाद के सकारात्मक पक्ष के साथ-साथ कुछेक बिंदुओं पर प्रतिस्पर्धा अथवा केंद्र राज्यों के मध्य तनाव भी प्रकट हुए हैं जैसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री द्वारा केंद्रीय दल के राज्य में भेजे जाने का विरोध, राज्यों द्वारा केंद्र से अधिक और पक्षपात रहित राहत पैकेज की मांग जैसे मुद्दे जिनका समाधान भी संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुपालन में निहित है।
6 राज्यों में भी जिस तरह से इस महामारी का सामना किया गया है उसने तृणमूल स्तर पर भी संघवाद के तृतीय ढाँचे को पुख्ता किया है।
भीलवाड़ा मॉडल, गोरखपुर मॉडल जैसे शब्द भारतीय व्यावहारिक राजनीति के शब्दकोश में नए जुड़े हैं, महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इन जिलों की सफलता केवल अपने राज्य तक सीमित नहीं हैं बल्कि पूरे देश में इन्हें अपनाने की पैरवी की जा रही है और नगरीय प्रशासन की इस सफलता ने 73वें-74वें संविधान संशोधनों की भावनाओं को पुष्ट किया है।
राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा सरपंचों के साथ किया गया प्रत्यक्ष संवाद भारतीय लोकतंत्र के और मजबूत होने तथा लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सफलता का प्रतीक है।
7 महामारी के इस दौर ने भारतीय लोकतंत्र की समीक्षा का भी अवसर प्रदान किया है और स्पष्ट किया है कि भारतीय लोकतंत्र केवल चुनावी लोकतंत्र तक सीमित नहीं है बल्कि यह शनैः-शनैः 'सहभागी लोकतंत्र' का एक प्रतिरूप बन रहा है जिसमें सरकार और नागरिकों के मध्य की दूरी स्वाभाविक रूप से कम हुई है और परस्पर विश्वास में वृद्धि हुई है।
भारतीय प्रधानमंत्री के द्वारा जनता के साथ लगातार संवाद और विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय एकता के भाव का बढ़ना भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता को दर्शाता है।
8 महामारी की चुनौती ने राज्यों के मध्य परस्पर संबंधों के भी पुनरावलोकन का अवसर प्रदान किया है
क्योंकि एक ओर राज्यों के मध्य परस्पर सहयोग देखा जा रहा है जैसे राजस्थान सरकार ने कोटा में रह रहे दूसरे राज्यों के छात्र छात्राओं को घर भेजने में उन राज्य सरकारों को मदद की वहीं दूसरी ओर राज्यों के मध्य आपसी तनाव भी प्रकट हुए हैं जैसे
दिल्ली और उत्तर प्रदेश में श्रमिकों के आने जाने के मुद्दे पर परस्पर समन्वय का अभाव या कर्नाटक द्वारा केरल की सीमा पर रोक लगाने पर।
ऐसे में भारतीय राजव्यवस्था के विश्लेषकों और राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों को राज्यों के मध्य तनाव के मुद्दों को और उनके कारणों को गहराई से समझ कर उनके समाधान सोचे जाने की आवश्यकता है।
9 महामारी से उत्पन्न चुनौतियों का एक बड़ा असर आर्थिक जगत पर पड़ा है जो केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय मुद्दों और परस्पर वित्तीय संबंधों को गहरे रूप में प्रभावित कर रहा है।
एक ओर केंद्र और राज्य सरकारों ने लॉक डाउन के चलते वित्तीय गतिविधियों पर रोक लगाई है जिससे वित्तीय संसाधनों का जुटाव कठिन हो गया है तो वहीं दूसरी ओर सरकारों के खर्चे बढ़ गए हैं जिससे राज्य को अघोषित वित्तीय आपात जैसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
संसाधनों के जुटाव के लिए एक ओर केंद्र और राज्य सरकारों ने सरकारी कार्मिकों के वेतन कटौती व स्थगन जैसे विकल्प अपनाए हैं तो साथ ही साथ नागरिक समाज से यथासंभव सहयोग प्राप्त कर उपलब्ध संसाधनों को महामारी से निपटने में प्रयुक्त किया है।
केंद्र सरकार के द्वारा गठित 'पीएम केयर्स फंड' जैसा ट्रस्ट संसाधनों का जुटाव कर रहा है जो भारतीय संविधान और राजव्यवस्था के विश्लेषकों और साथ ही साथ समीक्षकों के लिए अध्ययन का एक नवीन प्रकरण हैै।
यह बिंदु महत्वपूर्ण है कि ट्रस्ट में जमा राशि भारतीय संविधान में वर्णित संचित निधि,लोक लेखा निधि और आकस्मिकता निधि से भिन्न है है और ध्यातव्य है कि यह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की लेखा परीक्षा से भी स्वायत्त है।
इस अघोषित वित्तीय संकट ने केंद्र राज्य वित्तीय संबंधों की भी समीक्षा करने की आवश्यकता महसूस कराई है क्योंकि यह स्पष्ट है कि राज्य अपने वित्तीय संसाधनों में पूर्ण सक्षम नहीं हैं और केंद्र की सहायता पर निर्भर हैं और राज्य सरकारें लगातार इस बात का जिक्र कर रही हैं कि केंद्र द्वारा राज्यों को वित्तीय संसाधनों का हस्तानांतरण राज्यों की वास्तविक आवश्यकता के अनुसार ना होकर अपने विवेक से किया गया है जो वित्तीय संघवाद की मूल भावना के अनुरूप नहीं है।
इस महामारी के दौर ने सरकारीकरण अथवा निजीकरण की बहस को भी पुनर्जीवित किया है क्योंकि महामारी की व्यापकता ने सरकारी क्षेत्र की महत्ता को ठोस रूप में आगे बढ़ाया है। भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में नागरिकों का सरकारी व्यवस्था के प्रति झुकाव बढ़ा है यद्यपि यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि निजी क्षेत्र भी अपनी यथोचित भूमिका निभा रहा है चाहे वह संसाधनों के जुटाव का मसला है या नवीन तकनीकों की खोज और उन पर अनुसंधान।
हाँ यह बिंदु महत्वपूर्ण है कि निजी क्षेत्र की बेहतर जवाबदेही तय करने की आवश्यकता है। श्रम सुधार, श्रमिकों का पलायन, उद्योगों का स्थानीयकरण, निजी क्षेत्र के नियमन के सम्बन्ध में राज्य के हस्तक्षेप का दायरा आदि मुद्दों को गहराई से विश्लेषित किया जाना अपरिहार्य है।
सरकारी बनाम निजी की प्रतिस्पर्धा के बावजूद भी निष्कर्षस्वरूप किसी एक को अपनाने या दूसरे को नकारने का विकल्प नीतिनिर्माताओं के समक्ष एक व्यावहारिक विकल्प नहीं है और भारत जैसे विकासशील देश में सरकारी और निजी क्षेत्र की परस्पर पूरकता ही सर्वथा उपयुक्त है।
वित्तीय मुद्दों की व्याख्या से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि राजनीति एक स्वतंत्र अथवा स्वायत्त गतिविधि नहीं है बल्कि राजनीतिक निर्णय आर्थिक मुद्दों से प्रभावित होते हैं जैसा कि हमने देखा है अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा लॉक डाउन को लागू न करने का निर्णय आर्थिक आधार पर लिया गया निर्णय था जबकि भारत में आर्थिक क्षेत्र की तुलना में सामाजिक क्षेत्र को वरीयता दी गई और लॉक डाउन के आगामी चरणों में आर्थिक क्षेत्र को भी क्रमिक रूप से खोला गया ताकि अर्थव्यवस्था को पुनः गति प्रदान की जा सके।
10 महामारी से उत्पन्न परिदृश्य ने अनेक संवैधानिक मुद्दों पर विचार करने की जरूरत भी महसूस कराई है जिन पर राजनेताओं, संविधान के अध्येताओं द्वारा भी भावी संशोधनों की दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए जैसे:-
A अनुच्छेद 352 के तहत उद्घोषित राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा में 'महामारी से जनित परिस्थितियाँ ' भी राष्ट्रीय आपात को लागू करने का एक आधार हो सकती हैं !
B सर्वोच्च न्यायालय की प्रक्रिया में भी बदलाव लाया जाना चाहिए जैसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई को संवैधानिक आधार दिया जाए, संविधान संशोधन द्वारा न्यायालय की क्षेत्रीय पीठ स्थापित की जाएं !
C मध्य प्रदेश में मात्र मुख्यमंत्री द्वारा शासन का संचालन क्या संवैधानिक मानदंडों के अनुरूप है जबकि अनुच्छेद 163 स्पष्ट रूप में मंत्रिपरिषद शब्द का उल्लेख करता है !
D अनुच्छेद 164 यह भी स्पष्ट करता है कि किसी राज्य में मंत्रियों की संख्या मुख्यमंत्री सहित 12 से कम नहीं होगी तो क्या मध्यप्रदेश का शासन संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप चल रहा था !
E महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करें तो क्या राज्यपाल किसी सदस्य को मनोनीत करने के लिए राज्य मंत्रिमंडल की सलाह मानने को बाध्य है और ऐसा कोई प्रस्ताव कितने समय में निर्णीत किया जाना चाहिए !
अनुच्छेद 171 विधानपरिषद में मनोनयन का आधार कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा और सहकारिता से जुड़े व्यक्तित्व को मानता है तो क्या इसका निर्णय राज्यपाल के विवेक पर छोड़ा जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति किसी क्षेत्र विशेष से जुड़ा हुआ है अथवा नहीं !
निश्चित रूप में महामारी से जनित परिस्थितियों ने भारतीय राजव्यवस्था के समक्ष नए राजनीतिक, संवैधानिक, व्यावहारिक आयाम पेश किए हैं और यह बिंदु महत्वपूर्ण है कि भारतीय लोकतंत्र इससे जनित चुनौतियों का सामना कर और बेहतर लोकतंत्र के रूप में निखरेगा जो हमारी राजनीतिक समझ को और परिपक्व बनाएगा।
सादर,
गौरव जैन,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
राजकीय महाविद्यालय, बाड़ी।