Context
सुप्रीम कोर्ट के बार-बार कहने के बाद भी सरकार ने दागी नेताओं के बारे में मांगी गई जानकारी शीर्ष अदालत को अब तक नहीं दी है, न ही दागी नेताओं पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष अदालतों के गठन के बारे में कोई संतोषजनक जवाब दिया है। सरकार के इस रवैये पर अदालत ने सख्त नाराजगी जताई है।
Why to curb Criminalisation of politics
- राजनीति में अपराधीकरण पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि किसी भी तरह के अपराध में शामिल या पुख्ता आरोपों का सामना कर रहे व्यक्ति को चुनावी राजनीति में आने से रोका जाए। सर्वोच्च अदालत इसी मामले पर दायर याचिका की सुनवाई कर रही है। उसने सरकार से दागी सांसदों और विधायकों के लंबित मुकदमों और उन्हें निपटाने के बारे में उठाए गए कदमों के बारे में जानकारी मांगी है। लेकिन इस मामले में सरकार अब तक जिस तरह से हीला-हवाली करती आई है, उससे संकेत यही मिलता है कि वह कहीं न कहीं दागियों को बचाने में लगी है। अगर ऐसा है तो यह वाकई गंभीर बात है।
- दरअसल, चुनावी राजनीति में दागियों की घुसपैठ को लेकर अभी तक ऐसा कोई ठोस कानून नहीं बन पाया है, जिससे राजनीति में आपराधिक छवि वाले लोगों को आने से रोका जा सके। हालांकि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में गंभीरता से पहल की है, लेकिन राजनीतिक दलों की ओर से अब तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है। इसमें संदेह नहीं है कि राजनीति में दागदार लोगों का प्रवेश राजनीतिक दलों की मेहरबानी से ही होता है। वे चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं और इसी वजह से आपराधिक छवि वाले नेताओं को चुनाव में उतारने से जरा भी नहीं हिचकते। जाहिर है, जो व्यक्ति धन-बल की ताकत से राजनीति में प्रवेश करेगा और सत्ता हासिल करेगा, वह देश का क्या कल्याण करेगा! राजनीतिक दलों का यही स्वार्थ राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने वाला सबसे बड़ा कारण है। इसलिए राजनीति को दागदार नेताओं से मुक्त करना है तो इसके लिए पहल दलों को ही करनी होगी। उन्हें यह संकल्प लेना होगा कि वे ऐसे किसी उम्मीदवार को चुनाव मैदान में नहीं उतारें जिसके खिलाफ कोई मुकदमा या गंभीर आरोप हो या जिसकी छवि एक अपराधी के तौर पर हो।
दागी नेताओं के मामले में सरकार के टालमटोल भरे रवैए पर शीर्ष अदालत की नाराजगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मामले की सुनवाई कर रहे पीठ को इस बार चेतावनी भरे शब्दों का प्रयोग करने पर मजबूर होना पड़ा है।
पीठ ने साफ कहा है कि सरकार इस मामले में अदालत को ऐसा आदेश जारी करने को मजबूर कर रही है जो हम करना नहीं चाहते।
Big Question:
ऐसे में सवाल है कि आखिर सरकार के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वह दागी विधायकों को लेकर उठाए गए कदमों की जानकारी अदालत को देने से बच रही है। अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं करती है तो इसका गलत संदेश जनता में जाता है। यह एक तरह से अदालत की अवमानना भी कही जा सकती है। इस मसले पर कोई ठोस पहल करने के मामले में सरकार जिस तरह की शिथिलता बरत रही है उससे यही आभास होता है कि यह मामले को लटकाने की कोशिश है। शीर्ष अदालत ने पिछले साल चौदह दिसंबर को दागी नेताओं के मुकदमों की सुनवाई के लिए बारह विशेष अदालतें बनाने और इनमें एक मार्च से कामकाज सुनिश्चित करने का निर्देश केंद्र को दिया था। लेकिन इस दिशा में जिस तरह की लापरवाही दिखाई जा रही है, उसे अच्छा संकेत तो नहीं कहा जाएगा!
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