टीवी के पर्दे पर किसी क्रीम से चुटकियों में कमर दर्द या मुहांसे गायब होते हम रोज देखते हैं. हम जानते हैं कि ऐसा वास्तव में नहीं होता. यह मिथ्या या कह लीजिये अतिरंजित प्रचार है, विज्ञापन है. लेकिन समाचारों पर हम भरोसा करते हैं. अगर समाचार असत्य हो, मुनाफे के वास्ते या किसी की लोकप्रिय छवि बनाने अथवा बिगाड़ने के लिए मिथ्या प्रचार को समाचार का रूप दिया जाये तो? जनता तो समाचार को सत्य ही मानती आयी है. इसलिए आज के समय में किसी भी उद्देश्य से हो, झूठ को समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है
Read more @ डाटा चोरी और फेक न्यूज का मकड़जाल Social Media and fake news
इसी कारण वर्तमान युग को ‘उत्तर-सत्य’ (POST-YOUTH) समय कहा जाने लगा है. यानी सत्य के रूप में जो पेश किया जा रहा है, वह अंतिम नहीं है. उसके बाद, उसके पीछे कुछ और सत्य है.
- केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने ‘झूठी खबरें’ देनेवाले पत्रकारों पर अंकुश लगाने की पहल करके इस मुद्दे को हवा दे दी. प्रस्ताव की जानकारी होते ही मीडिया जगत में हल्ला मच गया. इसे पत्रकारों पर बंदिश लगाने के सरकार के कदम के रूप में देखा गया.
- सरकार वैसे ही मीडिया को येन-केन-प्रकारेण अपने पक्ष में करने के आरोपों से घिरी है. कई वरिष्ठ पत्रकारों ने इसकी तुलना राजीव गांधी के दौर में लाये गये अवमानना विधेयक और इंदिरा गांधी के आपाकाल से करते हुए व्यापक आंदोलन की अपील की. गनीमत हुई कि वैसी नौबत आने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्मृति ईरानी की ओर से हुई पहल पर रोक लगा दी.
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Fake news & Trump Election
इससे ‘चुनावी वर्ष में मीडिया को दबाने के प्रयास’ से जनित आक्रोश तो शांत हो गया है, लेकिन ‘फेक न्यूज’ या झूठी खबरों का मामला गर्म बना हुआ है. यह मुद्दा आज पूरी दुनिया में जेरे बहस है. साल 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से डोनाल्ड ट्रंप के उतरने और अंतत: जीतने के बाद अमेरिकी राजनीति और पत्रकारिता आये दिन ‘फेक न्यूज’ के आरोप-प्रत्यारोपों से घिरे रहे. मीडिया ने ट्रंप के रोज झूठ बोलने की पोल खोली, तो ट्रंप ‘फेक मीडिया’ को झूठी खबरों के लिए लताड़ने से लेकर ‘पुरस्कृत’ करने की घोषणा तक कर गये.
भारत में साल 2012 से नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से मिथ्या समाचारों का मामला ज्यादा बड़ा और गर्म होता गया. मोदी सरकार, भाजपा और उसके कट्टर हिंदू संगठनों से लेकर मीडिया के बड़े वर्ग पर मोदी सरकार के पक्ष में झूठी खबरें देने तथा मिथ्या प्रचार से प्रधानमंत्री की छवि चमकाने के आरोप लगे. ‘गोदी मीडिया’ जैसा जुमला गढ़ा गया. विपक्ष की तरफ से उसी तर्ज पर जवाब देने की कोशिशें होती रही हैं.
‘मिथ्या समाचार’ क्या हैं, इस पर विवाद होते हैं. क्या वही खबरें झूठी हैं, जो बिना किसी आधार के किसी एक पक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए गढ़ी गयी हों? क्या वे समाचार इस श्रेणी में नहीं आते जो तथ्यों को तोड़-मरोड़कर किसी के पक्ष में पेश किये जाते हैं? बिना तथ्यों की जांच किये, मामले की गहराई में गये बिना, सभी पक्षों को सुने बिना, एकांगी दृष्टि से लिखे गये और प्रायोजित समाचार क्या मिथ्या श्रेणी में नहीं आते?
What is ethics of Journalism?
पत्रकारिता का मूल मंत्र है निष्पक्ष होकर प्रत्येक कोण से समाचार की पड़ताल करना. सावधान रहना कि कोई भी गलत या अपुष्ट सूचना न जाने पाये. किसी सूचना पर संदेह हो और पुष्टि न हो पा रही हो, तो उसे छोड़ देना. ऐसे समाचारों से परहेज करना जो सत्य होने के बावजूद समाज को तोड़ने, अविश्वास फैलाने और फसाद खड़ा करने का कारण बनते हों. आज पत्रकारिता के ये मानदंड लगभग ध्वस्त हो गये हैं.
Corporate Media & How it affecting Ethics
मिशन से धंधा बन गयी पत्रकारिता नैतिकता और सरोकारों से बहुत दूर चली गयी है. मीडिया घरानों के अपने स्वार्थों से लेकर राजनीतिक निष्ठाओं के लिए पत्रकारिता इस्तेमाल की जा रही है. कुछ वर्ष पहले तक बड़ा अपराध माने जानेवाले ‘पेड न्यूज’ आज स्वीकार्य जैसे हो गये हैं. धन लेकर कुछ भी प्रसारित करने की कई बड़े मीडिया घरानों की स्वीकारोक्ति वाले हाल के ‘कोबरापोस्ट’ स्टिंग ने इसीलिए बहुत सनसनी नहीं मचायी.
सोशल मीडिया प्लेटफार्मों ने हद कर दी है. वहां ‘फेक न्यूज’ की बाकायदा फैक्ट्री चलती हैं. हर एक के हाथ में मोबाइल है और झूठे समाचार त्वरित गति से प्रसारित हो रहे हैं. वहां पत्रकार होने की जरूरत भी नहीं है. राजनीतिक दलों के आईटी सेल सही-गलत समाचार फैलाने में दिन रात लगे हैं. जनता के लिए यह समझना कठिन होता है कि क्या झूठ है और क्या सच. डिजिटल मीडिया पर प्रसारित होनेवाले झूठ की पोल खोलनेवाली कुछ साइटें भी सक्रिय हुई हैं.
उनका मानना है कि जिस गति से मिथ्या समाचार गढ़े और फैलाये जा रहे हैं, उस गति से उनका झूठ पकड़ना और जनता तक पहुंचाना संभव नहीं है. तथ्यों की पड़ताल में समय लगता है. झूठ फैलाने में कोई वक्त नहीं लगता.
What is solution: Is silencing media a solution
समाधान क्या है? स्मृति ईरानी जो करने जा रही थीं, क्या उससे इसे रोका जा सकता है? पूरी आशंका है कि इस बहाने मीडिया पर सरकार अंकुश लगाती, मगर झूठ की फैक्ट्रियां कतई बंद नहीं होतीं. मीडिया संगठनों और विरोधी दलों ने इसीलिए इसका बड़ा विरोध किया.
हाल ही में राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने सरकारी अधिकारियों को बचाने के बहाने मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी. साल 2012 में कांग्रेस सांसद मीनाक्षी नटराजन ने राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में मीडिया को नियंत्रित करने की मंशा से एक निजी विधेयक तैयार किया था. सन 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और 1982 में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने भी प्रेस पर सरकारी नियंत्रण की कोशिश की थी. ये सभी प्रयास देश-व्यापी विरोध के बाद वापस लेने पड़े थे.
Way ahead
‘फेक न्यूज’ से लेकर अपुष्ट एवं एकपक्षीय समाचार पत्रकारिता के लिए तो धब्बा हैं ही, हमारे समाज की बहुलता और लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं. इसकी रक्षा के लिए जिस मीडिया की स्वतंत्रता बहुत जरूरी है, वही अब इसके लिए खतरा भी पैदा करने लगी है. मगर मीडिया पर बाहरी, खासकर सरकारी नियंत्रण के खतरनाक परिणाम होंगे. मीडिया को ही अपनी विश्वसनीयता के लिए आत्मनिरीक्षण और सतर्कता के उपाय करने होंगे.
पत्रकारिता को अपने पुराने मूल्य पुन: स्थापित करने होंगे. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म संचालित करनेवालों को झूठे समाचार फैलाने का उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए, ताकि वे सिर्फ धंधे पर ही ध्यान न दें, बल्कि अपने प्लेटफॉर्म पर आनेवाली सामग्री पर भी नजर रखें और उन्हें रोकने के कुछ मानदंड बनायें.
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