डाटा चोरी और फेक न्यूज का मकड़जाल Social Media and fake news

उपयोग  : PAPER I समाज PAPER PAPER II लोकतंत्र III आतंरिक सुरक्षा  

Is every thing True which is shared on Facebook

Ø आम सोशल मीडिया यूजर भोला-भाला और भरोसा करने वाला शख्स है। उसे पता ही नहीं कि वाट्सएप, फेसबुक, यू-ट्यूब और अन्य वेबसाइटों पर वह जो कुछ देख रहा है उसका एक बड़ा हिस्सा झूठ पर आधारित है। वह जिन सनसनीखेज खबरों को लाइक और शेयर कर रहा है वे पूरी तरह झूठ हो सकती हैं। दूसरी तरफ जो अच्छे-अच्छे संदेश उसे सिलसिलेवार ढंग से मिल रहे हैं वे किसी दल या कंपनी को सेवाएं देने वाली एजेंसी की तरफ से भेजे जा रहे हैं। वह इन संदेशों को सुबूत के तौर पर पेश करता है, बिना यह जाने कि सोशल मीडिया से आए ये तथ्य और सुबूत पूरी तरह जाली हो सकते हैं।

 

Social Media 2.0 (Everything true or fake?

 

Ø आज सोशल मीडिया के इस दौर में तथ्य और गल्प एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इसे सोशल मीडिया का दूसरा अवतार कह सकते हैं जिसे तकनीकी भाषा में सोशल मीडिया 2.0 कहा जा सकता है।

Ø यहां बहुत कुछ बनावटी है। फिर भले ही वह फोटोशॉप के जरिये संपादित किए गए चित्र हों या फिर एकदम असली दिखने वाली शत-प्रतिशत नकली खबरें। यहां नकली मसाले मिनटों में तैयार कर लिए जाते हैं। यह अपरिमित आकार वाला ऐसा उद्योग है जिसके फोकस में केवल आप हैं, मगर आपको ही यह पता नहीं

 

Social Media in Initial Phases

Ø सोशल मीडिया 1.0 यानी उसकी पहली दस्तक जनता की शक्तिके बारे में थी। उसे करीब लाने और एकजुट करने के बारे में।

Ø संबंधों को पुनर्जीवित करने, विश्वास कायम करने और सामुदायिक संस्कृति पैदा करने के बारे में थी।

Ø इसने दुनिया भर में क्रांतियों में सूत्रधार की भूमिका निभाकर नए राजनीतिक ढांचे को जन्म दिया। नए नायक सामने आए।

Ø परंपरा ने नवीनता के लिए जगह बनाई और दूरदराज तक सूचनाओं का विस्तार हुआ। इस बीच कई अप्रिय पहलू भी सामने आए, लेकिन काफी हद तक हमने उनसे निपटना सीख लिया।

 

Recent Avtar of Social Media : Working as Machine Fake News

Ø अब आता है सोशल मीडिया 2.0 जिसमें ऐसा सब कुछ जायज हो गया जो आपके हितों को पूरा करता हो। हाल में हमने इसका एक नमूना देखा जब यह खुलासा हुआ कि कैंब्रिज एनालिटिका नामक ब्रिटिश फर्म ने पांच करोड़ फेसबुक यूजर्स का डाटा अनधिकृत रूप से इस्तेमाल कर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की चुनावी जीत में बड़ी भूमिका निभाई। यूजर्स को पता ही नहीं था कि उनके मित्र किसी ऐसे एप का इस्तेमाल कर रहे हैं जो उनकी अपनी जानकारियां भी इकट्ठा करने और उन्हें किसी तीसरे पक्ष को पहुंचाने में जुटा है।(#GSHINDI, #TheCoreIas)

Ø  कैंब्रिज एनालिटिका कोई पहली ऐसी एजेंसी नहीं है और अमेरिकी चुनाव ऐसी कोई पहली घटना नहीं जहां हमारे-आपके डाटा का दुरुपयोग किया गया हो। ऐसे तमाम वाकये होते रहे हैं। फर्क यह है कि हमारे सामने यह अब आया है। फिर डाटा का विश्लेषण करके लोगों तक कस्टमाइज्ड प्रचार सामग्री भेजना कोई अकेली चीज नहीं है जो मानस को बदलकर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल की जा रही है

 

Is social Media Undermining our Analytical Power?

Ø तकनीकी लेखक और विचारक निकोलस कार ने अपनी किताब द शैलोजमें लिखा था कि इंटरनेट हमारे दिमाग को कुंद करने में लगा है और हम अपने दिमाग का इस्तेमाल बहुत कम करने लगे हैं, क्योंकि हर सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है यानी तार्किक विश्लेषण करने की हमारी क्षमता भी घट रही है और हम चीजों पर आसानी से विश्वास भी करने लगे हैं। जब किसी सुनियोजित अभियान के तहत एक के बाद एक फेक न्यूज हमें भेजी जाती है तो एकाध बार अनदेखा करने के बाद आखिरकार हम उन्हें सच मानने ही लगते हैं और दूसरों को भी फॉरवर्ड कर इस अभियान को सफल बनाते हैं। जो समाचार वेबसाइटें हमें एकदम असली और प्रामाणिक दिखाई देती हैं वे झूठ और दुष्प्रचार के मकसद से डिजाइन की गई हो सकती हैं। वहां दर्जनों की संख्या में रोजाना डाली जाने वाली सनसनीखेज खबरें तैयार करने के लिए फर्जी खबर लेखकों की पूरी फौज तैनात होगी। हाल में खबर थी कि यू-ट्यूब पर कुछ लाख या करोड़ व्यूज पाने वाला आपका मनपसंद वीडियो पूरी तरह से फर्जी हो सकता है। यह बात सभी सोशल माध्यमों के लिए सच है। मुजफ्फरनगर के दंगों के दौरान लोगों को जिंदा जला दिए जाने के जो वीडियो वायरल हुए थे उनकी हकीकत आप जानते ही हैं कि वह बर्मा से आया था(#GSHINDI, #TheCoreIas)

Ø बजफीड की तरफ से फेसबुक के छह बड़े पक्षपातपूर्ण पेजों की एक हजार पोस्ट का सर्वे किया गया तो पता चला कि जिन पेजों पर सच्ची खबरों का अनुपात सबसे कम था उन्हें सबसे ज्यादा लाइक, शेयर और कमेंट प्राप्त हुए थे।

Ø इन पेजों पर 38 फीसदी खबरें या तो सच और झूठ का मिश्रण थीं या फिर पूरी तरह झूठ थीं। भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय दस, पचास या सौ वेबसाइटों पर एक नजर डालिए। पाएंगे कि यहां भी फर्जी-खबरों पर आधारित साइटों ने जगह बना रखी है।(#GSHINDI, #TheCoreIas)

Ø ऐसी वेबसाइटों पर रोक लगाने के लिए कोई कानून नहीं है। हालांकि ऐसा कानून बनेगा, इसकी खबर जरूर गाहे-बगाहे आती रहती है, लेकिन फिर सवाल उठता है कि जब सभी दल बेचारे वोटर को बरगलाने के लिए इन माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो इन पर रोक कोई क्यों और कैसे लगाएगा?

Read more@ GSHINDi सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत

 क्या आप मानेंगे कि जिन तमाम बड़े नेताओं के करोड़ों ट्विटर फॉलोअरों की संख्या आपको हैरानी में डाल देती है उनमें से ज्यादातर के फर्जी फॉलोअर हैं? ऐसी समीक्षाएं जिन्हें लिखने के लिए भुगतान किया जाता है, आम हैं। ऐसी ऊंची रेटिंग जो आपको कोई एप डाउनलोड करने के लिए प्रेरित करती है वह फर्जी हो सकती है। गूगल सर्च में किसी वेबसाइट का सबसे ऊपर आना तकनीकी चातुर्य का खेल हो सकता है। सोशल मीडिया साइटों और ईमेल पर भले ही आप कितने भी मजबूत पासवर्ड लगा दें, आपका अधिकांश डाटा किसी विभाग, कंपनी, दल या एजेंसी की पहुंच में हो सकता है। निजता की हम जितनी भी बात कर लें वह तमाम दिशाओं से संकट में है- चाहे वे अमेरिकी खुफिया एजेंसियां हों, साइबर अपराधी हों, राजनीतिक दल हों, एप बनाने वाले लोग हों या फिर खुद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चलाने वाले संस्थान। बहुत बड़ी चुनौती है सोशल मीडिया पर अपने आपको, अपने विचारों को, अपनी सूचनाओं को और अपनी निजता को सुरक्षित रखना। सोशल मीडिया पर इस या उसके हाथों नाहक प्रभावित या इस्तेमाल हो जाना बहुत आसान है। समङिाए कि अगर कोई सेवा मुफ्त मिल रही है तो आप ही उसका उत्पाद हैं

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