शिक्षा के ONLINE स्वरूप पर देश के जाने-माने वैज्ञानिक और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन इंटरनेट के जरिये दी जा रही शिक्षा के विरोध में सामने आ गए हैं। चूंकि कस्तूरीरंगन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 की मसविदा समिति के अध्यक्ष भी हैं। लिहाजा उनकी बात को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता।
- उनका मानना है कि पढ़ाई के लिए बच्चों का शारीरिक और मानसिक संपर्क बहुत जरूरी है। चंचलता, रचनात्मकता और कई अन्य चीजें कभी भी ऑनलाइन कक्षाओं से बच्चों में नहीं आ सकती है।
- उनका तर्क है कि आठ साल की उम्र तक मस्तिष्क का विकास लगातार होता रहा है और अगर बातचीत के जरिये लगातार बच्चों के मस्तिष्क को उभारने का कार्य नहीं किया तो प्रत्यक्ष रूप से आप अपने नौजवानों की सर्वश्रेष्ठ दिमागी शक्ति और प्रस्तुति से वंचित रहने जा रहे हैं।
- पूरी दुनिया के शिक्षा शास्त्री इसे लेकर एक मत रहे हैं कि बच्चों के विकास में अध्यापकों से सतत संपर्क और कक्षाओं के साथ ही कक्षाओं से बाहर की गतिविधियां ज्यादा सहयोगी रही हैं। बच्चे भविष्य का पहले पाठ यहीं से पढ़ते हैं, जो उनके जिंदगीभर काम आता है। स्कूल में शिक्षक उसे केवल किताबी ज्ञान ही नहीं देते बल्कि उसके मानसिक विकास की राह भी बनाते हैं।
- स्कूल में बच्चों को संस्कार की भी शिक्षा मिलती हैं। भारतीय शिक्षा दर्शन में अध्यापक को गोविंद से भी बड़ा बताने की जो अवधारणा है, उसके पीछे भी अध्यापक से प्रत्यक्ष संपर्क और मूल्य ग्रहण करने का भाव रहा है। शांतिनिकेतन में विश्वभारती की स्थापना के पीछे भी गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की सोच भी यही थी।
- रामानंद चटर्जी ने अपने बच्चे के अनुभव के जरिये टैगोर की इस अवधारणा को माडर्न रिव्यू में प्रस्तुत किया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान के प्रख्यात पत्रकार रामानंद चटर्जी जब विश्वभारती में दाखिल अपने बच्चे की शिक्षा जांचने पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर अचरज से भर गए थे। क्योंकि बच्चे तब पेड़ों पर झूल रहे थे। जब गुरुदेव से चटर्जी ने अनुशासनहीनता के तौर पर इसका जिक्र किया तो गुरुदेव ने अद्भुत जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस है कि मैं पेड़ों पर नहीं चढ़ सकता। ये बच्चे मुझ से बहुत ज्यादा खुशनसीब हैं।
- आज भले ही कोई अभिभावक स्कूल में अपने बच्चों को गुरुदेव की तरह पेड़ों पर चढ़ने-चढ़ाने को स्वीकार न करें, लेकिन उसे यह मानना पड़ेगा कि बच्चे अपने अध्यापक और परिवेश से सीधे संपर्क के जरिये जितना सीखते हैं, वैसा वह एकांतमुखी होकर नहीं सीख सकता। जो शिक्षा और संस्कार वे स्कूल में पाते हैं, वैसे संस्कार वे अकेले में नहीं पा सकते।
- भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक सीएन राव भी ऐसी ही सोच रखते हैं। उन्होंने भी कहा है कि वे ऑनलाइन शिक्षा को लेकर उत्साहित नहीं हैं। उनका कहना है कि हम बच्चों के साथ अच्छे से संपर्क कर सकें, बातचीत कर सकें इसके लिए व्यक्ति से व्यक्ति के संपर्क की जरूरत है। इसके बिना उन्हें विकसित नहीं किया जा सकता। सीधे संपर्क से ही बाल मन को प्रेरित किया जा सकता है।
हालांकि चाहे कस्तूरीरंगन हों या सीएन राव, दोनों ही उच्च शिक्षा में ऑनलाइन पढ़ाई को जरूरी मानते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि नौजवान दिमागों की ग्रहण शक्ति अलग होती है। लिहाजा उन्हें इस तरह शिक्षा दी जा सकती है। ऐसे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने चुनौती है कि वह कोरोना संकट के दौर में बिना वजह की ऑनलाइन स्कूली शिक्षा को नियंत्रित करे या फिर उसे संतुलित करने के लिए न सिर्फ मानक दिशा-निर्देश बनाए, बल्कि उसे कड़ाई से लागू करने के लिए तैयारी भी करे। वैसे भी ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों और बच्चों की दूसरी चुनौती है। वहां न तो शहरों जैसा इंटरनेट है और न ही एंड्रायड फोन सबके पास है। इसलिए वहां तो शहरों जैसे ऑनलाइन शिक्षा की बात सोचना भी बेमानी है। अंग्रेजी शिक्षा के प्रति बढ़ते मोह और सरकारी शिक्षा की बदहाली के चलते दड़बों में जो कथित अंग्रेजी माध्यम स्कूल चल रहे हैं, वहां बच्चों को कोरोना काल में भेजना भी नई चुनौतियों को न्योता देना है, उनकी जिंदगी को खतरे में डालने जैसा है। वैसे सुदूरवर्ती क्षेत्रों के भी अभिभावक शायद ही शिक्षा सत्र को शून्य बनाने की बात स्वीकार करें। ऐसे मंर मानव संसाधन मंत्रालय को बीच की राह निकालनी ही होगी।
Reference:https://www.haribhoomi.com/o