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भारत को हथियारों की आपूर्ति के मामले में अमेरिका ने रूस को पछाड़ दिया है। रक्षा पर संसद की स्थायी समिति की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन वर्षों के दौरान अमेरिका की कंपनियों ने भारत में 28,800 करोड़ रुपये के 13 रक्षा ठेके हासिल किए। इस दौरान रूस को कुल 8,300 करोड़ रुपये के 12 ठेके मिले। इस तरह रूस को मिले ठेकों की राशि अमेरिका के मुकाबले एक तिहाई भी नहीं है। भारत के रक्षा सौदों में रूस की हिस्सेदारी और भी कम हो सकती है क्योंकि अमेरिका ने रूस से हथियार खरीदने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है।
ये प्रतिबंध काउंटरिंग अमेरिकाज एडवरसरीज थ्रू सेक्शंस ऐक्ट (सीएएटीएसए) का हिस्सा है जिसे अमेरिकी संसद ने पिछले साल पारित किया था। यह कानून रूस, ईरान और उत्तर कोरिया को ध्यान में रखकर बनाया गया है लेकिन भारत की सबसे बड़ी चिंता रूस को लेकर है। इसमें उन देशों पर प्रतिबंध लगाने की बात की गई है जो रूस के रक्षा और खुफिया संस्थानों के साथ लेनदेन में शामिल हैं। इसमें भारत को सबसे ज्यादा खतरा है क्योंकि
- उसकी सेनाएं अपने साजोसामान के कलपुर्जों, रखरखाव और मरम्मत के लिए पूरी तरह रूसी खरीद पर निर्भर है।
- यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रूस से खरीद बंद होने पर भारतीय सेना थम जाएगी। भारत रूस से नए रक्षा सौदों की संभावनाएं भी तलाश रहा है।
- इनमें परमाणु पनडुब्बी को पट्टïे पर लेना, 200 कामोव-226 हेलीकॉप्टर तथा एस-400 ट्रायंफ आधुनिक वायु रक्षा प्रणाली खरीदना शामिल है।
यह दिलचस्प है कि हाल के दिनों में सामरिक हलकों में फिर से यह सुगबुगाहट पैदा हुई है कि उक्त कानून के तहत भारत पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। ऐसी अटकलें हैं कि एस-400 ट्रायंफ खरीदने का प्रस्ताव अमेरिका को नागवार गुजरा है। इस कानून की तरह एस-400 खरीदने का प्रस्ताव भी नया नहीं है। रक्षा मंत्रालय ने दिसंबर 2015 में इस प्रस्ताव को सैद्घांतिक मंजूरी दी थी और तबसे इस पर बातचीत चल रही है। लेकिन हाल में रक्षा मंत्री की रूस यात्रा से इसमें तेजी आई है। एस-400 ट्रायंफ एस-300 का उन्नत संस्करण है जिसका इस्तेमाल चीन की सेना कर रही है। अमेरिकी वायुसेना इसकी काट ढूंढने के लिए काफी माथापच्ची कर रही है। जानकारों का कहना है कि इस सौदे की अनुमानित लागत 450 करोड़ डॉलर है जिसे अमेरिका नजरअंदाज नहीं कर सकता।
विडंबना है कि भारत के प्रति झुकाव रखने वाली अमेरिकी कांग्रेस ने यह कानून बनाया है। वास्तव में तो भारत को जाने अनजाने ही इसका नुकसान उठाना पड़ रहा है, असल में तो इसके निशाने पर राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप हैं। अमेरिकी कांग्रेस का हर डेमोक्रेटिक सदस्य और कुछ रिपब्लिकन सदस्य रूस के प्रति ट्रंप के नरम रवैये से नाखुश हैं। ट्रंप को रूस के खिलाफ कार्रवाई के लिए मजबूर करने के वास्ते अमेरिकी संसद ने यह कानून पारित किया। लेकिन इसमें सहयोगी देशों को होने वाले नुकसान को ध्यान में नहीं रखा गया। ट्रंप इस कानून को वापस संसद के पास भेज सकते थे लेकिन पुतिन के साथ करीबी को देखते हुए उन्हें लगा कि अगर उन्होंने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए तो इससे चीजें और बदतर हो जाएंगी। इसके अलावा इस कानून को संसद में दो-तिहाई समर्थन से पारित किया गया था और अगर ट्रंप इसे वापस भेजते तो फिर यह दोबारा उनके पास आ जाता। इसलिए ट्रंप ने कानून पर 2 अगस्त, 2017 को हस्ताक्षर करते हुए वही किया जो अमेरिका के राष्ट्रपति उन कानूनों के बारे में करते आए हैं जिन्हें लेकर उन्हें आपत्ति थी। उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि इस विधेयक में कई गंभीर खामियां थीं।
अमेरिकी अधिकरियों को यह अहसास है कि यह कानून भारत जैसे अहम साझेदारों के साथ संबंधों के लिए नुकसानदेह हो सकता है। रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस अहम साझेदारों को छूट देने के लिए अभियान चला रहे हैं। लेकिन डेमोक्रेटिक सदस्य ऐसी किसी भी छूट के खिलाफ हैं जो ट्रंप प्रशासन को इस कानून से बचने का मौका देती है। रिपब्लिकन सांसद कुछ देशों के लिए छूट के पक्ष में हो सकते हैं लेकिन वे ट्रंप को रूस के मामले में मनमानी का मौका नहीं देना चाहते। इस मामले में खुद टंप प्रशासन में भी एक राय नहीं है। कई अधिकारी अब भी भारत के प्रति द्वेष रखते हैं। उनका मानना है कि अमेरिका-भारत परमाणु सौदे में अमेरिका ने भारत को कुछ ज्यादा ही रियायत दे दी थी। मैटिस स्पष्टï तौर पर भारत के पक्ष में हैं लेकिन इस मामले में वह अकेले हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन और विदेश मंत्री माइक पोम्पियो को भी मनाया जा सकता है लेकिन अब उनका कार्यकाल कुछ ही दिन का रह गया है।
उन्होंने इस मामले में अपना रुख जाहिर नहीं किया है लेकिन दोनों में से कोई भी भारत का दोस्त नहीं माना जाता है। वॉशिंगटन में अमेरिकी दूतावास ने उक्त कानून में छूट के लिए समर्थन जुटाने के वास्ते छिटपुट प्रयास किए हैं। अलबत्ता भारतीय राजनयिक की अमेरिकी सांसदों के बीच ज्यादा पैठ नहीं है। अपने हितों को साधने के लिए वे मैटिस जैसे शक्तिशाली मित्रों पर निर्भर हैं। उन्हें उम्मीद है कि वे भारत के लिए लड़ाई लड़ेंगे। संभवत: प्रतिबंधों की संभावना को कम करने के लिए भारत ने रूस के साथ रक्षा संबंधों को हल्का करना ही सबसे बेहतर समझा है।
फरवरी में भारत ने पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान के विकास के प्रस्ताव में अपनी भागीदारी खत्म कर दी। पिछले महीने आयोजित रक्षा प्रदर्शनी में सीतारमण ने रूसी प्रतिनिधिमंडल को ज्यादा भाव नहीं दिया। भारत रूसी हथियारों पर निर्भरता किस हद तक और कितनी जल्दी कम कर सकता है, इसकी अपनी सीमाएं हैं। मगर यह बात वॉशिंगटन में अमेरिकी अधिकारियों को समझ में नहीं आती है। अभी तो ऐसा लगता है कि अमेरिकी अधिकारियों के लिए यह सांत्वना की बात होगी कि रूस से भारत की खरीद घट रही है। वे इसका हवाला देकर भारत को प्रतिबंधों में छूट देने को सही ठहरा सकते हैं।