सरकार का इच्छा मृत्यु की वसीयत पर अड़ना क्यों जायज नहीं

What is living will: An advance healthcare directive (living will) personal directive, advance directive, medical directive or advance decision, is a legal document in which a person specifies what actions should be taken for their health if they are no longer able to make decisions for themselves because of illness
#Satyagriha
Government view on Living will
    इच्छा मृत्यु के अधिकार पर इस समय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. इस मुद्दे पर सरकार की राय है कि वह लोगों के इच्छा मृत्यु वसीयत या LIVING WILL लिखने के अधिकार का समर्थन नहीं करती. 
    सरकार ने इच्छा मृत्यु विधेयक (यूथेनेशिया बिल) में भी इसे शामिल नहीं किया है. 
सरकार का यह फैसला अपेक्षानुरूप नहीं कहा जा सकता. इच्छा मृत्यु वसीयत लोगों को यह अधिकार देती है कि वे होशो-हवास में फैसला कर सकें कि अगर कभी उनका शरीर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाए या फिर वे अनिश्चितकालीन कोमा में चले जाएं तो उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली पर न रखा जाए.
    सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि लिविंग विल बुजुर्गों के लिए खतरा बन सकती है. उसके मुताबिक नजदीकी रिश्तेदार धन-संपत्ति के लालच में इसका दुरुपयोग कर सकते हैं. यह एक और उदाहरण है जो बताता है कि कैसे सरकार आम लोगों की राय खारिज करते हुए अभिभावकों की भूमिका में आना चाहती है.
Passive euthanasia in India allowed
सुप्रीम कोर्ट के 2011 में आए एक फैसले के बाद सरकार ने पैसिव यूथेनेशिया (कोमा में पड़े मरीज की जीवन रक्षक प्रणाली को हटाना) को बतौर कानून मान्यता दे दी है. पैसिव यूथेनेशिया के तहत मरीज के नजदीकी रिश्तेदारों की प्रार्थना पर हाई कोर्ट एक मेडिकल बोर्ड का गठन करता है. फिर इसकी अनुमति से मरीज की जीवन रक्षक प्रणाली हटाई जाती है. यह प्रक्रिया गरिमा के साथ जीने और मृत्यु के अधिकार का समर्थन करती है. यही अधिकार लिविंग विल के अधिकार के पक्ष को ज्यादा मजबूत करता है. यह पैसिव यूथेनेशिया का ही विस्तार है और ज्यादा नैतिक है क्योंकि यह एक इंसान को उसके होशो-हवास के दौरान अपने शरीर के बारे में फैसला करने का हक देता है.
पैसिव यूथेनेशिया की अनुमति देते हुए लिविंग विल को खारिज करके सरकार एक विरोधाभासी रुख अपनाए हुए है. वर्तमान केंद्र सरकार ने भारत की औपनिवेशिक कानूनी विरासत को कई बार निशाने पर लिया है, जो सही भी है. लेकिन यही विरासत सरकारों को निजी स्वतंत्रता सीमित करने की दिशा में प्रोत्साहित करती है. इस मामले में भी यही हो रहा है. यहां तो केंद्र सरकार संथारा, समाधि या इच्छा मृत्यु की दूसरी परंपराएं जो भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही हैं, को भी खारिज करती दिख रही है. ये परंपराएं व्यक्ति को मोक्ष पाने के लिए उसकी सुविधानुसार मृत्यु का वरण करने का अधिकार देती हैं.
वहीं दूसरी तरफ चिकित्सकीय मूल्य और मानवाधिकार भी डॉक्टरों और रिश्तेदारों पर यह नैतिक जिम्मेदारी डालते हैं कि वे मरीज की इच्छा का सम्मान करें. अमेरिका, आयरलैंड और जर्मनी जैसे कुछ देश तो ऐसे कानून भी पास कर चुके हैं जिनके तहत व्यक्ति पहले ही अपने इलाज के लिए इच्छानुसार दिशा-निर्देश तय कर सकता है.
Concluding mark
इच्छा मृत्यु वसीयत यानी लिविंग विल मृत्यु या किसी अपराध को आमंत्रण नहीं है. यह बस एक स्वीकारोक्ति है ताकि मृत्यु को टालने की जबर्दस्ती कोशिश न की जाए. यही वजह है कि अब हमारे समाज के साथ-साथ चिकित्सा और कानूनी संस्थानों में यह चर्चा शुरू होनी चाहिए कि एक ‘अच्छी मृत्यु’ किसे कहा जाए. इस चर्चा को सिर्फ सरकार या चिकित्सक समुदाय की इस दलील पर नहीं रोका जा सकता कि यह एक तिल-तिलकर मरते हुए व्यक्ति के हित में है. इस दलील का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि यहां जिस हित की बात की जा रही है, मरीज की उस पर भी सहमति नहीं ली जाती!

QUESTION: 

GS PAPER IV

नीतिशास्त्रा तथा मानवीय सहसम्बन्ध

मनुष्य को अपना निर्णय लेने का अधिकार है और राज्य को उसकी राय का सम्मान करना चाहिए जब वह सवस्थ दिमाग है  और राज्य को उसे अपनी  शर्तों पर  निर्देशित नहीं करना चाहिए इस संदर्भ में इच्छा मृत्यु विरासत  की बहस में शामिल नैतिक समस्याओ  का विश्लेषण करें

Man have right to take his own decision and state must respect his opinion when he is of sound mind and should not dictate his terms. In this context analyze Ethical issue involved in the debate of living will.

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