#Nai_Duniya
इस बार के बजट में धूमधाम से ‘आयुष्मान भारत कार्यक्रम के शीर्षक से एक नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना की घोषणा की गई, जिसे दुनिया में सबसे बड़ी परिवार स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया। यह आशा भी जाहिर की गई कि अब निजी चिकित्सा क्षेत्र भी इस कल्याणकारी मुहिम से जुड़ेगा। जैसी अपेक्षा थी, सार्वजनिक क्षेत्र में पैर पसारने को आतुर बीमा कंपनियों और निजी क्षेत्र के अस्पताल मालिकों ने यह कहकर इस बीमा योजना का स्वागत किया, कि इससे उनके लिए नए वैलनेसक्लिनिक व अस्पताल बनाना और उनके मार्फत शहरी व गांवों के गरीबों तक बेहतर उपचार सुविधाएं पहुंचाना आसान हो जाएगा।
Analysis of Ayushman
अचरज यह कि विपक्ष ही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र के रोग निरोधी दस्तों, चिकित्सकों, जनस्वास्थ्य पर शोध करते रहे संस्थानों और राज्य सरकारों का रवैया आयुष योजना को लेकर ठंडा बना हुआ है। इसकी वजहें हैं। एक तो तमाम प्रचार के बावजूद जनस्वास्थ्य बीमा योजना 2018 कोई नई योजना नहीं ठहरती। यह कुल मिलाकर पुरानी सरकार की 2012 में तथा पिछले साल नई सरकार के द्वारा लाई गई स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का ही नया संस्करण है।
यह दुनिया की सबसे बड़ी बीमा योजना भी नहीं है। अनुमानित कुल लाभार्थियों की दृष्टि से देश के शत प्रतिशत परिवारों को नियमित तौर से सफलतापूर्वक लाभान्वित करने वाली चीन की सरकारी स्वास्थ्य बीमा योजना इससे बीस ठहरती है। साथ ही जानकारों को यह भी शंका है कि कहीं सरकार धीमे-धीमे खुद जनकल्याणी स्वास्थ्य सेवा से हाथ खींचकर इसे उस निजी चिकित्सा क्षेत्र के हवाले तो नहीं करने जा रही, जो आम जनता की नजरों में कम से कम निवेश द्वारा अधिकाधिक मुनाफा पाने का लक्ष्य ही रखता रहा है?
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के स्वास्थ्य विशेषज्ञों की पड़ताल बता रही है कि पिछली योजना के तहत सरकार की तरफ से जिन बीमा कंपनियों को भारी राशि उपलब्ध कराई भी गई थी, उन्होंने अब तक अपने धारकों में से 50% से भी कम को भुगतान किया है। गए बरस से हर धारक के लिए राशि क्लेम करने के लिए आधार कार्ड दिखाना अनिवार्य बन गया है, जिससे कई गरीब लाभार्थी (जैसे गरीब अनपढ़ प्रवासी मजदूर या एचआईवी पॉजिटिव लोग) जरूरत होते हुए भी उपचार के लिए इस स्वास्थ्य कल्याण बीमे का फायदा नहीं उठा पाए और यूआईडीएआई को घोषणा करनी पड़ी है कि आधार कार्ड न होने पर किसी को भी राशन या स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। इसमें कोई शक नहीं कि जनकल्याण के लिहाज से किसी भी लोकतंत्र में सरकार द्वारा सभी नागरिकों को जरूरी स्वास्थ्य कल्याण और शिक्षा उपलब्ध करवाने की क्षमता सुशासन का सबसे बड़ा व टिकाऊ पैमाना होता है। लिहाजा उपरोक्त शंका का निराकरण जरूरी है।
जनकल्याण के नाम पर केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य बजट में 2.8% की बढ़ोतरी जरूर की है, पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एड्स नियंत्रण कार्यक्रमों और नए चिकित्सकीय कॉलेजों की स्थापना का बजट 2.8 से 12.5 प्रतिशत तक काटा गया है। नई योजना पर होने जा रहे कुल खर्च का 40% मुहैया कराने की जिम्मेदारी भी यह कहते हुए राज्य सरकारों पर डाल दी गई है कि स्वास्थ्य राज्यों का विषय है। यानी योजना को लागू करने में जो प्रति परिवार कुल सालाना खर्च (1,082 रुपए) बनेगा, उसमें से राज्य सरकारों को अपनी तरफ से 433 रुपए प्रति परिवार देय होगा। राज्य, खासकर दक्षिण भ्ाारत के राज्य इससे कहीं बेहतर बीमा सुरक्षा कवच अपने यहां के धारकों को मुहैया करा रहे हैं और इस योजना के अतिरिक्त व्यय को सिर पर ढोने में कोई रुचि नहीं रखेंगे। उधर बीमा कंपनियों तथा निजी चिकित्सा देने वाले अस्पतालों की खुशी की वजह यह है कि उनको अब केंद्र सरकार की तरफ से वृहत्तर राशि मिल सकेगी और जो निजी अस्पताल सरकारी पैनल के तहत क्लियरेंस पा जाएंगे, उनको अधिकाधिक मरीज मिलेंगे।
अब सवाल गुणवत्ता का। चूंकि हमारे यहां राज्यस्तर पर निजी चिकित्सा क्षेत्र के लिए जरूरी तादाद में नियामक संस्थाए या तो हैं ही नहीं या निष्क्रिय हैं, लिहाजा यह असंभव नहीं कि गरीबों को कम दाम पर बेहतरीन उपचार देने के बजाय सरकार से मिली बीमा भुगतान की ऊंची सीलिंग मिली देख निजी चिकित्सालय बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के बजाय लंबे अस्पताली प्रवास, अवांछित सर्जरी या तमाम फालतू किस्म की जांचों से मोटी रकम वसूली की प्रवृत्ति पर ही टिके रहें।
फिर योजना लागू होने की समयसीमा का सवाल भी है। केंद्रीय वित्त सचिव के अनुसार अभी मशवरे का दौर और आखिरी प्रारूप बनना बाकी है। उसके बाद चयनित बीमा कंपनियों को सरकारी नियमों के तहत ठेके देने की प्रक्रिया भी काफी समय लेगी। यानी कुल मिलाकर नई स्वास्थ्य बीमा योजना का जमीनी अवतार बनने में करीब साल भर लगेगा। इस बीच आर्थिक कटौती लागू होने से बुनियादी क्षेत्र की जरूरी स्वास्थ्य संरक्षण और रोगनिरोधी सेवाएं उपेक्षित, कमजोर होती चली जाएंगी, जबकि सारे विशेषज्ञ कह रहे हैं कि विकासशील देशों में उपचार के बजाय रोग निरोध और बुनियादी स्वास्थ्य संरक्षण के क्षेत्रों को बल दिया जाना अधिक फलदायी साबित होता है। जब कुपोषित महिलाएं, बच्चे बड़ी तादाद में अकाल मर रहे हों, मलेरिया, तपेदिक व संक्रामक रोग प्रदूषित गांवों, शहरों में तेजी से पनप रहे हों, उस समय आकर्षक नाम से, पर बिना समुचित धन जुटाए नई योजना ताबड़तोड़ ले आना समझदार कदम नहीं लगता। बेहतर हो कि जरूरी महिला-बाल स्वास्थ्य कल्याण, परिवार नियोजन, एड्स निरोध तथा रोग निरोध के बुनियादी काम कर रहे सरकारी अस्पतालों, प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों को बेहतर बनाने और अधिक मेडिकल कॉलेज खोलने को तवज्जो देना तय किया जाए। इससे एक तरफ मलेरिया, तपेदिक या एड्स सरीखे रोगों की सही समय पर रोकथाम होगी, दूसरी तरफ गरीबों की बढ़ती भीड़ से परेशान सरकारी अस्पतालों को भी बेहतर उपकरण और सुविधाएं मिलेंगी। याद रखें, बाल पोषाहार व सुरक्षित जननी कार्यक्रमों का (वैसे भी नाकाफी) बजट काटने से तो हम आने वाली पीढी को कमजोर बना देंगे, जिसकी भरपाई बाद में नहीं की जा सकेगी।
स्वास्थ्य क्षेत्र की इस भारीभरकम जन बीमा योजना के लिए अतिरिक्त खर्च कहां से आएगा? क्या इस महत्वाकांक्षी योजना को आवंटित राशि (48,309 करोड़ रुपए) की बाहर से अतिरिक्त उधारी से साकार किया जाएगा? यदि हां, तो यह खर्चा किस खाते में दर्ज किया जाएगा? इस राशि का बड़ा भाग किसी सार्वजनिक उपक्रम से किसी अन्य नाम तले उधार लेकर सरकार बस अपनी एक जेब का धन दूसरी में डालने तो नहीं जा रही? इन सवालों का माकूल तर्कसंगत जवाब मिलना जरूरी है। लोकतंत्र में कुछ सहज जन-जवाबदेहियां भी बनती हैं।
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