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सर्वोच्च न्यायालय ने नैशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल NCLT) के इलाहाबाद पीठ के उस निर्णय पर स्थगन आदेश दे दिया जिसके तहत जेपी इन्फ्राटेक के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया की शुरुआत की गई थी। देश की सबसे बड़ी अदालत के इस निर्णय की आलोचना हो रही है। यहां तक कि सत्ता के गलियारे के बड़े अधिकारी भी कह रहे हैं कि इस निर्णय से दिवालिया प्रक्रिया बेपटरी होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि कारोबारी जगत के चंद लोग ऊपरी अदालत के इस निर्णय का लाभ लेंगे और अपने आप को अपनी ही कंपनियों से बेदखल होने से बचाए रखने में इसका इस्तेमाल करेंगे।
However such criticism against this judgement is invalid
ऐसी आलोचना गैरजरूरी है। मसलन इस फैसले का असर अन्य दिवालिया मामलों पर नहीं पड़ेगा क्योंकि जेपी इन्फ्राटेक का मामला अपने आप में विशिष्टï है। सर्वोच्च न्यायालय उस मामले की सुनवाई कर रहा था जो मकान खरीदने वालों से संंबंधित था। तथ्य यही है कि इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी कोड ऑफ इंडिया (आईबीसी), 2016 के अधीन भवन निर्माताओं को ऋण देने वालों को असुरक्षित कर्ज वाले लोगों मसलन मकान खरीदने वालों से ऊपर रखा गया था। चाहे जो भी हो, आईबीसी उपभोक्ताओं के संरक्षण वाला कानून नहीं है। यह किसी कंपनी के निस्तारण की प्रक्रिया में हर तरह के ऋणदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन यह मकान खरीदने वालों को कर्जदार के रूप में मान्यता नहीं देता।
आईबीसी को तैयार करते वक्त उसके लेखकों ने शायद कभी यह नहीं सोचा होगा कि मकान खरीदने वाले हजारों लोगों का मामला कभी एनसीएलटी के सामने आएगा। यह एक बड़ी चूक है और सरकार को यही सलाह है कि वह आईबीसी में तत्काल संशोधन करे ताकि भवन निर्माता के देनदारी चूकने पर उसकी परिसंपत्ति की होने वाली बिक्री में मकान खरीदने वालों को बैंकों और वित्तीय संस्थानों के हाथ नुकसान न उठाना पड़े।
मकान खरीदने के मामलों में भी बुरी बात यह है कि दिवालिया निस्तारण प्रक्रिया (आईआरपी) में नए वाद, वसूली आदि पर निषेध लगाती है। ऐसे में अगर कोई अचल संपत्ति की फर्म दिवालिया होने का आवेदन देती है तो मकान खरीदने वालों के पास कोई उपाय ही नहीं बचता। संशोधन का काम आसान नहीं होगा क्योंकि इसमें मकान खरीदने वाले और वित्तीय ऋणदाताओं, दोनों पक्षों के हितों का ध्यान रखना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि बैंकों के वसूली के अधिकार पर फर्क पड़ा तो अचल संपत्ति क्षेत्र को ऋण मिलना बंद हो जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय यह भूल गया कि बैंक ऋण देने के कारोबार में हैं।
हमें यह भी मानना होगा कि अदालत की यह सोच सही है कि मकान खरीदने वालों को यूं अधर में नहीं छोड़ा जा सकता है। खासतौर पर तब जबकि उनमें से कई बहुत पहले 95 फीसदी तक कीमत चुका चुके हैं। आखिर जनहित की अनदेखी किसी के हित में नहीं है। सभी जानते हैं कि परिसंपत्तियों की बिक्री के वक्त फ्लैट मालिकों को कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि सबसे पहले दिवालिया प्रक्रिया सुरक्षित ऋणदाताओं का ध्यान रखेगी।
ऐसे सुझाव भी सामने आए हैं कि अगर संहिता की धारा 9 में बदलाव में वक्त लगता है तो सरकार के सामने एक विकल्प यह भी है कि वह मकान खरीदने वालों को न्यासियों की एक नई श्रेणी में डाल दे ताकि उनके हितों का संरक्षण किया जा सके। बहरहाल, यह स्पष्टï नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जयप्रकाश एसोसिएट्स को 27 अक्टूबर तक 2,000 करोड़ रुपये जमा करने को क्यों कहा है। उस परियोजना में मकान खरीदने वालों के करीब 25,000 करोड़ रुपये दांव पर लगे हुए हैं। अगर वे पैसे चुकाने में नाकाम रहते हैं तो क्या अदालत प्रवर्तकों की गिरफ्तारी का आदेश देगी, जैसे उसने सहारा के सुब्रत रॉय के मामले में दिया था? बहरहाल वह एक अलग किस्सा है।
इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंगक्रप्टसी (insolvency and bankruptcy code) बोर्ड ऑफ इंडिया में बदलाव की गुंजाइश है और यह एक अच्छा संकेत है। इसमें दोराय नहीं कि आईबीसी एक महत्त्वपूर्ण पहल है। इससे पिछली सरकार के कार्यकाल में तमाम नियमन थे जिनके तहत, कर्ज देने वाले, कंपनियों के प्रवर्तक और अन्य ऋणदाता अलग-अलग मंचों पर परस्पर प्रतिस्पर्धी प्रक्रियाओं की शुरुआत कर सकते थे।
Need to reform insolvency and bankruptcy code taking into account wider perspective
परंतु जेपी इन्फ्राटेक के मामले से इतर कई क्षेत्र हैं जहां आईबीसी में सुधार की जरूरत है। उदाहरण के लिए संहिता में विशेष तौर पर यह प्रावधान होना चाहिए कि दिवालिया प्रक्रिया में शामिल कंपनियों के प्रवर्तकों को बोली की इजाजत न हो। अगर कर्जदार उनको कर्ज चुकाने के लिए मना नहीं पाए तो उनको दोबारा कंपनी पर नियंत्रण करने का अवसर देना गलत होगा। सारा नुकसान ऋण देने वालों का ही क्यों हो?
रुइया घराने का उदाहरण हमारे सामने है। जो अपने स्टील कारोबार पर से नियंत्रण छोडऩा नहीं चाहते और एस्सार स्टील की बोली में हिस्सा लेने के इच्छुक हैं। यह कंपनी भी दिवालिया प्रक्रिया में शामिल है। इसके अलावा संहिता में ऋणदाताओं को यह अवसर मिलना चाहिए कि उनकी निष्पक्ष सुनवाई हो सके। इसके बाद ही कोई निर्णय लिया जाए। एक अन्य मामला जिस पर नजर डालने की आवश्यकता है वह है हाल में घटित सिनर्जीज डोरे ऑटोमोटिव का। इसे पहले दिवालिया संहिता के अधीन पहला सफल मामला माना जा रहा था लेकिन अब यह एक बड़े विवाद में उलझ चुका है। आरोप है कि एक जटिल प्रक्रिया के अधीन इस मामले में संबंधित पक्ष खुद का नियंत्रण बनाए रखना चाहता था। अब यह मामला पंचाट के समक्ष है। अभी दिवालिया कानून के शुरुआती दिन हैं और कुछ संशोधन आवश्यक हैं। कुछ प्रयोगों के बाद ही इसकी सफलता निर्धारित की जा सकेगी और समूची प्रक्रिया की विश्वसनीयता भी तभी कायम होगी