संविधान की फिक्र करें: Governor Issue

 

ऐतिहासिक रूप से भारत में गवर्नर का पद आदिकाल से रहा है। वैसे तो चहेतों को गवर्नर बनाया जाता था, बावजूद इसके प्राचीन और मध्यकाल में अधिकांश गवर्नरों ने केंद्र की मुखालफत की और खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। ब्रिटिश गवर्नर इम्पीरियल सरकार के काफी वफादार थे और आजाद भारत के राज्यपालों (गवर्नर) ने अपने पूर्ववर्ती के पद चिह्नों पर चलना बेहतर समझा।ब्रिटिश शासन के दौरान गवर्नर के पद का विरोध करने के बावजूद विभाजन के बाद संविधान निर्माताओं ने इस पद को बनाए रखा ताकि देश की एकता, स्थायित्व और सुरक्षा को बचाया जा सके।

Governor & View of Nehru

नेहरू राजनीति की दुनिया के बाहर के नामचीन अकादमिक एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों के विशिष्ट एवं निष्पक्ष लोगों को राज्यपाल के पद पर नियुक्ति के पक्षधर थे। शुरू में संवैधानिक सलाहकार बीएन राऊ ने प्रस्ताव दिया कि गवर्नर का चुनाव विधानसभा करे।

View of Patel on Governor

 पटेल प्रांतीय संविधान समिति के प्रमुख थे और उनका सुझाव था कि राज्यपालों को राज्य की जनता चार साल के लिए चुने और जिसे उसके ‘‘र्दुव्‍यवहार’ के लिए महाभियोग द्वारा हटाया जा सके। जयप्रकाश नारायण on Governor

जयप्रकाश नारायण का मत था कि राज्यपाल को राष्ट्रपति चार लोगों के एक पैनल से नियुक्त करे, जिसका चुनाव उस राज्य की विधानसभा और संसद सदस्य करें। इसके बाद यह निर्णय लिया गया कि राज्यपाल को नामित किया जाए और इसके कई कारण गिनाए गए : अगर राज्यपाल का निर्वाचन हुआ तो मुख्यमंत्री के साथ उसका टकराव होगा; लोकप्रिय समर्थन के कारण राज्यपाल पृथकतावादी धारणाओं को हवा दे सकता है; और मुख्यमंत्री के साथ मिलकर केंद्र को चुनौती दे सकता है।

Final Resolution: Ambedkar

अंतत:, आंबेडकर ने इस मामले को यह कहकर सुलझाया कि चूंकि राज्यपाल एक सांकेतिक प्रधान है, हमें उसके निर्वाचन पर समय और धन जाया नहीं करना चाहिए। हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि राज्यपाल केंद्र में सत्तासीन पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं बल्कि राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करेगा। लेकिन केंद्र सरकार राज्यपालों की नियुक्ति पर हमेशा ही मुख्यमंत्रियों से परामर्श करेगा।

  • टीटी कृष्णमाचारी ने तो यहां तक सुझाया कि इस संदर्भ में मुख्यमंत्री के पास वीटो होना चाहिए।
  • सरकारिया आयोग (1987) ने यही सुझाव दिया और कहा कि उपराष्ट्रपति और लोक सभा अध्यक्ष से भी इस बारे में परामर्श लेना चाहिए।

Controversy in Appointing Chief Minister

संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अनुसार मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। संविधान यह स्पष्टत: नहीं कहता कि सबसे बड़े दल के नेता या सबसे बड़ी पार्टी के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाएगा। लेकिन स्थापित परम्परा यह रही है कि इस मामले में सब कुछ राज्यपाल के विवेक पर निर्भर नहीं है। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं होने या दल-बदल के कारण बहुमत में कमी होने की स्थिति में उसको अपनी मनमानी का मौका मिलता है। मगर उसके विवेक का मतलब यह नहीं कि उसके पास असीमित या मनमाना अधिकार है। उसको सबसे बड़ी पार्टी के नेता या मतदान बाद हुए गठबंधन के उस नेता को बुलाना पड़ेगा, जिसके पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या है। इस तरह की संवैधानिक परम्परा उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं जितना कि संविधान के लिखित शब्द। संसदीय लोकतंत्र अंतत: संविधान की मौलिक संरचना जो है।

हर राज्यपाल अनुच्छेद 159 के तहत ‘‘संविधान की संरक्षा, सुरक्षा और बचाव और खुद को राज्य के लोगों की भलाई के लिए समर्पित करने की शपथ लेता है’। विवेक का अर्थ होता है विभिन्न उपलब्ध विकल्पों में से तर्क और न्याय के संदर्भ चुनाव करना न कि निजी पसंद से निर्देशित होना। एडर्वड कुक के अनुसार, विवेक झूठ और सत्य, सही और गलत में अंतर को समझने की क्षमता है और अपनी इच्छा या निजी पसंद को तरजीह नहीं देना है। निरापद विवेक एक निर्दयी स्वामी है। यह संवैधानिक ईश-निंदा की तरह है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए उसके किसी भी आविष्कार से ज्यादा विनाशकारी है (यूनाइटेड स्टेट्स बनाम वेंडरलिच के मामले, 1951 में न्यायमूर्ति डगलस)। यह अजीब बात है कि तीन जजों की पीठ ने बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री नियुक्त करने के राज्यपाल के विवेक को स्वीकार कर लिया। पहला-तो यह कि विवेक का इस्तेमाल सावधानी से और तर्कपूर्ण तरीके से होना चाहिए। बहुमत के दावे को ठुकराना तर्कहीन और असंगत है। दूसरा-विवेक का इस्तेमाल आज्ञापालन के तहत नहीं हो सकता। तीसरा- विवेक का प्रयोग तयों और सामने आए मामले की परिस्थितियों पर मनोयोग से विचार के बाद ही होना चाहिए क्योंकि राज्यपाल को यह पता था कि भाजपा के पास संख्या नहीं है और दो सप्ताह का लंबा समय देकर वह विधायकों के खरीद-फरोख्त का रास्ता साफ कर रहे हैं। चौथा-विवेक का प्रयोग किसी अनुचित उद्देश्य के लिए या खराब मंशा या फिर असंगत बातों को ध्यान में रखकर नहीं होना चाहिए। पांचवां-विवेक का प्रयोग मनमाने या सनक के आधार पर नहीं होना चाहिए। सीधे शब्दों में कहें तो राज्यपाल की यह ‘‘व्यक्तिपरक संतुष्टि’ कि किसके पास बहुमत है, यह ‘‘उद्देश्यपरक तयों’ पर निर्भर होना चाहिए। यहां राज्यपाल की निजी संतुष्टि का सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह होता कि कोर्ट राजनीतिक प्रश्नों को राज्यपाल पर छोड़ देता पर कर्नाटक जैसे मामले में, उनको हस्तक्षेप करने का निर्णय लेना पड़ सकता है।

 राज्यपाल के पद के साथ सबसे बुरी बात यह हुई कि राष्ट्रपति, जजों, सीएजी, यूपीएससी के अध्यक्ष, चुनाव आयुक्त, सीआईसी आदि की तरह राज्यपाल को निर्धारित सेवा अवधि नहीं दी गई है। उसकी स्थिति एक आईएएस अधिकारी से भी खराब है, जिसे हटाने के लिए जांच की जरूरत पड़ती है और उसे ‘‘र्दुव्‍यवहार’ का दोष साबित किए बिना आप नहीं हटा सकते। लेकिन राज्यपाल अपने पद पर ‘‘राष्ट्रपति की इच्छा तक’ ही बना रहता है, जिसका वास्तविक अर्थ यह हुआ कि दिल्ली की सत्ता पर जो काबिज है उसकी मर्जी पर उसका कार्यकाल निर्भर करता है और प्रधानमंत्री की इच्छा और पसंद तक ही वह अपने पद पर बना रह सकता है। यह स्थिति रघुकुल तिलक मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद है, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल कोई केंद्र सरकार का कर्मचारी नहीं है। वह एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है। कोर्ट ने अब भाजपा को कहा है कि वह 19 तारीख को अपना बहुमत सिद्ध करे और इस तरह उसने राज्यपाल के आदेश को बदल दिया है। कोर्ट 10 सप्ताह के बाद राज्यपाल के निर्णयों की वैधता और इस मामले से जुड़े अन्य संवैधानिक मसलों की जांच करेगा ताकि राज्यों में आगे इस तरह की स्थिति पैदा न हो।

#Rashtriya_Sahara

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