यह इकॉनमी की वह अवस्था होती है, जिसमें आर्थिक तरक्की की रफ्तार घट जाती है और बेरोजगारी के साथ-साथ महंगाई भी ऊंचे लेवल पर रहती है। इस कॉन्सेप्ट को 1960 के दशक तक मान्यता नहीं मिल पाई थी। पहली नजर में महंगाई और बेरोजगारी का ऊंचा लेवल या धीमे विकास (slow growth) की स्थिति एक तरह से एक-दूसरे से उलट नजर आते हैं, लेकिन 1970 के दशक में ऐसी ही स्थिति बनी थी। तब इकनॉमिक प्रॉडक्टिविटी काफी घट गई थी। इस दौरान बेरोजगारी के ऊंचे लेवल पर होने के साथ-साथ महंगाई भी ज्यादा थी। 'स्टैगफ्लेशन' टर्म का इस्तेमाल सबसे पहली 1965 में ब्रिटिश पार्ल्यामेंट में लेन मैकलॉयड द्वारा किया गया था।
मुद्रास्फीतिजनित मंदी मुश्किल क्यों
स्टैगफ्लेशन से निपटना काफी मुश्किल होता है। मंदी में इकॉनमी को रिवाइव करने के लिए सरकार जो कदम (ब्याज दरों में कटौती या सरकारी खर्च में बढ़ोतरी) उठाती है, उससे अक्सर महंगाई बढ़ती है। मंदी में सरकार के महंगाई बढ़ाने वाले कदम स्वीकार्य होते हैं, लेकिन स्टैगफ्लेशन में जब पहले से ही महंगाई काफी ऊंचे लेवल पर हो, तब इस तरह के कदम से कीमतों के बेकाबू होने का खतरा पैदा होता है। इससे इकनॉमिक प्रॉडक्टिविटी और ग्रोथ पर नेगेटिव असर होता है।
स्टैगफ्लेशन क्यों होता है?
ऐतिहासिक तौर पर इसका सबसे बड़ा कारण सप्लाई में अचानक कमी आना रहा है। ऐसा होने पर जरूरी सामान की कीमतों में तेज उछाल आता है। उससे इनफ्लेशन के हालात बनते हैं और कंपनियों की प्रॉडक्शन कॉस्ट बढ़ती है। अमेरिका में 1970 के दशक में ऐसा ही हुआ था। इसका दूसरा कारण इकॉनमी में मनी सप्लाई की बहुत ज्यादा ग्रोथ रोकने में मॉनिटरी अथॉरिटी की नाकामी के साथ-साथ गुड्स और लेबर मार्केट में सरकार का जरूरत से ज्यादा रेग्युलेशन होता है। 1970 के दशक में ऐसी स्थिति बनी थी, जब पूरी दुनिया स्टैगफ्लेशन की चपेट में आ गई थी। यह स्थिति क्रूड ऑइल की ऊंची कीमत से बननी शुरू हुई और इससे पैदा मंदी से निपटने के वास्ते बनाई गई मॉनेटरी पॉलिसी में सेंट्रल बैंकों की तरफ से राहत पैकेज दिए जाने से मजदूरी और महंगाई में तेज उछाल आई।