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Effect and result of Climate change over the world.
जलवायु परिवर्तन के लिहाज से देखा जाए तो 2016 ने सबसे बुरे रिकॉर्ड बनाए. इस दौरान दुनिया तबाह करने वाली कई घटनाएं आकार लेती दिखीं.
- बीते साल हवा और समुद्र की सतह का जो औसत तापमान दर्ज हुआ वह औद्योगिक क्रांति के सालों के बाद से सबसे ज्यादा था.
- 2016 में वायुमंडल में सबसे ज्यादा कार्बन डाइ आक्साइड भी दर्ज की गई. इसके नतीजे में आर्कटिक की बर्फ के पिघलने में चिंताजनक तेजी हुई.
- बर्फ की इस विशाल चादर से बड़े-बड़े देशों के आकार के बराबर हिमखंड टूटकर समुद्र में तैरते देखे गए. बीते साल एक तरफ समुद्र के स्तर में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई तो दुनिया ने सबसे ज्यादा सूखा भी देखा.
- आलम यह रहा कि किसी भी महीने में दुनिया की 12 फीसदी जमीन सूखे का सामना करती रही. ये ऐसी हकीकतें हैं जो जलवायु परिवर्तन की अवधारणा के किसी विरोधी के लिए भी चिंता का सबब होनी चाहिए. इसलिए भी कि इनके नतीजे जलवायु परिवर्तन को मानने या न मानने वालों में भेद नहीं करेंगे
Political urgency and not urgency of Climate change
सर्वनाश की आहट देती एक आपदा हमारी आंखों के सामने ही घट रही है. लेकिन खबरों और जनमानस में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए इसे संघर्ष करना पड़ रहा है क्योंकि वहां राजनीतिक टकराव जैसी दूसरी वास्तविकताएं प्राथमिकता में हैं. लेकिन आगे जो तूफान हम पर बरसने वाला है उसे अपनी मौजूदगी जताने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा. समुद्र का बढ़ता स्तर दुनिया भर में इसके किनारे बसे कई शहरों को कूड़े का ढेर बना देगा. उधर, सूखा खेती का नाश कर देगा. इस त्रासदी से विस्थापित होने वाले लोग यानी क्लाइमेट रेफ्यूजी उन जगहों की तरफ दौड़ेंगे जहां हाल स्थिर होगा और जहां के लोग ये समझ रहे होंगे कि वे इस आपदा से सुरक्षित हैं.
आज तो यह जरूरत और भी बढ़ गई है कि दुनिया के लोग आने वाली इस चुनौती को पहचानें और किसी भी तरह से कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने के लिए आपस में हाथ मिलाएं. साथ ही उन्हें स्वच्छ ऊर्जा से जुड़ी तकनीकों को भी आक्रामक स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए. लेकिन आठ साल तक उत्सर्जन रोकने की दिशा में आशा जगाने वाली शुरुआत के बाद दुनिया अब उल्टी दिशा में जा रही है. जिस अमेरिका के इस मामले में दुनिया का नेतृत्व करना चाहिए था वहां के राष्ट्रपति ने पेरिस समझौते पर अपने पूर्ववर्ती की कोशिशों से पल्ला झाड़ लिया है. इतना ही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति अब स्वच्छ ऊर्जा के मुद्दे पर हुई प्रगति को भी पीछे ले जा रहे हैं. इस विशाल वैश्विक प्रहसन में पाकिस्तान खुद को असहाय महसूस कर सकता है, लेकिन यहां की सरकार को भी इस दिशा में बहुत कुछ सोचना होगा. पहली बात तो यही है कि कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को हम अपनी सारी ऊर्जा समस्याओं का हल न समझें. पर्यावरण को लेकर हमें और भी परिपक्व नीति अपनानी होगी, यह चिंता बहुत लोगों को हो रही है और इसका निराकरण किया जाना चाहिए
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