FRBM रिपोर्ट पर एक नजर

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सरकार ने राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) समीक्षा समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक चर्चा के लिए पेश कर दी है

 

Ø  रिपोर्ट में सरकार के ऋण के लिए जीडीपी के 60 फीसदी की सीमा तय की गई है यानी केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी का 40 फीसदी और राज्य सरकारों का सामूहिक कर्ज 20 फीसदी होगा। इस पक्ष में कई दलील दी गई हैं। भारतीय संविधान (अनुच्छेद 292 और 293) ने सरकार के ऋण की सीमा तय की हुई है। इस तरह हमने आखिरकार संविधान के प्रावधान को लागू कर दिया है।

Ø   इसके अलावा इससे ऋण-जीडीपी अनुपात को लेकर उपजने वाली अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को हल करने में भी मदद मिली है। फिलहाल यह दर अन्य ब्रिक्स देशों से ज्यादा है। रेटिंग एजेंसियां भी इस अनुपात को तवज्जो देती हैं। इस कवायद का वैश्विक निवेशक समुदाय पर सकारात्मक असर होगा।

Present FRBM

Ø  देश का मौजूदा एफआरबीएम कानून दो लक्ष्यों पर केंद्रित है, राजकोषीय घाटा और राजस्व घाटा।

Ø  समिति में ज्यादातर सदस्यों का मानना है कि वह इन लक्ष्यों पर केंद्रित रहे। अगर इनको त्यागना है तो उसके लिए ठोस दलील तैयार करनी होगी क्योंकि नीतिगत निरंतरता अहम मूल्य है।

Ø  रिपोर्ट में मौजूद प्रमाणों के मुताबिक सरकार द्वारा राजस्व घाटे के मोर्चे पर चूकने का खमियाजा देश को उठाना पड़ता है। इतना ही नहीं सामान्य तौर पर सरकार के लिए राजस्व घाटा यह भी बताता है कि कुल वित्तीय बचत का कितना हिस्सा उसकी खपत और निवेश में प्रयोग किया जा रहा है तथा कितना विभिन्न फर्म और आम घरों के ऋण लेने के लिए मौजूद है। यह अब खासा अहम हो चुका है क्योंकि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में वित्तीय बचत में कमी आ रही है। 

 

Analysis

Ø  राजस्व और पूंजीगत व्यय के बीच के अंतर को संविधान ने रेखांकित किया है। राजस्व व्यय की प्रकृति आवर्ती है और उसकी पूर्ति कराधान की मदद से की जानी चाहिए थी, न कि ऋण से। राजस्व घाटा तो शून्य होना चाहिए। आदर्श स्थिति में राजस्व अधिशेष होना चाहिए जिसका इस्तेमाल सार्वजनिक निवेश में किया जाए। राज्यों की बात की जाए तो वे राजकोषीय घाटा नहीं उत्पन्न करते। बीते 37 साल में केंद्र का राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ा है। केंद्र सरकार के राजस्व और राजकोषीय घाटे के अनुपात का आकलन करें तो वह वर्ष 1980-81 के 1.3 फीसदी से बढ़कर गत वर्ष 66 फीसदी हो गया। यह सरकार के व्यय संतुलन में ढांचागत बदलाव को दर्शाता है और सरकार की घोषित नीति के विपरीत है। 

Ø   ऋण पर दिए जाने वाले ब्याज के रूप में उच्च स्तरीय व्यय और सरकार के मूलभूत कामों के लिए जरूरी खर्च का मिलाजुला बोझ 37 साल पुरानी ढांचागत समस्या के हल को मुश्किल बना रहा है। रिपोर्ट में राजस्व-राजकोषीय घाटा अनुपात को 66 फीसदी से कम करके 28 फीसदी पर लाने की बात कही गई है। इसके लिए सब्सिडी में जबरदस्त कटौती करनी होगी और साथ ही राजस्व व्यय के मोर्चे पर किफायत बढ़ानी होगी। यह लक्ष्य कठिन है लेकिन इसे पाया जा सकता है। इससे इतर प्रयास करने पर सरकार को अपने मूल कार्यों के व्यय में कटौती करनी पड़ सकती है।

Ø  सरकार की जिम्मेदारी है कि वह नीतिगत कदमों के राजकोषीय परिणाम का आकलन करे और भविष्य की वृहद आर्थिक नीतियां तैयार करते समय उनका ध्यान रखे। ऐसे में उपरोक्त जैसा बचाव वाला प्रावधान केवल तब लागू किया जाना चाहिए जबकि परिस्थितियां सरकार के नियंत्रण से बाहर हों, ऐसी घटनाएं हों जिनका सरकार समय रहते आकलन नहीं कर सकी हो या फिर उनका आकार ऐसा हो कि मौजूदा एफआरबीएम प्रावधान उसका निदान करने में सक्षम न हों। अगर सरकार संतोषजनक ढंग से यह नहीं बता पाती है कि यह विचलन ऐसी वजहों से हुआ जिनका पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं था तो इसका मतलब यही होगा कि सरकार ने सुधारों को सही ढंग से अंजाम नहीं दिया। इस बात का इस्तेमाल इस प्रावधान के इस्तेमाल में सरकार पर नियंत्रण रखने में किया जाए। राजकोषीय परिषद यह सुनिश्चित करने में भी उपयोगी भूमिका निभाएगी कि इस प्रावधान का इस्तेमाल उचित वजह से किया जाए। 

Ø  समीक्षा में एक राजकोषीय परिषद की स्थापना की बात कही गई है। राजकोषीय परिषद सरकार के राजकोषीय नीति संबंधी कदमों की तार्किकता पर प्रश्न करेगी। भारत जैसे गोपनीय कार्य संस्कृति वाले देश में जहां मनमाने निर्णय आम हैं, वहां यह एक जरूरी सुधार है। सत्ताधारी वर्ग को यह पसंद नहीं आएगा। साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि राजकोषीय परिषद किसी भी तरह भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति की समकक्ष नहीं होगी। सरकार की कोई शक्ति उसे हस्तांतरित नहीं की जाएगी।

 रिपोर्ट में परिषद के तीन तरह के काम बताए गए हैं। 

Ø  पहला, बहुस्तरीय राजकोषीय अनुमान लगाना, राजकोषीय आंकड़ों की स्थिति दुरुस्त करना और राजकोषीय विश्लेषण में स्थायित्व लाना।

Ø  दूसरा, सालाना वित्तीय वक्तव्य को निरंतरता प्रदान करना। इसमें ऋण के लक्ष्य, राजकोषीय नीति रिपोर्ट और वृहद आर्थिक ढांचे से संबंधित वक्तव्य तैयार करना शामिल है।

Ø  तीसरा, अनुरोध मिलने पर केंद्र सरकार को नीतिगत निर्देशन मुहैया कराना।

इसमें एफआरबीएम से विचलन और उसके पथ पर वापसी जैसी बातें शामिल हैं। इसके पास कोई नियामक, नीति निर्माण संबंधी या अंकेक्षण का काम नहीं होगा। इसके पीछे मूल विचार है ऐसा संस्थान बनाना जो सरकार के साथ मिलकर बेहतरीन राजकोषीय नतीजे सुनिश्चित करने में मदद कर सके। इस रिपोर्ट के सह लेखक के रूप में मुझे उम्मीद है कि इस रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर बाकी अंशधारकों से चर्चा हो सके। इससे वृद्घि को लेकर बेहतर ढांचा तैयार करने और राजकोषीय नीति बनाने में मदद मिलेगी।

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