ब्रिक्स में बदला हुआ चीन

#Amar_Ujala

इस वर्ष सम्मेलन की थीम है-उज्ज्वल भविष्य के लिए मजबूत भागीदारी। ब्रिक्स के नेता, खासकर भारत और चीन आर्थिक विकास पर ध्यान देना चाहते हैं।

  • भारत की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और चीन पुनर्गठन के दौर में है। दोनों बखूबी जानते हैं कि उन्हें न केवल यह क्षेत्र समेत पूरे विश्व में, बल्कि उन दोनों के बीच आपस में भी शांति और स्थिरता की जरूरत है। हो सकता है कि दोकलम गतिरोध के समाधान के पीछे यह एक प्रमुख कारक हो।
  • आर्थिक अनिवार्यताओं के बावजूद ब्रिक्स के सदस्य देश जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय घटनाक्रमों के चलते उनका भावी विकास कमजोर हो सकता है।
  • चीन सावधानीपूर्वक अमेरिका पर नजर गड़ाए हुए है, जो व्यापार युद्ध की धमकी दे रहा है, जबकि भारत का ध्यान आतंकवाद के खतरों पर केंद्रित है। यदि कोरियाई प्रायद्वीप में तनाव बढ़ता है, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका व्यापक असर होगा।

China & Terrorism

  • शियामेन शिखर सम्मेलन की एक खास विशेषता यह है कि पाक आतंकी समूहों को लेकर चीन के रुख में बदलाव आया है।
  • ब्रिक्स सम्मेलन के घोषणापत्र में न केवल आतंकवाद की निंदा की गई है, बल्कि हिंसा और असुरक्षा के लिए जिम्मेदार आतंकी समूहों की एक बड़ी सूची में पाकिस्तान के हक्कानी नेटवर्क, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए मोहम्मद जैसे चार आतंकी समूहों का नाम लिया गया।
  • मात्र दो हफ्ते पहले जब अमेरिका ने आतंकवादियों को पनाह देने के लिए सख्त चेतावनी दी थी, तब चीन ने पाकिस्तान का बचाव करते हुए कहा था कि आतंकवाद से लड़ाई में इस्लामाबाद अग्रणी है और उसने इस लड़ाई में कई बलिदान दिए हैं। पाकिस्तान के लिए यह एक संदेश है, जिसकी अनदेखी करना उसकी मूर्खता होगा।

चीन ने अब आखिर ऐसा क्यों किया? इसका जवाब शायद इस तथ्य में है कि आतंकवाद पर शियामेन घोषणापत्र का वह पैराग्राफ निर्दोष अफगान लोगों के खिलाफ हिंसा की आलोचना से शुरू हुआ है। इसमें अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सरकार के साथ वहां की राष्ट्रीय सुरक्षा और सुरक्षा बलों का समर्थन किया गया है। इसे अफगानिस्तान पर हाल में घोषित अमेरिकी नीति पर चीन-रूस के संयुक्त जवाबी हमले के रूप में देखा जा सकता है। इसी क्रम में घोषणापत्र में तालिबान, इस्लामिक स्टेट, अल कायदा और उससे जुड़े पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान, तहरीक-ए तालिबान पाकिस्तान और हिज्बुल तहरीर और अफगानिस्तान में सक्रिय सभी आतंकी समूहों की सूची दी गई है।

Goa Summit & China

पिछले वर्ष हुए गोवा शिखर सम्मेलन में भी करीब छह पैरा में आतंकवाद की आलोचना की गई थी, पर वह निंदा कुछ हद तक सामान्य थी। उसमें मेजबान देश भारत का नजरिया था, जो संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद (सीसीआईटी) पर व्यापक कन्वेंशन को जल्दी अपनाने पर जोर देना चाहता था। उसमें अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए वैश्विक और अभूतपूर्व खतरा बताकर इस्लामिक स्टेट और उससे जुड़े समूहों को रेखांकित किया गया था। लेकिन शियामेन घोषणापत्र में नामित आतंकी समूहों में से किसी को भी संभवतः चीन की आपत्ति के कारण शामिल नहीं किया गया था।

पाकिस्तानी आतंकी समूहों की निंदा की अनुमति देकर चीन भी भारत को खुश करना चाहता है, जो संयुक्त राष्ट्र की अल कायदा समिति द्वारा पठानकोट और उड़ी हमले के लिए जिम्मेदार मसूद अजहर का नाम प्रतिबंधित आतंकियों की सूची में डालने से बीजिंग की रोक से नाराज है। जैश-ए मोहम्मद को कमेटी द्वारा वर्ष 2001 में पहले ही सूचीबद्ध किया गया था और चीन भी उस फैसले के साथ था। पर जब अजहर का नाम डालने की बात आई, तो चीन ने कहा कि भारत ने उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं दिए हैं। इसलिए अब भी हमें यह नहीं मानना चाहिए कि वह अपनी आपत्ति हटा लेगा।

China plays in context

  • हमें इस धारणा से परहेज करने की जरूरत है कि चीन पाकिस्तान की गड़बड़ी पर रोक लगा रहा है, असल में इसका उल्टा भी हो सकता है।
  • बीजिंग इस्लामाबाद को और करीब ला सकता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में निवेश करने के बाद चीन अपने निवेश का लाभ पाने के लिए अफगान-पाक क्षेत्र में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना चाहता है और इस क्षेत्र में शांति व स्थिरता उसकी वन बेल्ट वन रोड योजना के लिए भी महत्वपूर्ण है।
  • चीन वास्तव में यहां एक बड़ी भूमिका के बारे में सोच सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि ब्रिक्स बिजनेस फोरम में शी जिनपिंग ने सीरिया, फलस्तीन और लीबिया से संबंधित मुद्दों के राजनीतिक समाधान के लिए संवाद और परामर्श को जरूरी बताया। इस अर्थ में चीन के नए रुख को वैश्विक मुद्दों पर चीन की सक्रियता के रूप में अच्छी तरह समझा जा सकता है।

नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग, दोनों जानते हैं कि उन्हें आर्थिक मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है, जिस बुनियादी मुद्दे के लिए ब्रिक्स का गठन किया गया था। चाहे हम चीन को पसंद करें या नहीं, लेकिन भारत चीन की पूंजी और अनुभव का अपने मैन्यूफेक्चरिंग क्रांति में फायदा उठा सकता है, जिसका वायदा मोदी ने किया है। पिछले तीस वर्षों से विवादों को कम करना और सहयोग बढ़ाना भारत-चीन रिश्ते की पहचान है। हमें पिछले दो वर्षों के मनमुटाव को पीछे रखने और ब्रिक्स द्वारा उपलब्ध कराए गए मंच का इस्तेमाल करने की जरूरत है।

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