ऊर्जा सुरक्षा पर ध्यान से भारत होगा बलवान

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Peeping into the history

भारत ऊर्जा के क्षेत्र में एक बड़ी ताकत बनकर उभर सकता है लेकिन इसके लिए विशेष प्रयासों की जरूरत होगी। कुछ समय पहले तक भारत वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के क्षेत्र में एक छोटा खिलाड़ी हुआ करता था लेकिन इस कहानी में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहा है। भारत अतीत में भी जीवाश्म ईंधनों के लिए आयात पर ही निर्भर है। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत हमेशा वैश्विक तेल बाजार में झटके आने की सूरत में पडऩे वाले आर्थिक बोझ को लेकर चिंतित रहा करता था। ईरान की क्रांति के बाद रुपये का अवमूल्यन हो गया था और 1980 के दशक में ईरान-इराक युद्ध के चलते भारत को तेल उत्पादों की कमी का सामना करना पड़ा था। पहले खाड़ी युद्ध ने भारत को महंगे दाम पर पेट्रोलियम उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर किया था। वर्ष 1996 में हुए कुर्द गृहयुद्ध ने भी भारत के चालू खाते में तगड़ी चोट पहुंचाई थी। दूसरे खाड़ी युद्ध के बाद भी भारत में ईंधन के दाम बढ़ गए थे। भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के लिए ये घटनाएं बड़ी सिरदर्द साबित हुई थीं लेकिन वैश्विक बाजार में भारत की स्थिति मामूली स्तर पर ही बनी हुई थी।

  • हालांकि वर्ष 2030 तक दुनिया भर में होने वाले दैनिक तेल कारोबार में भारत की हिस्सेदारी 12.5 फीसदी के स्तर तक पहुंच जाएगी जो 2014 में महज 7.4 फीसदी थी।
  •  दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत में ऊर्जा की मांग सबसे तेज गति से बढऩे का अनुमान है। इस तरह भारत न तो ऊर्जा उत्पादों की कीमतें तय करने की स्थिति में होगा और न ही उसकी भूमिका नगण्य ही होगी।
  • 21वीं सदी के वैश्विक ऊर्जा बाजार में भारत की भूमिका काफी कुछ वैसी ही होगी जैसी 20वीं सदी के दूसरे हिस्से में यूरोप की होती थी। इसका मतलब है कि भारत एक बड़ी ऊर्जा शक्ति के रूप में भले ही तब्दील हो जाएगा लेकिन वह वर्चस्वकारी भूमिका में नहीं होगा।

How global powers changing policies

प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी ऊर्जा सुरक्षा को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित किया है।

  • अमेरिकी ऊर्जा स्वतंत्रता एवं सुरक्षा अधिनियम 2007 ने नवीकरणीय ईंधनों के प्रोत्साहन, उपभोक्ता संरक्षण और ऊर्जा सक्षमता में निवेश के अलावा ऊर्जा स्वतंत्रता सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया था।
  • पिछले दशक में जीवाश्म ईंधन एवं गैस के विस्तार के साथ अमेरिका में ऊर्जा परिदृश्य बड़ी तेजी से बदला है। फूकूशिमा परमाणु संयंत्र में हुए हादसे के बाद जापान ने भी वर्ष 2014 में अपनी चौथी रणनीतिक ऊर्जा योजना पेश की थी जिसमें ऊर्जा सक्षमता बढ़ाने के साथ शून्य-उत्सर्जन स्तर वाली ऊर्जा का उत्पादन दोगुना करने और ऊर्जा के मामले में आत्म-निर्भरता को 2030 तक दोगुना करने का लक्ष्य रखा गया था।
  • चीन की 12वीं पंचवर्षीय योजना में घरेलू स्तर पर ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने के साथ ही ऊर्जा आपूर्ति के स्रोतों और आयात मार्गों का विविधीकरण करने का जिक्र किया गया था। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) चाहती है कि उसके सदस्य देश सीमित अवधि के साथ ही लंबी अवधि के लिए भी अपनी ऊर्जा सुरक्षा पर ध्यान दें।

Reducing importance of Import

  • दुनिया के प्रमुख देश अब ऊर्जा जरूरतों के लिए विदेशी आपूर्ति पर कम निर्भरता चाहते हैं और उन्हें यह भी समझ आ गया है कि ऊर्जा स्वतंत्रता से ऊर्जा सुरक्षा अलग है।
  •  भारत के लिए ऊर्जा सुरक्षा का मतलब है कि महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संसाधन उसे समुचित मात्रा में और किफायती एवं अनुमानित कीमत पर उपलब्ध हों, उनकी आपूर्ति में व्यवधान का कम-से-कम जोखिम हो और वर्तमान एवं आसन्न खतरों के मद्देनजर पर्यावरण एवं भावी पीढिय़ों के लिए ऊर्जा संपोषणीयता भी सुनिश्चित की जा सके।
  • लेकिन ऊर्जा हालात पर नजर रखने के लिए कोई वैश्विक ऊर्जा संगठन नहीं है। वैश्विक ऊर्जा शासन बंटा हुआ है और प्राय: असंगत भी होता है।
  • एक बड़ी ऊर्जा शक्ति होने के नाते एक क्रियाशील, विश्वसनीय और पारदर्शी ऊर्जा बाजार का होना उसके राष्ट्रीय हित में है। इसलिए भारत को एक ऐसा मंच तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए जो ऊर्जा सुरक्षा को पुनर्परिभाषित करने और वैश्विक ऊर्जा शासन को नया ढांचा देने के बारे में संवाद का जरिया बन सके। इसकी कई कारण हैं:
  • पहला, ऊर्जा जगत का स्वरूप अब 1970 के दशक में पैदा हुए तेल संकट से काफी अलहदा नजर आता है। आर्कटिक क्षेत्र में मौजूद विशाल संसाधनों पर नियंत्रण की होड़, तेल बाजार में उठापटक, गैस का अनिश्चित भविष्य, निम्न-कार्बन स्तर वाली ऊर्जा की तरफ रुझान बढऩे या नाभिकीय सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढऩे जैसे नए मुद्दे अब अहम हो चुके हैं। जहां ऊर्जा पर कूटनीतिक संवाद अब भी काफी हद तक ऊर्जा सुरक्षा के बारे में संकीर्ण परिभाषा तक सीमित हैं, वहीं इन उभरते रुझानों पर चर्चा वैज्ञानिक एवं तकनीकी-आर्थिक संवाद में ही उलझी हुई है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा से संबंधित राजनीतिक अर्थशास्त्र पर बहुत कम चर्चा होती है, इसके बारे में समझ तो और भी कम है।
  • दूसरा, अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा के गतिशील विश्व की व्याख्या के लिए जरूरी सिद्धांतों, अवधारणाओं और ढांचों की अनुपस्थिति को संवाद की कमी के लिए जिम्मेदार बताया जा सकता है। इन मुद्दों पर होने वाली चर्चाओं पर वर्तमान विकसित देशों की चिंताओं का सीधा प्रभाव नजर आता है। इसमें उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष उत्पन्न खतरों और अवसरों का कोई जिक्र नहीं होता है जबकि ऊर्जा की मांग तो इन्हीं देशों से आएगी। विकासशील देश ही ऊर्जा क्षेत्र में नवाचार को प्रोत्साहित करेंगे और ऊर्जा व्यापार एवं निवेश के पैटर्न को आकार देंगे। इससे भी अधिक अहम बात यह है कि ऊर्जा नीति और जलवायु नीति को एक साथ समाहित करने का कोई भी साझा संदर्भ नजर नहीं आ रहा है और अगर दिखता भी है तो वह विखंडित है।
  • तीसरा, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के कई जानकार और पेशेवर अब भी दुनिया को देश-केंद्रित व्यवस्था के ही रूप में देखते हैं। राष्ट्र- राज्यों को कूटनीतिक तरीकों या सैन्य हस्तक्षेप के माध्यम से अपना प्रभाव कायम करने वाले प्राथमिक अभिकर्ता के तौर पर देखा जाता है। ऊर्जा जगत काफी जटिल स्वरूप वाला है। इसमें देशों और उनकी तेल कंपनियों के साथ बड़ी निजी कंपनियों, कई छोटे अन्वेषकों, उपभोक्ता-नागरिक और स्थानीय ऊर्जा सहकारी समितियों के अलावा वित्तीय बाजार की भी भूमिका होती है। ऐसे में देश-केंद्रित वैश्विक धारणा के तहत ऊर्जा सुरक्षा को काफी हद तक निरर्थक प्रयास समझा जाता है। इससे संसाधनों का इस्तेमाल प्रभावहीन होने के साथ ही हम ऊर्जा संबंधी शोध एवं विकास, निवेश और वाणिज्यीकरण के लिए सहकारी ढांचा तैयार करने के अवसर भी गंवा बैठते हैं।
  • चौथा, अभी तक ऊर्जा प्रणाली के समक्ष उत्पन्न हो रहे नए खतरों के बारे में अधिक चर्चा नहीं की गई है। इन खतरों में ऊर्जा के आधारभूत ढांचे के लिए जलवायु जोखिम, समेकित ऊर्जा ग्रिड और प्रणाली पर साइबर हमले, स्थापित एवं उदीयमान ऊर्जा कंपनियों के आर्थिक रूप से बैठ जाने का जोखिम और नई ऊर्जा तकनीकों के लिए जरूरी महत्त्वपूर्ण खनिजों तक पहुंच बाधित होने का जोखिम भी शामिल है।
  • पांचवां, बिजली या खाना पकाने के आधुनिक ईंधन तक अब भी अरबों लोगों की पहुंच नहीं होने से मानव स्वास्थ्य, आर्थिक उत्पादकता और स्त्री-पुरुष असमानता पर काफी बुरा असर पड़ता है। किफायती, भरोसेमंद, संपोषणीय आधुनिक ऊर्जा सेवाओं तक सभी की पहुंच अब एक महत्त्वपूर्ण संपोषणीय विकास लक्ष्य बन चुका है। लेकिन विकास का यह आयाम बड़े ऊर्जा संस्थानों, आधारभूत ढांचे और निवेश के शोर में अक्सर गायब हो जाता है।

Conclusion

भारत को अपनी आवाज हासिल करनी होगी, अपनी चिंताओं को स्वर देना होगा और ऊर्जा बाजार के रास्तों पर सफर की दिशा खुद तय करनी होगी। इसके अलावा भारत को ऊर्जा रूपांतरण और ऊर्जा कूटनीति को भी तवज्जो देनी होगी। इसे वैश्विक ऊर्जा शासन के संबंध में नए विचारों को भी पेश करने की जरूरत है। भारत को ऊर्जा सुरक्षा पर संवाद को भी आगे ले जाना चाहिए क्योंकि दूसरे देश इस दिशा में बढ़ेंगे

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