कृषि को लाभकारी बनाना ही विकल्प

#Editorial_Dainik_Tribune

हाल ही का सन्दर्भ

सर्वोच्च अदालत ने किसानों की समस्याओं के प्रति सरकार की परंपरागत उदासीनता पर तीखा कटाक्ष किया है कि मुआवजा किसानों की आत्महत्याओं का स्थायी समाधान नहीं है।

  • कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है और सरकार उनके पीड़ित परिवार को मुआवजा देने के अलावा कुछ कारगर कदम नहीं उठा पा रही।
  • एक गैर सरकारी संगठन सिटीजंस रिसोर्स एवं एक्शन इनीशिएटिव्स ने गुजरात में आत्महत्या कर लेने वाले 619 किसानों के परिवारों को मुआवजा देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की है।
  • उसी पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त टिप्पणी की और केंद्र सरकार से यह सुनिश्चत करने को कहा कि कोई भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर न हो।

और क्या कहा अदालत ने

  • हमें लगता है कि आप गलत दिशा में जा रहे हैं। किसान कर्ज लेते हैं, लेकिन उसे चुका नहीं पाते। इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं, तब आप उनके परिवारों को मुआवजा देते हैं।
  • मुआवजा समाधान नहीं :  सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कहा कि उसकी राय में पीडि़त परिवार को मुआवजा देना समाधान नहीं है, कोशिश खुदकुशी रोकने की होनी चाहिए।
  • इसलिए योजनाएं इस बात को ध्यान में रखकर बनायी जायें कि किसान खुदकुशी क्यों कर रहे हैं। निश्चय ही देश की सर्वोच्च अदालत ने बेहद स्वाभाविक और व्यावहारिक तर्क दिये हैं, अन्नदाता को आत्महत्या से बचाने के लिए, लेकिन क्या यह अपने आप में पूरी शासन व्यवस्था पर ही सवालिया निशान नहीं है कि दशकों से जारी किसान आत्महत्याओं के बावजूद उसके स्तर पर ऐसी कोई सोच भी नजर नहीं आती?

 

ऋण संस्थाएं और बदहाली

  • अपनी कृषि, और पारिवारिक भी, जरूरतों के लिए किसान साहूकार से मनमाने ब्याज और शर्तों पर कर्ज लेने को मजबूर होता है, क्योंकि बैंक तक वह पहुंच नहीं पाता और पहुंच भी जाये तो उसे कर्ज नहीं मिल पाता।
  • साहूकार का कर्ज किसान के लिए अकसर ऐसा चक्रव्यूह साबित होता है, जिससे वह नहीं निकल पाता और अंतत: हताशा में आत्महत्या कर लेता है।

इसके बावजूद आज तक ऐसी कृषि नीति न बनाया जाना कि कृषि घाटे के बजाय मुनाफे का काम बन जाये, ताकि देश के अन्नदाता को खुद अपनी जान न देनी पड़े—क्या हमारे नीति निर्माताओं की सोच और सरोकारों पर ही सवालिया निशान नहीं है? ऐसा नहीं है, किसान कल्याण के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, चुनाव के समय कर्ज माफी योजनाएं भी लायी जाती हैं, जब-तब समर्थन मूल्य में वृद्धि के लिए भी अपनी पीठ थपथपायी जाती है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया जाता कि किसान कर्ज के जाल से निकल कर आत्मनिर्भर बन सके। बेशक, निहित स्वार्थी सांठगांठ के चलते, यह काम आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। जरूरत सिर्फ प्राथमिकताएं और सरोकारों को संतुलित बनाने की है। बाजार में किसी खाद्य पदार्थ की कीमतें अचानक बढ़ जायें तो सरकार चिंतित हो उठती है, लेकिन अपने उत्पाद का लागत मूल्य भी न मिलने पर किसान उसे खेत में या सड़क पर नष्ट करने को मजबूर हो जाये, तो सत्ता प्रतिष्ठानों में किसी के चेहरे पर शिकन नजर नहीं आती। बाजार में कीमतें नियंत्रित करने के लिए निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से लेकर आयात करने तक हर संभव कदम उठाने वाली सरकार किसान को उपज का लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी करती नजर नहीं आती। सरकार ने 2022 किसानों की आय दोगुना करने का वायदा किया है, लेकिन तीन वर्ष में किसानों द्वारा आत्महत्याओं में कमी भी न आना बताता है कि उस पर अमल की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है। कथनी-करनी के इस फर्क को मिटाये बिना न किसान बचेगा और न ही कृषि।

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download