नियामकों की भूमिका में होनी चाहिए और स्पष्टता

#Business_standard

Big question

सवाल यह है कि क्या भारतीय रिजर्व बैंक फंसे हुए कर्ज की वसूली के बारे में गठित एक अद्र्ध-न्यायिक निकाय के सामने शर्तें थोप सकता है? गुजरात उच्च न्यायालय ने भी हाल ही में यह पूछा कि क्या रिजर्व बैंक के पास अधिकरणों के नियमन की शक्तियां मौजूद हैं? रिजर्व बैंक का यह सोचना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वह एक अद्र्ध-न्यायिक निकाय को अपनी शर्तें मानने के लिए बाध्य कर सकता है। उससे अधिक महत्त्वपूर्ण या शायद डरावनी बात यह है कि हमारे सार्वजनिक संस्थानों के कामकाज में भूमिका की स्पष्टता किस तरह आसानी से आधिकारिक रूप से गलत हो सकती है

Ordinance & Power to RBI

सबसे बड़ी गलती राष्ट्रपति के अध्यादेश के जरिये रिजर्व बैंक को दी गई वह शक्ति है जिसमें उसे फंसे हुए कर्ज की वसूली के बारे में वाणिज्यिक बैंकों को निर्देश देने का अधिकार मिला है। यह प्रावधान केंद्रीय बैंक के डीएनए में गलत नीतिगत चयन के रूप में परिलक्षित होता है और यह भूमिका की स्पष्टता को भी धूमिल कर देता है। यह एकतरफा नीतिगत समाधान का बेहतरीन उदाहरण है।

should RBI issue binding direction?

  • यह रिजर्व बैंक का दायित्व नहीं है कि वह वाणिज्यिक बैंकों के लिए बाध्यकारी निर्णय ले। लेकिन शक्तियों से सुसज्जित रिजर्व बैंक शायद यह मानने लगा कि उसे राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) को भी उसकी गतिविधियों के बारे में दिशानिर्देश देना चाहिए।
  • हाल में बने दिवालिया कानून के तहत कामकाज के तरीके को लेकर बैंकों को निर्देश देने की शक्ति देने के पीछे यह धारणा है कि वाणिज्यिक बैंक को नए कानून के प्रावधानों को लेकर कोई फिक्र ही नहीं है।
  • बैंकों की कार्यकारी भूमिका सुनिश्चित करने का रिजर्व बैंक को दायित्व सौंपने जैसी प्रवृत्ति अन्य क्षेत्रों में भी आ सकती है।
  • बीमा क्षेत्र के नियामक को भी बीमा कंपनियां संचालित करने के लिए कहा जा सकता है। इसी तरह बाजार नियामक सेबी भी म्युचुअल फंड संचालित कर सकता है।

Passing buck to RBI

  • इससे भी बुरी बात यह है कि इसमें यह आधार बना दिया गया है कि निगरानी एजेंसियां कुछ साल बाद रिजर्व बैंक का दरवाजा खटखटा सकती हैं।
  • एजेंसियां यह कह सकती हैं कि रिजर्व बैंक ने अपने दायित्व के निर्वहन के दौरान कुछ गलत फैसले लिए थे। उस समय बैंकों की समस्याएं रिजर्व बैंक की मुश्किल बन जाएंगी।
  • यह संभावना काफी हद तक सही हो सकती है क्योंकि गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की वसूली के मामले में प्रदर्शन खराब रहने और इनमें से कुछ परिसंपत्तियों को सस्ते में खरीदने वाला अगर लाभ कमाने लगता है तो केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) भविष्य में यह भी कह सकता है कि रिजर्व बैंक भी भ्रष्टाचार की चपेट में आ गया है।

रिजर्व बैंक का एनसीएलटी को एनपीए के संबंध में अपनाए जाने वाले रुख के बारे में अधिसूचना जारी करना पिछले कुछ वर्षों का एक अहम नीतिगत चयन है। एनसीएलटी का गठन अद्र्ध-न्यायिक फैसले ले पाने में सक्षम अधिकरण के तौर पर किया गया था लेकिन इसके पीछे यह सोच भी थी कि मौजूदा संगठनों के प्रदर्शन पर असर डालने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए नई संस्थाओं की जरूरत है। न्याय प्रशासन के निष्प्रभावी होने से सरकारों ने संसद के जरिये ऐसे कानून पारित कराए हैं जिनमें नियामकों को सशक्त करके उन्हें एक तरह से न्यायिक भूमिका दे दी गई है। लेकिन इस तरह की भूमिकाएं निभाने के लिए जरूरी प्रशिक्षण देने और क्षमता विकसित करने पर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया। ऐसे प्रयोगों से पैदा हुई निराशा में सरकारों ने कुछ और खराब प्रयोग किए जिसका नतीजा यह हुआ कि सरकार के अंगों की भूमिका ही धूमिल पड़ती जा रही है। इसके बहुतेरे उदाहरण हैं। पूंजी बाजार के नियामक सेबी को एक कार्यकारी संगठन होते हुए भी बेहिसाब शक्तियां दी गई हैं। उसे गंभीर अद्र्ध-न्यायिक फैसले भी लेने का अधिकार है जबकि उसके पास कोई न्यायिक प्रशिक्षण नहीं है। इसी तरह गंभीर दायित्वों के निर्वहन के लिए गठित अद्र्ध-न्यायिक अधिकरणों को भी संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है। राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण को कंपनी कानून के साथ ही प्रतिस्पद्र्धा कानून और दिवालिया कानून से जुड़े मामलों में भी अपीलीय अधिकरण की भूमिका दे दी गई है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि इस अधिकरण में केवल दो सदस्य हैं जबकि एक सदस्य की जगह खाली है। इसी तरह बीमा नियामक के फैसलों के खिलाफ अपील सुनने के लिए गठित प्रतिभूति अपीलीय पंचाट में कभी भी सारे सदस्यों की नियुक्ति सरकार नहीं कर पाई है।

 

दूरसंचार क्षेत्र में कथित घोटाले के बाद कुछ 'रचनात्मक' नीति-निर्माताओं ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) को भी अहम कार्यकारी फैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल करने का सुझाव दे दिया था। यह एक बानगी है कि अंतर-सांस्थानिक नियंत्रण एवं संतुलन को कितनी कम अहमियत दी जाती है। बैंकिंग क्षेत्र के नियामक का भी अपनी निगरानी वाले बैंकों को उठाए जाने वाले कदमों के बारे में बताना कुछ ऐसा ही है।

Conclusion

इस बात की काफी संभावना है कि निकट भविष्य में दिवालिया कानून के तहत प्रस्तावित इनसॉल्वेंसी पेशेवरों के लिए भी ऐसा कोई बोर्ड बन जाए जो उन्हें पेशेवर कामकाज के बारे में दिशानिर्देश जारी करे। एक नवजात व्यवस्था के शुरुआती दौर में इस तरह का कदम बहुत बड़ी गलती होगी। उससे दिवालिया प्रक्रिया अंजाम दे पाने में इन पेशेवरों की साख कुछ उसी तरह कमजोर होगी जैसा रिजर्व बैंक के निर्देश से बैंक प्रभावित होंगे। नए दिवालिया कानून में एक और बड़ी खामी यह है कि कोई भी कर्जदाता वसूली की प्रक्रिया शुरू कर सकता है। इससे न केवल कर्जदार कंपनी के निदेशक मंडल की शक्तियां निलंबित हो जाएंगी बल्कि कर्ज वसूली पर भी रोक लग जाएगी। साफ है कि आमूलचूल बदलाव वाली नीति से समस्याओं का समाधान निकलने के बजाय उनमें बढ़ोतरी ही होगी

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