#Editoriall_Dainik_Tribune
भारत में स्वास्थ्य का हाल और हाल ही का सन्दर्भ
हमारे देश का स्वास्थ्य ढांचा यूं ही चरमराया हुआ है, ऊपर से दवाओं और चिकित्सा उपकरणों की महंगाई लोगों के लिए और मुसीबतें खड़ी करती रही है। हाल में दिल के मरीजों में लगाए जाने वाले स्टेंट की कीमत को लेकर हुआ है। इधर जब नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) ने ऐसी ही एक धांधली का खुलासा दिल की धमनियों में लगाए जाने वाले स्टेंट के बारे में किया, जिससे पता चला कि कैसे दवा कंपनियां, अस्पताल और डॉक्टर तक मरीजों को लूटने के लिए गोरखधंधे में वर्षों से लिप्त रहे हैं। एनपीपीए ने हाल में ही जानकारी दी थी कि स्टेंट की खरीददारी में सबसे ज्यादा मार्जिन अस्पतालों का होता है जो 650 फीसदी तक होता है। पर ऑपरेशन टेबल पर पड़े मरीजों और उनके तीमारदारों को भय दिखाकर स्टेंट जरूरी बताया जाता रहा है और उसे अनाप-शनाप दामों पर बेचकर खासतौर से अस्पताल भारी कमाई करते रहे हैं।
एनपीपीए ने इस बारे में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा कि स्टेंट की बिक्री में वितरकों का औसत मार्जिन 13 से 200 फीसदी और अस्पतालों का मार्जिन 11 से 654 फीसदी तक होता है।- साफ है कि ऐसे ज्यादातर मामलों में अस्पताल और कार्डियोलॉजिस्ट ही स्टेंट की कीमत तय करते हैं। एं
- जियोप्लास्टी या बाईपास सर्जरी के वक्त वे मरीज के तीमारदारों को इसके लिए प्रेरित करते हैं कि वे धमनी की रुकावट दूर करने के लिए बढ़िया से बढ़िया स्टेंट डलवाएं
इन्हीं बातों के मद्देनजर एनपीपीए ने स्टेंट की मुनाफाखोरी रोकने के उपाय इधर हाल में घोषित किए हैं, जिनके मुताबिक अब यह जिम्मेदारी स्टेंट बनाने वाली कंपनी की ही होगी कि वह अपने हर विक्रेता को संशोधित मूल्य सूची उपलब्ध कराएगी और ज्यादा रकम वसूली का मामला पकड़े जाने पर संबंधित कंपनी को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जाएगा।
साथ ही एनपीपीए ने स्टेंट को अनिवार्य औषधि सूची में शामिल कर इसकी कीमत की अधिकतम सीमा भी तय की है। इसके अनुसार बेयर मेटल स्टेंट 7,623 रुपये, ड्रग एल्यूटिंग स्टेंट व बायोरिचार्जेबल स्टेंट 31,080 रुपये से ज्यादा कीमत में नहीं बेचे जा सकेंगे। पर इस पाबंदी का असर यह हुआ कि अस्पतालों से स्टेंट ही गायब हो गए। इसी से साबित होता कि कैसे अस्पताल और कंपनियां सिर्फ अपने मुनाफे की चिंता करते हैं।
हैरानी नहीं कि इसी मिलीभगत का नतीजा है कि वर्ष 2016-17 में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च के लिए जो राशि (20,511 करोड़ रुपये) केंद्रीय बजट में रखी गई, उसके 40 फीसदी हिस्से के बराबर रकम सिर्फ स्टेंट पर ही खर्च का अनुमान लगाया गया। इस आकलन का आधार वर्ष 2015 में पूरे देश में बेचे गए छह लाख स्टेंट हैं, जिनमें से 1.3 लाख स्टेंट का खर्च सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों ने उठाया। जबकि 4.40 लाख स्टेंट की कीमत लोगों ने निजी तौर पर चुकाई। कुल मिलाकर स्टेंट पर खर्च 3,656 करोड़ रुपये बैठा।
सवाल है कि क्या स्टेंट की कीमतों पर लगाई गई बंदिशों के बावजूद दवा लॉबी और अस्तपाल अपनी अंधाधुंध कमाई के ये रास्ते बंद होने देंगे?
- एक तो खुद दवा उद्योग ऐसे नियंत्रण के सख्त खिलाफ जान पड़ता है और दूसरे बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां महंगे पेटेंटों का हवाला देकर दवाओं की कीमतों में अनाप-शनाप बढ़ोतरी भी करती रही हैं।
- ऐसे में सवाल उठता है कि उन मरीजों के इलाज का क्या होगा जो न तो किसी बीमारी में बेहद महंगी दवाएं खरीद सकते हैं और न ही उनके पास महंगे इलाज की भरपाई करने का कोई साधन होता है, जैसे कि मेडिकल इंश्योरेंस।
- दवा, उपकरण की कीमत और इलाज के खर्च में सैकड़ों-हजारों गुना इजाफे के पीछे अगर हम इस तथ्य पर निगाह डाल पाएं कि कैसे फार्मा लॉबी अमेरिका से लेकर हर छोटे-बड़े मुल्क के राजनीतिक सिस्टम में भारी पैसा झोंकती है, राजनेताओं को चुनाव खर्च मुहैया कराती है तो समझ में आ जाएगा कि कीमतों का यह सारा गोरखधंधा आखिर अब तक चलता क्यों आ रहा है।
- दवा कंपनियां और अस्पताल सारे खर्च की भरपाई आखिर आम मरीजों से ही करते हैं क्योंकि चोरीछिपे उन्हें ऐसा करने की छूट सरकारें ही देती हैं।