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क्यों यह मुद्दा
आजकल भारतीय मीडिया और सरकारी हलकों में एक समूह-गान चल रहा है कि भारतीय ऑनलाइन कंपनियों को उबर और अमेजन जैसी अमेरिकी कंपनियों से बचाने की जरूरत है। इन दिनों राष्ट्रवाद एक ऐसा जरिया बन गया है, जिसके सहारे आप किसी का भी ध्यान अपनी ओर खींच सकते हैं, लेकिन नई दिल्ली में बैठे नीति-नियंताओं ने दूरदर्शिता दिखाते हुए फिलहाल ऐसे किसी तर्क-वितर्क में उलझने से अपने को दूर रखा है। कम से कम अब तक का उनका रुख तो यही बताता है।
Ø पिछले कुछ महीनों से संरक्षण की चाहत में कुछ तथाकथित भारतीय कंपनियां एक लॉबी समूह बनाने की कोशिश में लगी हैं। फ्लिपकार्ट और एएनआई टेक्नोलॉजीज जैसी कंपनियां भी इनमें शामिल हैं।
Ø एक बहुराष्ट्रीय वेंचर कैपिटल फर्म के अधिकारी मुताबिक़ किस तरह एक शख्स को इस लॉबी समूह के नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी गई है। हालांकि उसके नाम या ऐसी किसी लॉबी समूह के बारे में कोई घोषणा सामने नहीं आई है। मगर फ्लिपकार्ट में निवेश करने वाली स्टीडव्यू कैपिटल के अधिकारी रवि मेहता बीते दिनों वेंचर कैपिटल व निजी इक्विटी फर्म, नीति-निर्धारकों व पत्रकारों के साथ मेल-मुलाकात करते दिखे हैं। इन बैठकों का उद्देश्य संरक्षणवाद के पक्ष में एक माहौल बनाना था।
विश्व में सरक्षणवाद
पहली नजर में संरक्षण के पक्ष में गढ़े जा रहे तमाम तर्क प्रेरित करने वाले हैं। मसलन, चीन ने अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियों को देश से बाहर का रास्ता दिखाया और अपना ऑनलाइन कारोबार खड़ा किया, भारत को भी ऐसा करना चाहिए। भारत में कारोबार करने वाली बहुराष्ट्रीय अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियां अपेक्षाकृत सस्ती कीमत पर अपनी सेवाएं दे रही हैं और ‘प्राइस वार’ के बहाने भारतीय कंपनियों को नुकसान पहुंचा रही हैं। कीमतों का यह अवमूल्यन वजूद की लड़ाई लड़ रहे देसी इनोवेशन को और ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है।
भारत में :
देखा जाए, तो अभी अमेरिकी ऑनलाइन कंपनियां और खासतौर से उबर व अमेजन ही निशाने पर हैं। अलीबाबा के अलावा भारत में किसी दूसरी चीनी ऑनलाइन कंपनी की सीधी मौजूदगी भी कहां है? वैसे अलीबाबा का भी फिलहाल कोई बड़ा कारोबार यहां नहीं दिखता। अलबत्ता एक अन्य चीनी ऑनलाइन कंपनी टेनसेंट होल्डिंग्स लिमिटेड ने हाल ही में फ्लिपकार्ट में निवेश किया है, और कुछ दिनों पहले जीजी शूझिंग ने अपनी पूंजी ओला में लगाई है।
बहरहाल, संरक्षणवाद के पक्ष में जो तमाम तर्क गढ़े जा रहे हैं, वे इसकी ‘परिभाषाओं’ के मानक पर खरे उतरते नहीं दिखते। इन परिभाषाओं की चर्चा करने से पहले इनसे जुड़ी कुछ दूसरी जानकारियां भी ले लीजिए। अमेजन अमेरिका में सूचीबद्ध कंपनी है (फ्लिपकार्ट की सबसे बड़ी निवेशक टाइगर ग्लोबल मैनेजमेंट की भी हिस्सेदारी अमेजन में है, हालांकि पिछले साल इसमें उल्लेखनीय रूप से कमी की गई है।) जबकि उबर एक क्लासिक स्टार्ट-अप जरूर है, मगर यह अब तक सूचीबद्ध नहीं है। वेंचर कैपिटल और कुछ खास पार्टनर (इसमें जिसकी पूंजी लगी है) इसे आर्थिक मजबूती देते हैं। इन पार्टनरों को निवेशक भी कह सकते हैं, क्योंकि वे वेंचर कैपिटल और निजी इक्विटी कंपनियों द्वारा जुटाई गई पूंजी में अपना योगदान देते हैं। मुमकिन है कि इनके पैसे ओला व फ्लिपकार्ट में भी लगे हों। उल्लेखनीय यह भी है कि ज्यादातर वेंचर कैपिटल विदेशों से पैसे जुटाती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि भारतीय और अमेरिकी, दोनों स्टार्ट-अप में निवेश के लिए पूंजी की लागत लगभग एक समान है।
दरअसल, भारतीय कानूनों में किसी कंपनी की ‘भारतीयता’ की बहुत स्पष्ट परिभाषा तय है। यह पूरे देश में लागू है, यहां तक कि भारतीय व भारतीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित व स्वामित्व (सर्वाधिक शेयर) वाली इकाइयों पर भी। फ्लिपकार्ट तो इस परिभाषा पर खरी नहीं उतरती, संभव है कि ओला इस मानक को पूरा कर रही हो। इतना ही नहीं, ये चारों कंपनियां- अमेजन, उबर, ओला और फ्लिपकार्ट भारत में संचालन सेवा देने के कारण भारतीयों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं, अमूमन भारतीय ग्राहकों को ही अपनी सेवा देती हैं और भारत के लघु कारोबारियों व उद्यमियों की मदद कर रही हैं। यहां उद्यमियों या कारोबारियों से आशय हर उस ड्राइवर से है, जिसकी अपनी कैब इसमें लगी है।
इसके साथ-साथ, सस्ती कीमतों पर सेवा देने को लेकर भी भारतीय कानून में स्पष्ट व्याख्या है। मगर यह मसला प्रतिस्पद्र्धा नीति के अंतर्गत आता है, जिसे ‘अब्यूज ऑफ डॉमिनेंस’ यानी प्रभुत्व का बेजा इस्तेमाल करना भी कहते हैं। इस प्रावधान के अनुसार, बाजार में शीर्ष कंपनी ही लागत की अपेक्षा सस्ती कीमतों पर सेवा देने व प्रतिस्पद्र्धा को नुकसान पहुंचाने के मामले में दोषी ठहराई जा सकती है। रिलायंस जियो इंफोकॉम की मूल्य नीति का मसला इसी वजह से भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग में नहीं टिक सका था। यह सही है कि इस कानून में बदलाव का वक्त आ गया है, लेकिन यह एक अलग मुद्दा है, जिस पर चर्चा फिर कभी। बहरहाल, आंकड़े यही गवाही देते हैं कि अमेजन के भारत आने के बहुत पहले फ्लिपकार्ट ने भी काफी ज्यादा छूट दे रही थी, और सभी चारों कंपनियां ‘प्राइस कार्ड’ खेलकर ही मौजूदा मुकाम तक पहुंच सकी हैं। ऐसे में, संरक्षणवाद की वकालत करने वालों का विलाप ठीक वैसा ही लगता है, जैसे स्कूल के मैदान में अपनी धौंस जमाने वाला कोई बच्चा वहां खुद से ज्यादा बलशाली को पाकर टीचर से मदद की गुहार लगाने लगे।
इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि हमारी हुकूमत को देसी इनोवेशन को प्रोत्साहित करने की दिशा में काम करना चाहिए। मगर यह प्रोत्साहन उन इनोवेशन्स को मिले, जो लघु उत्पाद व सेवा कंपनियों के रूप में काम कर रहे हैं; उन स्टार्ट अप को नहीं, जिनके पास पूंजी है और जो ऐसे आइडिया पर काम करते हैं, जो दूसरे बाजारों की सफल कंपनियों को देखकर (या यूं कहें कि चुराकर) तैयार किए गए हों। सच तो यह है कि अगर सरकार वाकई कुछ करना चाहती है, तो उसे उपभोक्ता के संरक्षण को लेकर काम करना चाहिए। उसे तमाम संबंधित कानूनों का पालन सुनिश्चित कराना चाहिए और यह भी कि सभी के लिए एक समान हालात या माहौल पैदा हो। फिर चाहे वह छोटी कंपनी हो या बड़ी, भारतीय हो या विदेशी। यदि ऐसा हो सका, तो यकीन मानिए, बाकी चीजें बाजार खुद-ब-खुद दुरुस्त कर लेगा।