वर्तमान में ‘लुक वेस्ट’ नीति बेहतर

- वर्ष 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को आखिरकार आर्थिक उदारीकरण लागू करना पड़ा था क्योंकि इससे पहले लगभग नगण्य रह गए विदेशी मुद्रा भंडार के परिप्रेक्ष्य में भारत को अपना राष्ट्रीय गौरव तजते हुए सोना गिरवी रखना पड़ा था। उदारीकरण के उपायों ने न सिर्फ देश की घरेलू आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करके रख दिया था बल्कि इन बदलावों ने पूर्व में स्थित हमारे पड़ोसियों की तेजी से तरक्की करती आर्थिकी से तालमेल बिठाने में भी सहायता की थी।

- लिहाजा यह तार्किक तौर पर सही बैठता था कि विदेश नीति के इस नये पहलू को ‘लुक ईस्ट’(पूर्वी देशों से संबंध बढ़ाओ) का नाम दिया जाए। इस दौरान पश्चिमी दिशा में स्थित पास-पड़ोस से हमारा ‘वही पुराना ढर्रा’ कायम रहा था। बस इसमें महत्वपूर्ण फर्क केवल यही था कि हमने इस्राइल के साथ अपने राजनयिक रिश्ते कायम किए थे।


- अब ‘लुक ईस्ट’ नीति अपनाने के पच्चीस साल बाद और कई देशों में नये तटीय गैस और तेल भंडारों की खोज होने के बाद पूरी दुनिया के भू-राजनीतिक समीकरणों में जो बदलाव आया है, उसके मद्देनजर भारत ने भी उपलब्ध सुअवसरों का लाभ उठाया है।

- केवल 5 साल पहले तक स्थिति यह थी कि तेल निर्यातक देशों के मुख्य संघ ‘ओपेक’ ने अपनी मनमर्जी और सुविधा के मुताबिक तेल का उत्पादन कम या ज्यादा करते हुए इसकी कीमतें बढ़ा-घटाकर पूरी दुनिया के देशों को अपना बंधक बना रखा था लेकिन उत्तरी और दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप के अलावा ऑस्ट्रेलिया और यहां तक कि पश्चिम एशिया के कुछ अन्य देशों में भी तेल और गैस के नये बड़े भंडार मिलने के बाद दुनिया भर में कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी आई थी।

- इस बदली हुई परिस्थिति ने बड़े तेल एवं गैस उपभोक्ता देशों जैसे कि जापान, चीन और भारत को यह मौका मुहैया करवा दिया कि वे अपनी बड़ी खपत के बूते आसपास स्थित तेल उत्पादक देशों से ज्यादा आकर्षक दरों पर मोलभाव कर सकें।

 

- भारत ने मिले मौकों का अच्छा इस्तेमाल करते हुए अपने साथ लगते अरब की खाड़ी के तेल उत्पादक पड़ोसी देशों के साथ सक्रिय संबंध स्थापित कर लिए हैं। इन देशों में 60 लाख से ज्यादा भारतीय कामगार कामधंधे कर रहे हैं और सालाना 50 बिलियन डॉलर से ज्यादा अर्जित की गई कमाई अपने घरों को भेजते हुए देश के विदेशी मुद्रा भंडार में खासा इजाफा करते हैं।

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां एक ओर बड़ी दक्षता से इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण मुल्कों जैसे कि सऊदी अरब, यूएई और कतर की सरकारों से साथ भारत के सामरिक हितों को स्थापित किया है वहीं ईरान के साथ भी ऊर्जा और संचार के क्षेत्र में सहयोग करने वाले संबंध कायम किए हैं, जो कि अफगानिस्तान और मध्य-एशिया में हमारे व्यापारिक और सामरिक हितों के लिए बहुत महत्व रखते हैं।


- भारत ने इस साल की शुरुआत यूएई के शेख खलीफा-बिन-ज़ाएद की मेहमाननवाजी करने के साथ की थी। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी भी यूएई, सऊदी अरब, ईरान और कतर की यात्रा पर गए थे। यूएई, जो कि भारत में निवेश करने वाले देशों में दसवां स्थान रखता है, ने इस मद में और ज्यादा इजाफा करने की घोषणा की है। सभी अरब देश संयुक्त रूप में हमारे सबसे बड़े व्यापारिक सहयोगी हैं, जो कि पूरी दुनिया में किए जाने वाले हमारे कुल निर्यात का 15 प्रतिशत हिस्सा है।

- तथापि जिस अन्य अरब देश से हमें अपने आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना बाकी है, वह है इराक, हालांकि वहां से भारत को होने वाले तेल का निर्यात तेजी से बढ़ता जा रहा है। वैसे तो ईरान पर लगे संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों के खत्म होने के बाद वहां से भी भारत को तेल का निर्यात होने लगा है लेकिन इराक अपनी अधिक तेल उत्पादन क्षमता के चलते हमारे देश में और ज्यादा बड़ा निवेशक बनने की संभावना रखता है, खासकर ऊर्जा के क्षेत्र में। हमें इराक से तेल खरीदने की एवज में उससे भारत में निवेश करने की शर्त रखनी चाहिए। खाड़ी के देशों से हमारा नौसैन्य सहयोग भी बढ़ता जा रहा है।


- जब बात आर्थिक निवेश की हो तो ईरान से इसे प्राप्त करना सदा ही विकट काम रहा है। फिलहाल हम अफगानिस्तान, रूस और मध्य एशियाई देशों को किए जाने वाले निर्यात के लिए ईरान के पश्चिम में स्थित बंदर-अब्बास नामक सुविधा का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन लगता है कि नये बनने वाले चाबहार बंदरगाह में हमारी सहभागिता की अंतिम शर्तों को तय करने में देरी होने वाली है। यह परियोजना भारत और अफगानिस्तान के लिए इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान की कोशिश यही रहती है कि वह अपने थलीय मार्गों से होकर अफगानिस्तान जाने वाले हमारे माल को किसी न किसी बहाने देरी करवाए ताकि अफगानिस्तान की निर्भरता उस पर ज्यादा-से-ज्यादा बनी रहे।
- जॉर्डन के शाह की प्रस्तावित भारत यात्रा से अरब देशों की राजशाहियों से हमारे और ज्यादा प्रगाढ़ संबंधों का मार्ग प्रशस्त होगा। इस्राइल और फिलीस्तीन के आपसी संबंधों से खुद को निष्पक्ष रखकर भी हमने समझदारी भरा काम किया है। फिलीस्तीनी प्रशासन के नेतृत्व से मिलने के लिए जॉर्डन के रास्ते भारतीय राजनयिक और नेतृत्व काम आएंगे। वैसे भी जॉर्डन का नेतृत्व भारत से अच्छे संबंध रखने में निजी तौर पर रुचि लेता आया है। भारत का यह फर्ज बनता है कि वह द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के मुद्दे के अपने आदर्शवादी रुख पर कायम रहे।


- इस्राइल हमेशा भारत का हितैषी और भरोसेमंद मित्र राष्ट्र रहा है और कारगिल युद्ध समेत अन्य लड़ाइयों में भी वह हमारे समर्थन में खड़ा रहा है। अतएव एक यहूदी राष्ट्र से संबंध रखने में हमें किसी तरह की शर्मिंदगी वाला भाव रखने की जरूरत नहीं है। वह भी ऐसे समय में जब हमारे अनेक मित्र अरब राष्ट्र इस्लामिक संसार में व्याप्त वर्गीय और जातीय तनावों के बावजूद खुद भी इस्राइल को एक उपयोगी मित्र राष्ट्र मानने लगे हैं।

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