- राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के दौरान होने वाली प्रधानमंत्री मोदी की आखिरी आधिकारिक यात्रा का सबसे अहम पक्ष यह है कि भारत ने अमेरिका के साथ रक्षा संबंध प्रगाढ़ बनाने की घोषणा इससे पहले कभी इतनी खुलकर नहीं की थी जितनी कि इस बार की है, इसमें अपवाद के रूप में केवल वह प्रसंग है जिसमें 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के दौरान हमारे देश ने अमेरिका से सैन्य मदद की गुहार लगाई थी।
- मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालने से काफी पहले गुट निरपेक्ष आंदोलन का युग बीत चुका है पर ऐसा पहली बार है कि भारत ने एकदम साफ कर दिया है कि वह अपने राष्ट्रीय और सामरिक हितों की रक्षा हेतु अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन करने का इच्छुक है।
- न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता मोदी की इच्छा-सूची में जरूर थी लेकिन प्रधानमंत्री का सबसे महत्वपूर्ण सांकेतिक उद्यम आर्लिंगटन कब्रिस्तान जाकर उन तमाम अमेरिकी सैनिकों को श्रद्धांजलि देना था जो अनेक लड़ाइयों में शहीद हुए थे।
- जब से चीन ने पाकिस्तान को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हुए इस इलाके में अपनी चौधर बनाने के लिए अपनी ज्यादा मुखर नीतियां लागू करनी शुरू की हैं, इसके मद्देनजर भारत को यह महसूस हुआ है कि अमेरिका पर निर्भर होने के अलावा उसके पास कोई और चारा नहीं है क्योंकि वह अब भी दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है जो चीन की बढ़ती शक्ति को संतुलित करने की ताब रखता है।
- जो एक बदलाव हमें देखने को मिला कि मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में अमेरिका के साथ हुए ऐतिहासिक एटमी-करार को सिरे चढ़ाने के लिए कांग्रेस प्रशासन की तारीफ की है। इस संधि का सबसे पहला सुखद फल यह था कि वेस्टिंगहाउस कंपनी को भारत भर में बनने वाले परमाणु संयंत्रों का काम दिया गया है, हालांकि इसमें कुछ अधूरे रह गए सिरों को जोड़ने में साल भर का समय लग जाएगा।
- अमेरिका के साथ एक-दूजे के सैन्य अड्डों का इस्तेमाल करने की इजाजत देने वाली संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद जाहिर है कि भारत को यह उम्मीद होगी कि उसे दोहरे इस्तेमाल किए जा सकने वाले सैन्य उपकरण और नवीनतम तकनीक वाले हथियार अमेरिका से मिल पाएंगे और जिन्हें मोदी के मेक इन इंडिया' सिद्धांत के अनुसार देश में ही बनाया जा सकता है।
- अमेरिकी प्रशासन ने भी पिछली कांग्रेस-नीत सरकार की हिचक के उलट प्रधानमंत्री द्वारा अमेरिका के साथ नए रिश्तों की प्रकृति को खुलेआम स्वीकार करने का सबसे ज्यादा स्वागत किया है।
प्रधानमंत्री की इस यात्रा के उद्देश्यों में एक वहां के व्यापारिक तबके को भारत में निवेश करने लिए लुभाना भी था, हालांकि उन्होंने श्रम और भूमि सुधार मामलों में खींची गई लाल लकीर से समझौता करने का कोई इरादा नहीं जताया।
- मोदी ने उन्हें यह कहकर प्रेरित करने का यत्न किया कि जहां चीन की आर्थिक वृद्धि दर एक जगह पर आकर थम गई है वहीं भारत दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है, इसलिए पैसा लगाने के लिए हमारा देश ही सबसे ज्यादा मुफीद है
- व्यापार करने के लिए और ज्यादा आसान माहौल बनाने का सिलसिला जारी रखने और अन्य सुधार लाने का वादा भी किया।
- अमेरिकी संसद में दिए गए अपने भाषण में मोदी ने भारत और अमेरिका के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था की सांझ का गुणगान करने के अलावा भारत की आर्थिक प्रगति का जिक्र भी किया।
- इसके अतिरिक्त भारत के पड़ोस में पल रहे आतंकवाद के दुर्दांत जिन्न से निपटने पर जोर देने की बात भी कही (यहां अपरोक्ष रूप से उन्होंने पाकिस्तान की आलोचना की है)।
भारत-अमेरिकी रिश्तों का भविष्य वहां के भावी राष्ट्रपति के रुख पर निर्भर करेगा। अमेरिका में फिलहाल जिस माहौल में राष्ट्रपति चुनाव की प्रकिया चल रही है, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन, दोनों ही पार्टियों के सांसद भारत के साथ अच्छे संबंध रखने के इच्छुक हैं।
अमेरिका से नजदीकी के बाद प्रधानमंत्री को इसके प्रतिकर्म में होने वाले नतीजों से निपटने का इंतजाम भी करना होगा। अलबत्ता चीन-भारत संबंधों में ज्यादा बदलाव नहीं आने वाले क्योंकि चीन अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार तय की गई स्वार्थपूर्ण विदेश नीति का अनुसरण करता है। सीमा पर अकसर होने वाले विवादों के बावजूद चीन भारत का एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार है।