अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या
- राष्ट्रीय अदालत प्रबंधन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बीते तीन दशकों में मुकदमों की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। अगर यही स्थिति बनी रही तो अगले तीस वर्षों में देश के विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब पंद्रह करोड़ तक पहुंच जाएगी।
- रिपोर्ट के अनुसार देश में 2015 तक देश के विभिन्न अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित थे। इनमें सर्वोच्च न्यायालय में 66,713 उच्च न्यायालयों में 49,57,833 और निचली अदालतों में 2,75,84,617 मुकदमे 2015 तक लंबित थे।
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की तुलना में निचली और जिला अदालतों की हालत ज्यादा खराब है।
निचली और जिला अदालतों की हालत
यहां न तो पक्षकार सुरक्षित हैं और न ही उनके मुकदमों से जुड़े दस्तावेज। जाली दस्तावेज और गवाहों के आधार पर किस तरह यहां मुकदमे दायर होते हैं यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है। ज्यादातर दीवानी मामलों में जमीनों का गलत लगान निर्धारण, दखल-कब्जा घोषित आदि कई ऐसे प्रसंग हैं, जो न केवल विवाद को बढ़ावा देते हैं, बल्कि उसकी परिणति में सामूहिक हत्याएं भी होती हैं |
लंबित मुकदमो का मूल कारण
- मुकदमों के अंबार लगने की पीछे बड़ी वजह है धीमी सुनवाई। स्थिति यह है दीवानी का मामला हो या फौजदारी का, मुंसिफ कोर्ट में मुकदमे पच्चीस-तीस साल तक चलते रहते हैं।
- जिस मात्रा में मुकदमे दायर होते हैं, उस अनुपात में निपटारा नहीं होता। जिला स्तर पर अधिवक्ताओं की हीला-हवाली और आए दिन हड़तालों की वजह से भी मामले लटके रहते हैं।
- जजों की कमी “:एक तो वैसे ही जजों की संख्या कम है, उनमें भी पैंतालीस फीसद पर रिक्त है। ऐसे में बाकी जजों पर सुनवाई का भार बहुत ज्यादा है।
- मुकदमों के लंबित रहने की एक वजह निचली अदालतों की कार्य संस्कृति भी है। वकील बगैर किसी ठोस आधार पर अदालत में तारीख आगे बढ़ाने की अर्जी दाखिल कर देते हैं और वह आसानी से मंजूर भी हो जाती है।
न्याय में देरी मतलब न्याय से वंचित
- जीतनेवाला इतने विलंब से न्याय पाता है, वह अन्याय के बराबर ही होता है।
- अपराध से ज्यादा सजा लोग फैसला आने के पहले ही काट लेते हैं। यह सब केवल इसलिए होता है कि मुकदमों की सुनवाई और फैसले की गति बहुत धीमी है।
- वर्षों तक मुकदमे फैसले के इंतजार में पीड़ितों का न सिर्फ समय और पैसा बर्बाद होता है, बल्कि सबूत भी धुंधले पड़ जाते हैं।
क्या इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों जिम्मेदार
अधिवक्ता शाहिद अली न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी होने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को जिम्मेदार मानते हैं। उनके मुताबिक सरकार न्यायपालिका के लिए पर्याप्त बजट आबंटित नहीं करती। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की भारी कमी है। अदालतों में जजों के ऊपर मुकदमों का बोझ लगातार बढ़ रहा है।
अमूमन सांसदों, विधायकों और मंत्रियों के वेतन और भत्ते बढ़ाने को लेकर सरकार और विपक्ष एक हो जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका में बजट वृद्धि के सवाल पर दोनों खामोश रहते हैं।
क्या फास्ट ट्रैक कोर्ट इसका हल
जल्दबाजी में फैसलों में कमी रह जाती है। जजों को उनके द्वारा पारित आदेश के प्रति उत्तरदायी बनाना चाहिए क्योंकि कई मुकदमों में पक्षकार को न्याय नहीं मिल पाता।
समय की जरूरत क्या है
- कठोर नियम बनाने होंगे।
- सुनवाई की तारीखों का अधिकतम अंतराल तय होना चाहिए।
- जब तक विशेष जरूरी न हो वकीलों को अगली सुनवाई की तारीख नहीं मांगनी चाहिए।
- अगर कोई मुकदमा नियत समय में फैसले तक नहीं पहुंचता है तो उसे त्वरित सुनवाई की प्रक्रिया में शामिल करने की मुकम्मल व्यवस्था होनी चाहिए।
- कुछ जानकारों का मानना है कि जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ानी चाहिए, इससे मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी। इजराइल, कनाडा, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की सेवानिवृत्ति की आयु 68 से 75 साल के बीच है, जबकि अमेरिका में इसके लिए कोई आयु सीमा तय नहीं है।
- बगैर किसी देरी के न्यायालयों में सभी रिक्त पदों पर नियुक्तियां हों।
- जिन राज्यों में मुकदमों का बोझ अधिक है, वहां विशेष अदालतें गठित करना
- उच्च न्यायालय का विकेंद्रीकरण यानी सभी राज्यों में इसके खंडपीठ का गठन किया जाए ताकि मुकदमों के निस्तारण में तेजी आए।
- छुट्टियों के समय भी न्यायालय में मामलों की सुनवाई हो ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
- उच्च न्यायालयों के खंडपीठ की तर्ज पर सर्वोच्च न्यायालय का खंडपीठ भी स्थापित होना चाहिए। इससे न सिर्फ लंबित मुकदमों के निस्तारण में तेजी आएगी बल्कि यह पक्षकारों के लिए भी फायदेमंद साबित होगा।
Source:Jansatta