आरक्षण : विरोध और समर्थन

- राष्ट्र-राज्य का समग्र विकास तभी संभव होता है जब वहां सामाजिक समरसता कायम हो। यह तभी कायम होती है जब वंचित तबकों को अगड़ों के बराबर लाने के लिए उन्हें कुछ अतिरिक्त सुविधाएं-सहूलियतें दी जाती हैं।

- आजादी के बाद सबसे पहले हमने अपनी इसी सामाजिक असंतुलन को पाटने की पहल की। हमारे कर्णधारों को पता था कि जब तक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक असंतुलन दूर नहीं होगा, तमाम तरह के विरोधाभास दूर नहीं होंगे। सामाजिक अंतर्विरोध बढ़ेंगे। उस परिस्थिति में देशवासियों की ऊर्जा सृजन में कम विध्वंस में ज्यादा लगेगी। अगड़ों-पिछड़ों के बीच की खाई चौड़ी होगी। लिहाजा पिछड़ों को समाज में हर स्तर से बराबर की हैसियत देने के लिए आरक्षण जैसी व्यवस्था का सृजन हुआ। इसके कुछ मानक तय किए गए। मानकों को बारंबार नए तरीके से परिभाषित किया जाता रहा।

- इन सबके बीच कभी भी किसी सरकार या संस्था ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर दशकों तक आरक्षण का लाभ ले रही जातियों के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर में कितना सुधार आया। क्या वर्षों से दिए जा रहे आरक्षण और इस पूरी प्रणाली की समीक्षा नहीं की जानी चाहिए? जिनकी हैसियत आरक्षण से समाज के अगड़ों लायक हो गई हो उन्हें इसके लाभ से वंचित किया जाना चाहिए।

- संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर भी तो यही चाहते थे कि दस साल पर आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा हो। समीक्षा के बिना इस व्यवस्था के अंधानुकरण से कई सामाजिक-व्यवस्थागत विकृतियां बोनस में पैदा हो गई हैं। कभी पिछड़ों को आगे लाने वाला आरक्षण नामक औजार अब एक बड़ा राजनीतिक अस्त्र बन गया है।

- वोट बैंक की राजनीति करने वाले सभी राजनीतिक दल इससे अपने हित साधते रहे हैं। लिहाजा बीच-बीच में अन्य कई जातियों ने आरक्षण मिल रही जातियों में खुद को शुमार करने की दलीलें दीं। आर्थिक आधार पर आरक्षण की आवाजें भी उठीं।

- यह सारी कवायद लगातार जारी है लेकिन इसका मूल मकसद तो कब का पीछे छूट गया है। जातीय आधार पर आरक्षण से वास्तविक पिछड़ों को उनका वाजिब हक ही नहीं मिल पा रहा है। जरूरतमंद उपेक्षित हैं कुछ ही लोग इसकी मलाई काट रहे हैं।

- आज जरूरत केवल इस व्यवस्था की समीक्षा की ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के नए आयाम स्थापित करने की है। देश की जरूरत के मुताबिक रोजगार और अन्य मौके सृजित किए गए होते तो क्या कोई आरक्षण की मांग-वकालत करता।

- अब तक किसी भी सरकार ने इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया, केवल राजनीति की। ऐसे में आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा और उसके आयामों की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।

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