बोल कि लब अाजाद हैं तेरे

**Right to Expresaion**
 

- जॉर्ज ओरवेल के उपन्यास ‘1984’ में कल्पना की गई थी कि सर्वत्र सरकारी सर्विलांस के चलते हमेशा हर व्यक्ति को निगरानी के संकट से गुजरना होगा। अब ओरवेल का वह दु:स्वप्न साकार रूप ले चुका है। कुछ सप्ताह पहले ही सैमसंग ने चेताया है कि स्मार्ट टीवी सेट के सामने की बातों को सुना जा सकता है।

- मतलब अब इस तरह की तकनीक विकसित हो चुकी है। विसंगति यह है कि जिस सूचना क्रांति को स्वतंत्र शक्ति का वाहक माना गया था, वह खुद ही उत्पीड़न का माध्यम बन गई है।

- म्यांमार में बुद्ध को हेडफोन पहने हुए दिखाने पर सरकार ऐसे लोगों को जेल में डाल देती है। संयुक्त अरब अमीरात में श्रम अधिकारों की बात करने वाले अमेरिकी प्रोफेसर के खिलाफ मामला चलाया जाता है। मेक्सिको में राष्ट्रपति से संबंधित आलोचनात्मक लेख लिखने वाले चर्चित पत्रकार को नौकरी से हाथ धोना पड़ता हैl

- लेकिन सवाल उठता है कि क्या भारत इनसे अलग है? सरकार के प्रति विश्वास में भी कमी हो रही है। 
- इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने फिर हम लोगों को एक बार फिर गर्व से भर दिया है। एक ओर संप्रग सरकार सूचना प्रौद्योगिकी एक्ट की धारा 66ए लाती है, वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट उसे रद करता है। यह दोनों बातें भारतीय लोकतंत्र की कमजोरियों और ताकतों को दिखाने के लिए सटीक उदाहरण हैं।

- यह बताता है कि कैसे सरकार कोई ऐसा कानून बनाने में सक्षम है जो लोकतंत्र के लिए खतरा बनते हुए हमारी स्वतंत्रता छीन ले। लेकिन साथ ही यह भी पता चलता है कि इस तरह के खतरों को समाप्त करने के लिए हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं पर्याप्त रूप से सक्षम और मुस्तैद हैं।

- राजनीतिक वर्ग लोगों के प्रति संदेह रखता है और इस मामले में अपना अधिकार बनाए रखना चाहता है कि क्या हमारे लिए अच्छा है? हमको क्या देखना और करना चाहिए? इसकी बानगी 2008 में उस वक्त देखने को मिली जब इस धारा को पास करने के लिए सभी पार्टी राजी थीं। जब हमारी निजी स्वतंत्रता के पर कतरने की बात आई तो अद्भुत एकता देखी गई।
- असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा देखिए कि संसद में इस पर कोई बहस ही नहीं हुई। महज 21 मिनट में ही इसको पास कर दिया गया। हर पार्टी ने इस धारा का इस्तेमाल किया। कुछ लोगों ने असहज सवालों से अपने परिवार की प्रतिष्ठा सुरक्षित रखने के लिए इसका उपयोग किया। यहां तक कि भारतीय दंड संहिता और दंड आचार संहिता में भी लगभग ऐसे प्रावधान होने के बावजूद धारा 66ए को पास कर दिया गया।

- इस आधार पर इसे तर्कसंगत ठहराया था कि इंटरनेट पर लोगों, धर्म, समूहों इत्यादि पर द्वेषपूर्ण अभियान चलाया जा सकता है और देश के पास साइबर क्राइम से लड़ने के लिए कोई पर्याप्त कानून नहीं हैं। आइटी एक्ट की धारा 66ए सत्ताधीशों के लिए आलोचकों को पकड़ने और उनको यातना देने का बेहतर जरिया बन गया। गिरफ्तारी के इस तरह के कई मामले हैं। हमें यहां कोई गलती नहीं करनी चाहिए।

- 1951 में नेहरू ने संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की आजादी से संबंधित) में संशोधन के पक्ष में थे। कानून मंत्री बाबा साहब अंबेडकर ने तर्कसंगत प्रतिबंधजोड़ने का सुझाव दिया था। अंतिम रूप से तर्कसंगत को परिभाषित करने का काम न्यायपालिका पर छोड़ दिया गया। राजनीति में दोहरे मानदंडों का नमूना इस रूप में देखिए कि इस धारा को शामिल करने में अहम भूमिका निभाने वाले कपिल सिब्बल अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत कर रहे हैं।

भीखू पारेख के शब्दों में हमारे राजनीतिक वर्ग ने भारत को ज्यूडिशिरी लोकतंत्रमें तब्दील कर दिया है। ब्रिटिश उपनिवेश ने भारतीयों को भूरे इंग्लिशमैन में तब्दील कर दिया। यह वर्ग नैतिक रूप से भारतीयों की पहचान और अस्मिता को नष्ट कर रहा है। राज्य अब सरकार के अधीन हो गया है जबकि वास्तव में इसके विपरीत होना चाहिए था।

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