- केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्री ने सदन में मातृत्व लाभ संशोधन विधेयक, 2016 पेश किया जिसे सदन ने बहुमत से पारित कर दिया
- 1961 के मूल कानून की जगह संशोधित विधेयक में संगठित क्षेत्र की महिला कामगारों के लिए मातृत्व अवकाश की अवधि बढ़ाने के साथ-साथ कई नए प्रावधान शामिल किए गए हैं.
- इसके तहत बच्चे को कानूनन गोद लेने वाली महिलाओं के साथ-साथ सरोगेसी यानी उधार की कोख के जरिये संतान सुख पाने वाली महिलाओं को भी कानून के दायरे में लाया गया है
- इस विधेयक का उद्देश्य मां और बच्चों को बेहतर देखभाल की सुविधा मुहैया कराना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला नेतृत्व के विकास की दिशा में इस विधेयक को मील का पत्थर बताया है.
मातृत्व लाभ कानून, 1961 में संशोधन की जरूरत क्यों ?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अलावा स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े कई संगठनों का मानना है कि मां और बच्चे के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए कामकाजी महिलाओं को 24 हफ्ते का मातृत्व अवकाश देना जरूरी है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक बच्चों की उत्तरजीविता (सरवाइवल) दर में सुधार के लिए 24 हफ्ते तक उन्हें सिर्फ स्तनपान कराना जरुरी होता है. संगठन का यह भी मानना है कि पर्याप्त मातृत्व अवकाश और आय की सुरक्षा न होने की वजह से महिलाओं के करिअर पर बुरा असर पड़ता है. इसके अलावा 2015 में विधि आयोग ने मूल कानून में संशोधन करके मातृत्व अवकाश की अवधि को बढ़ाकर 24 हफ्ते करने का भी सुझाव दिया था. साथ ही, बदलते समय के साथ सरोगेसी के जरिए बच्चे पैदा करने और बच्चे गोद लेने के मामलों में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है, इसलिए ऐसी महिलाओं को भी इस कानून के दायरे में लाने के लिए यह संशोधन किया गया है.
मातृत्व लाभ संशोधन विधेयक, 2016 में क्या-क्या प्रावधान
- प्रतिष्ठानों में कामगार महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश की अवधि 12 से बढ़ाकर 26 हफ्ते कर दी गई है.
- विधेयक में अवकाश का लाभ प्रसव की संभावित तारीख से आठ हफ्ते पहले लिया जा सकता है. 1961 के मूल कानून में यह अवधि छह हफ्ते की थी.
- अगर महिला के दो से अधिक बच्चे हैं तो उसे केवल 12 हफ्ते का ही अवकाश मिलेगा. इसका लाभ प्रसव की संभावित तारीख से छह हफ्ते पहले ही उठाया जा सकता है. मूल कानून में बच्चों की संख्या तय नहीं की गई थी.
- महिलाओं को जिन्होंने तीन महीने से कम उम्र के बच्चे को कानूनन गोद लिया है, 12 हफ्ते का अवकाश दिया जाएगा.
- सरोगेसी के जरिये संतान सुख पाने वाली महिला को भी इतने ही हफ्ते का लाभ दिया जाएगा. यह अवधि उस तारीख से मानी जाएगी जब बच्चे को गोद लिया गया हो या सरोगेसी के जरिये संतान पाने वाली महिला को बच्चा सौंपा गया हो.
- संशोधित विधेयक में 50 या इससे अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों से क्रेच की सुविधा मुहैया कराने को कहा गया है. साथ ही, उन्हें महिलाओं को दिन में चार बार क्रेच जाने की सुविधा देने को भी कहा गया है.
- नए विधेयक में काम की प्रकृति इजाजत दे तो महिलाओं को घर से काम करने की भी सुविधा देने की बात कही गई है.
- इसके अलावा प्रतिष्ठानों से कहा गया है कि वे महिला कर्मचारी को नियुक्ति के समय मातृत्व लाभ के बारे में जानकारी लिखित और ई-मेल (इलेक्ट्रॉनिक माध्यम) के रूप में उपलब्ध कराएं.
Some negatives
- नए विधेयक में कामकाजी महिलाओं की सुविधाओं के लिए कई प्रावधान शामिल करने और सुविधाओं के दायरे को बढ़ाने के बावजूद कई सवाल उठ रहे हैं. इसमें सबसे बड़ी आपत्ति 1961 के मूल कानून की तरह ही असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को इस कानून के दायरे में शामिल नहीं करने को लेकर है. ऐसी कामगारों की संख्या कुल महिला कर्मचारियों के करीब 90 फीसदी तक है. 2015 में विधि आयोग ने असंगठित क्षेत्र को भी इस कानून के दायरे में लाने का सुझाव दिया था. हालांकि, ऐसी महिलाएं इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना के तहत वित्तीय लाभ का दावा कर सकती हैं. इस योजना के तहत किसी गर्भवती महिला को दो बच्चों के लिए 6,000-6,000 रुपये दिए जाते हैं. लेकिन जानकारों के मुताबिक यह योजना मातृत्व लाभ कानून का विकल्प नहीं हो सकती क्योंकि यह वेतन के नुकसान या रोजगार सुरक्षा जैसी समस्याओं का सामाधान नहीं कर पाती. इसके अलावा ऐसी महिलाओं को अपने और बच्चे के स्वास्थ्य संबंधी कारणों के चलते अवकाश लेने में मुश्किलें हो सकती हैं.
- संशोधित विधेयक में इस कानून का लाभ लेने के लिए बच्चों की संख्या तय कर दी गई है. मूल कानून में यह प्रावधान नहीं था. यानी की दो बच्चों के बाद पैदा होने वाले बच्चों के समय पुराने कानून के तहत केवल 12 हफ्ते की छुट्टी ही मिल पाएगी. कई जानकार इस पर सवाल उठा रहे हैं कि ऐसी स्थिति में डब्ल्यूएचओ की सिफारिशों का क्या होगा जो बच्चों के लिए 24 हफ्ते तक स्तनपान को बेहद जरुरी मानता है. तीसरे या इसके बाद के बच्चे के लिए महिलाओं को इस बुनियादी मातृत्व सुविधा से वंचित करना कहां तक सही होगा?
- 1961 के मातृत्व लाभ अधिनियम के अतिरिक्त भी कई ऐसे कानून हैं जिनके तहत महिला कामगारों को कई तरह के लाभ दिए जाते हैं. इन कानूनों के प्रावधान अलग-अलग हैं. 2002 में दूसरे श्रम आयोग ने सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मातृत्व लाभ सहित विभिन्न श्रम कानूनों में एकरूपता लाने का सुझाव दिया था. इन कानूनों में कर्मचारी राज्य बीमा कानून (1948), अखिल भारतीय सेवा अवकाश नियम (1955), केंद्रीय सिविल सेवा अवकाश नियम (1972), फैक्ट्री कानून (1948), श्रमजीवी पत्रकार और विविध प्रावधान नियम, 1957, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक कानून (1966) और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा एक्ट (2008) शामिल हैं. संशोधित विधेयक में भी सरकार ने श्रम आयोग की सिफारिशों की अनदेखी की है.
नए विधेयक में महिलाओं के लिए फायदे के साथ-साथ कई नुकसान भी हैं
- प्रस्तावित विधेयक के तहत अवकाश की अवधि बढ़ाने से महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों में कमी आ सकती है.
- विधेयक में कहा गया है कि अवकाश के दौरान नियोक्ता लाभार्थी महिला को पूरा वेतन देगा. कोई भी निजी कारोबारी संस्थान फायदा हासिल करने और कर्मचारी को इसके लिए तैयार करने पर पैसे और समय खर्च करता है. ऐसी स्थिति में गर्भवती महिला कामगारों को 26 हफ्ते की छुट्टी के साथ वेतन देना उनके लिए दोहरे घाटे का सौदा साबित हो सकता है और इसलिए संभव है कि वे नौकरी में महिला की जगह पुरूषों को वरीयता दें. साथ ही, इसका असर उन नियोक्ताओं पर पड़ना तय है जिनमें महिलाओं कामगारों की बड़ी संख्या है.