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कई सालों ने न्यायपालिका में न्यायाधीशों के रिक्त स्थानों और अदालतों में लंबित मुकदमों का मामला लगातार चर्चा में बना है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तो उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति भी अब कोई नया मुद्दा नहीं रह गया
Biggest litigator?
कानून मंत्रालय द्वारा कराये गये एक अध्ययन के अनुसार यदि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से संबंधित अनावश्यक मुकदमों को अदालत से बाहर ले लिया जाये तो अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या में करीब 46 फीसदी तक की कमी हो सकती है। अब इन मुकदमों की छानबीन करके केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को ही यह निर्णय लेना होगा कि इनमें कौन से विवाद ऐसे हैं, जिन्हें अदालत के बाहर वैकल्पिक उपायों के माध्यम से सुलझाया जा सकता है। ऐसे अनेक मुकदमे हैं, जिनमें केन्द्र सरकार के साथ ही दो या इससे अधिक राज्य सरकारें ही वादी और प्रतिवादी की भूमिका में हैं। इनमें ऐसे भी कई मुकदमे हैं, जिन्हें परस्पर विचार विमर्श करके सुलझाया जा सकता है लेकिन राजनीतिक बाध्यताओं के मद्देनजर शायद ऐसा करने का साहस राज्य नहीं कर पाते। इसमें राज्यों के बीच जल बंटवारे या फिर सीमा को लेकर चल रहे विवाद प्रमुख हैं।
Ministry wise cases”
- सबसे दिलचस्प तथ्य तो यह है कि अदालतों की शरण में जाने वाले मंत्रालयों में सबसे आगे रेलवे है, जिसके 67 हजार से अधिक मुकदमे लंबित हैं जबकि वित्त मंत्रालय से संबंधित विभागों के 15464 मुकदमे लंबित हैं।
- इसी तरह, संचार मंत्रालय के 12621, गृह मंत्रालय के 11600, रक्षा मंत्रालय के 3433, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के 3275, शहरी विकास मंत्रालय के 2306 और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के 1714 मुकदमे अदालतों में लंबित हैं।
- इनमें से अनेक मुकदमे तो कई सालों से चले आ रहे हैं। अकेले रेलवे में ही दस हजार से अधिक मुकदमे दस साल से अधिक समय से लंबित हैं। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय से संबंधित मुकदमों की संख्या सबसे अधिक होने की अटकलें लगायी जाती हैं लेकिन इस मंत्रालय से संबंधित सिर्फ 1430 प्रकरण ही अदालतों में लंबित हैं जबकि श्रम और रोजगार मंत्रालय से संबंधित मुकदमों की संख्या 1774 है।
- कानून मंत्रालय ने अदालतों में लंबित केन्द्र सरकार से संबंधित मुकदमों का विश्लेषण कराया तो पता चला कि उसके 55 मंत्रालयों में से कम से कम दस मंत्रालयों से संबंधित मुकदमे सबसे अधिक हैं।
Nature of cases:
इनमें नौकरी से संबंधित तबादला, पदोन्नति और ऐसे ही दूसरे मुद्दों से जुड़े मुकदमों के अलावा दो सरकारी विभागों और दो सार्वजनिक उपक्रमों के बीच विवाद भी शामिल हैं। शायद ऐसे विवादों को अदालत तक पहुंचने से पहले संबंधित विभागों के वरिष्ठ अधिकारी आपस में विचार विमर्श करके सुलझा सकते हैं लेकिन फिर सवाल वही है कि फैसला कौन ले।
बेहतर होता यदि कानून मंत्रालय ने यह अध्ययन और विश्लेषण भी कराया होता कि इन मुकदमों पर कितना धन खर्च हुआ और क्या ऐसे विवादों को अदालत तक पहुंचने से रोकने के प्रयास किये गये थे? शायद नौकरशाही भी नहीं चाहती कि किसी विवाद का निर्णय लेकर भविष्य में राजनीतिक वजहों से परेशानी में पड़ा जाये। प्राप्त जानकारी के अनुसार अदालतों में लंबित तीन करोड़ से अधिक मुकदमों में से उच्चतम न्यायालय में 60,750 मुकदमे लंबित हैं जबकि देश के 24 उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या करीब 40 लाख है। शेष मुकदमे निचली अदालतों में लंबित हैं।
केन्द्र सरकार ने ऐसे सभी विवादों को अपने विभाग के पोर्टल पर अपलोड करने का निर्देश देने के साथ ही इन मंत्रालयों में संयुक्त सचिव स्तर का एक नोडल अधिकारी नियुक्त किया है ताकि इनके समाधान के लिये वैकल्पिक तरीके अपनाने के लिये विभागों में समन्वय स्थापित किया जा सके। इन अधिकारियों को यह भी निर्देश है कि व्यर्थ के मुकदमों को तत्काल वापस लेने की प्रक्रिया शुरू की जाये।
कानून मंत्रालय के इस अध्ययन के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि केन्द्र सरकार अदालतों में लंबित उससे संबंधित अनावश्यक मुकदमों को वापस लेने की दिशा में अधिक तेजी से प्रयास करेगी और राज्य सरकारों को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिये प्रेरित करेगी।