मानव इतिहास की नजर से देखें तो दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या इंसानी आबादी से ज्यादा हो चुकी है। आबादीबहुल देशों भारत और चीन में मोबाइल और स्मार्टफोन ने क्रांति पैदा कर दी है। सिर्फ इस्तेमाल करने वालों की संख्या के रूप में ही नहीं, बल्कि इन्हें बनाने व बेचने के मामले में भी यहां नए से नए कीर्तिमान बन रहे हैं। इंडियन सेल्युलर एसोसिएशन (आइसीए) के मुताबिक भारत में अब चीन के बाद सबसे ज्यादा मोबाइल हैंडसेट बन रहे हैं। अभी तक वियतनाम दुनिया में मोबाइल हैंडसेट बनाने के मामले में दूसरे नंबर पर था, लेकिन भारतीय कंपनियों ने अब उसे पीछे छोड़ दिया है। अंदाजा है कि अगले साल तक भारत में मोबाइल फोन का सालाना उत्पादन पचास करोड़ यूनिट तक पहुंच जाएगा। मोबाइल क्रांति का यह एक पहलू है। पर जो दूसरा पहलू है, वह चिंताजनक है। यह पहलू मोबाइल हैंडसेट पुराने होने या चलन-इस्तेमाल से बाहर होने पर उन्हें कबाड़ में फेंके जाने से जुड़ा है। यानी अभी मोबाइल फोन की हमें जो सुविधा मिली है, वह आगे चलकर ई-कबाड़ के रूप में एक बड़ी समस्या की तरह सामने आने वाली है।
Problem of E-waste world over
दुनिया में फिलहाल चीन और भारत ही दो ऐसे देश हैं जहां एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुड़े हैं। देश में मोबाइल फोन उद्योग को अपने पहले दस लाख ग्राहक जुटाने में करीब पांच साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल फोनों की संख्या दो साल पहले ही धरती पर इंसानी आबादी के आंकड़े यानी सात अरब को भी पीछे छोड़ चुकी है। यह आंकड़ा इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन (आइटीयू) का है। ये आंकड़े एक तरफ यह आश्वस्ति जगाते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिंदगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रॉनिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रॉनिक कचरे का। आइटीयू के मुताबिक भारत, रूस, ब्राजील सहित करीब दस देश ऐसे हैं जहां स्थानीय मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है। रूस में पच्चीस करोड़ से ज्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी से डेढ़ गुना से भी ज्यादा हैं। ब्राजील में चौबीस करोड़ मोबाइल हैं जो आबादी से 1.2 गुना ज्यादा हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां आधी से ज्यादा आबादी के पास मोबाइल फोन हैं। भारत जैसे देश की विशाल आबादी और फिर बाजार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता। पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे अनजाने मोड़ पर ले आई है जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है। हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है। जैसे वर्ष 2013 में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आइटीईआर) द्वारा ‘ई-कचरे के प्रबंधन और उसके निपटान’ विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल आठ लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के पैंसठ शहरों का योगदान है। पर सबसे ज्यादा ई-कचरा देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है।
निस्संदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है। कंप्यूटर और मोबाइल फोन जैसी चीजों ने हमारा कामकाज काफी सुविधाजनक बना दिया है। इसकी सूची काफी लंबी है कि फैक्स मशीन, फोटो कॉपी, डिजिटल कैमरे, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने व गैजेट, एअर कंडीशनर, माइक्रोवेव कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों ने कैसे हमें घेर लिया है। लेकिन इन सारी चीजों का इस्तेमाल करते वक्त इनसे पैदा होने वाले खतरों को लेकर एक दुविधा भी कायम है। वह यह है कि आधुनिक विज्ञान की देन पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पिंड छुड़ाएगा, तो ई-कबाड़ की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा? यह चिंता भारत और चीन जैसे तीसरी दुनिया के मुल्कों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि कबाड़ में बदलती ये चीजें ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रही हैं। जाहिर है, हमारे लिए चुनौती दोहरी है। पहले तो हमें देश के भीतर ही पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे के उस सतत प्रवाह से निपटना है। अगर हम इस तरह के विषैले इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ की विश्वव्यापी समस्या की तरफ एक नजर तो दौड़ाएं तो पता चलेगा कि क्यों हमें ऐसे व्यापार से मिलने वाली पूंजी से मुंह फेरना चाहिए और क्यों हमें अपनी संचार क्रांति और दूसरे आधुनिक विकास की बाबत कुछ देर रुक कर सोचना चाहिए। ई-कबाड़ पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुल कर नष्ट नहीं होते हैं। सिर्फ एक मोबाइल फोन की बैटरी अपने बूते छह लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके अलावा एक पर्सनल कंप्यूटर में 3.8 पौंड घातक सीसा और फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्त्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं। कंप्यूटरों के स्क्रीन के रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह है।
Problem: Not adopting RRR model
समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है कि हम सिर्फ अपने देश के ई-कबाड़ से काम की चीजें निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। जिस ई-कबाड़ के पुनर्चक्रण पर यूरोप में बीस डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत और चीन जैसे मुल्कों में महज चार डॉलर में हो जाता है। भारत, बांग्लादेश, वियतनाम और चीन आदि देश पुराने जहाजों से लेकर खराब हो चुके कंप्यूटरों, मोबाइल फोनों, लैपटॉप कंप्यूटर, बैटरियों, कंडेंसर, कैपेसिटर, माइक्रो चिप्स, सीडी, फैक्स व फोटोस्टेट मशीनों का कबाड़ अपने यहां मंगाते हैं। ऐसे कबाड़ को जलाकर या फिर तीक्ष्ण रसायनों में डुबोकर उनमें से सोना, चांदी, प्लेटिनम आदि धातुओं को निकाला जाता है। यह ई-कबाड़ चूंकि आसानी से विघटित नहीं होता है, इसलिए समूचे समूचे पर्यावरण पर घातक असर डालता है।
READ MORE@GSHINDI कचरा प्रबंधन में सुधार क्यों नहीं
वैसे तो हमारे देश में ई-कबाड़ पर रोक लगाने वाले कानून हैं। खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम-1989 की धारा 11(1) के तहत ऐसे कबाड़ के खुले में पुनर्चक्रण और आयात पर रोक है। अकेले दिल्ली की कई बस्तियों में संपूर्ण देश में आने वाले ई-कचरे का चालीस फीसद हिस्सा रीसाइकिल किया जाता है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद बनाने वाली कंपनियां अपने उपभोक्ताओं से खराब हो चुके सामान को वापस लेने की जहमत नहीं उठाती हैं, क्योंकि ऐसा करना खर्चीला है और सरकार की तरफ से इसे बाध्यकारी नहीं बनाया गया है। उपभोक्ता भी इन बातों को लेकर सजग नहीं है कि खराब थर्मामीटर से लेकर सीएफएल बल्ब और मोबाइल फोन आदि यों ही कबाड़ में फेंक देना कितना खतरनाक है। हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए, इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है।