11 January Newspaper Summery

1.तालिबान से बातचीत में भारत भी ले हिस्सा : सेना प्रमुख

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2.प्रतियोगिता परीक्षा में सुधार के सुझाव के लिए समिति गठित होगी

  • सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी निकायों द्वारा ली जाने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं में सुधार के सुझाव देने के लिए तीन सदस्यीय उच्चाधिकार समिति गठित करने का पक्ष लिया है। इस समिति में इन्फोसिस के सह संस्थापक नंदन नीलेकणि और मशहूर कंप्यूटर वैज्ञानिक विजय पी. भटकर शामिल होंगे। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि वह कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) की संयुक्त स्नातक स्तर (सीजीएल) और संयुक्त उच्चतर माध्यमिक स्तर (सीएचएसएल) परीक्षाओं के परिणाम घोषित करने पर लगी रोक नहीं हटाएगा। गौरतलब है कि 2017 में ली गई इन परीक्षाओं में लाखों छात्रों ने भाग लिया था।

EDUCATION,GOVERNANCE,JUDICIAL ACTIVISM

3.आयुष्मान भारत में अपना हिस्सा नहीं देगी बंगाल सरकार

  • केंद्र सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना आयुष्मान भारतमें योगदान नहीं करने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि केंद्रीय योजनाएं राज्य सरकार के सहयोग से चलती हैं और केंद्र पूरा श्रेय ले रहा है इसलिए आयुष्मान भारत योजना में राज्य 40 प्रतिशत का योगदान नहीं करेगा। केंद्र को यह योजना राज्य में चलानी होगी तो वह पूरी तरह अपने बूते चलाएगा और पूरा खर्च वहन करेगा।केंद्र सभी राज्यों में समानांतर सरकार चला रहा है। यह संघीय ढांचा पर आघात है। मुख्यमंत्री ने कहा कि आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा और कृषि बीमा सहित अन्य योजनाओं में राज्य सरकार की भागीदारी है। फसल बीमा में तो राज्य सरकार की 80 प्रतिशत हिस्सेदारी है, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार सभी योजनाओं का श्रेय खुद ले रही है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। स्वास्थ्य बीमा योजना में राज्य सरकार की 625 करोड़ रुपये की भागीदारी है, जबकि आयुष्मान भारत योजना पर कमल के फूल का लोगो लगा पत्र डाक विभाग से नागरिकों के घर भेजा जा रहा है। राज्य सरकार की भागीदारी का कहीं कोई उल्लेख नहीं है इसलिए आयुष्मान भारत से राज्य सरकार खुद को अलग कर रही है।

USE IN CENTRE –STATE RELATION,FEDERALISM

4.‘चौपाल ऑन ट्विटरपर अपने नेता से रूबरू होगी जनता

  • जनता और नेता के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य के साथ ट्विटर इंडिया ने विभिन्न चौपाल नेताओं के साथ मिलकर चौपाल ऑन ट्विटरकी शुरुआत की है। इस पहल के माध्यम से लोग अपने नेताओं से बात कर सकेंगे

USE IN SOCIAL MEDIA ROLE IN DEMOCRACY

5.रेणुकाजी डैम परियोजना पर आज हस्ताक्षर करेंगे छह राज्यों के मुख्यमंत्री

  • दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्री शुक्रवार को रेणुकाजी बहुद्देश्यीय डैम परियोजना के लिए समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे। डैम यमुना और उसकी दो सहायक नदियों गिरि और टोंस पर बनाया जाएगा। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश इसमें शामिल हैं। परियोजना वर्ष 2008 में विचार में आई थी। इस पर आने वाले खर्च के बड़े हिस्से का वहन केंद्र सरकार करेगी, जबकि राज्यों को केवल 10 प्रतिशत देना होगा। सरकार ने एक बयान में कहा, ‘रेणुकाजी बांध की परिकल्पना हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में गिरि नदी पर एक भंडारण परियोजना के रूप में की गई है।

PRELIMINARY,WATER ISSUE,POWER/ENERGY

6.रिजर्व बैंक सरकार के प्रति उत्तरदायी: जालान

  • भारतीय रिजर्व बैंक ने बैकों को कैपिटल के अनिवार्य नियम से राहत दी है जिसके कारण वे 3.5 लाख करोड़ रुपये तक अधिक कर्ज दे सकेंगे। आरबीआइ ने कैपिटल कंजर्वेशन बफर (सीसीबी) के पिछले अंश को एक साल के लिए टाल दिया है। इससे बैंकों के हाथ में 37,000 करोड़ रुपये पूंजी अतिरिक्त होगी।बैंक की अधिसूचना के अनुसार सीसीबी के 0.625 फीसद अंश का क्रियान्वयन 31 मार्च 2019 से एक साल के लिए टाल दिया गया है। 31 मार्च 2020 को न्यूनतम 2.5 फीसद कैपिटल कंजर्वेशन रेशियो लागू होगा। इस समय बैंकों की कोर कैपिटल के मुकाबले सीसीबी 1.876 फीसद है। आरबीआइ के इस कदम से बैंक दस गुना ज्यादा करीब 3.5 लाख करोड़ रुपये ज्यादा कर्ज दे सकेंगे। सीसीबी कैपिटल बफर होता है जिसका बैंकों को सामान्य दौर में संग्रह करना होता है और एनपीए के दौर में होने वाले घाटे की इससे भरपाई करनी होती है। 2008 में ग्लोबल वित्तीय संकट के बाद यह नियम लागू किया गया था ताकि बैंक विषम स्थितियों से उबर सकें। पिछली 19 नवंबर की आरबीआइ बोर्ड की बैठक में सीसीबी के बारे मे फैसला किया गया था।

RBI VS GOVT,RECAPITALISATION

7.ईरान स्वदेशी राकेटों से करेगा दो उपग्रहों का प्रक्षेपण

  • ईरान आमतौर पर 1979 की इस्लामी क्रांति की बरसी पर फरवरी में अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की उपलब्धियों को प्रदर्शित करता है।
  • इससे पहले ईरान ने पिछले दशक में कम जीवन-काल वाले कई उपग्रहों का प्रक्षेपण किया था। ईरान ने 2013 में एक बंदर भी अंतरिक्ष में भेजा था। अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस बात की चिंता है कि उपग्रह के प्रक्षेपण में काम आने वाली प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल लंबी दूरी की मिसाइलों को विकसित करने में भी किया जा सकता है।

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8.ग्लोबल वार्मिग भी कम करेगा लैब में बना स्पेस फ्यूल

  • धरती पर ऊर्जा का बड़ा स्नोत जैविक ईंधन यानी पेट्रोल, डीजल, कोयला हैं। इन स्नोतों से ऊर्जा तो प्राप्त होती है, पर पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। अब ईधन के ऐसे विकल्पों की तलाश हो रही है जो स्वच्छ ऊर्जा मुहैया कराएं। परमाणु ऊर्जा उनमें से एक है।आइआइटी मद्रास के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा ईंधन बनाया है जो बहुत समय तक संरक्षित रहेगा। इसको बनाने के लिए वायुमंडल की हानिकारक गैसों का प्रयोग किया गया है। इससे ग्रीन हाउस गैसों पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा। चूंकि वैज्ञानिकों ने इसे लैब में अंतरिक्ष जैसा माहौल बनाकर तैयार किया है इसलिए इसे स्पेस फ्यूलका नाम दिया गया है। इस विधि से वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाइआक्साइड को परिवर्तित करके अगली पीढ़ी का ईंधन बनाया जाएगा।
  • खोज में पता चला कि मीथेन और अमोनिया के अणु अंतरिक्ष में बिल्कुल विभिन्न रूप में मौजूद हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि क्लैथरेट हाइड्रेट में मीथेन और कार्बन डाईआक्साइड के अणु होते हैं, जो पानी के अणुओं के साथ मिलकर क्रिस्टल का रूप ले लेते हैं। इनके निर्माण के लिए अत्यधिक दबाव और बहुत कम तापमान जरूरी होता है। इसलिए यह महासागरों में तलहटी पर और साइबेरिया जैसी बेहद कम तापमान वाली जगहों में मौजूद ग्लेशियरों में पाए जाते हैं। ऐसे हाइड्रेट में मीथेन पाया जाता है, जिसे अगली पीढ़ी के ईंधन का स्नोत माना जाता है। भारत सहित कई देश समुद्र तल में हाइड्रेट का पता लगाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम चला रहे हैं।
  • ऐसे तैयार किए हाइड्रेट : वैज्ञानिकों ने इस तरह के हाइड्रेट को लैब में तैयार किया है जहां पर उन्होंने अंतरिक्ष जैसी स्थितियां तैयार कीं। उन्होंने इसे ऐसे निर्वात में तैयार किया जहां का दबाव वायुमंडल की तुलना में करोड़ों गुना कम था। इसे अल्ट्रा हाई वैक्युम (यूएचवी) कहा जाता है। इसके साथ ही तापमान को माइनस 263 डिग्री सेल्सियस रखा गया। इसके बाद इन क्रिस्टलों की संरचना हुई, जिसे स्पेस फ्यूलकहा गया। प्रदीप ने बताया कि बेहद कम दबाव और अत्यधिक ठंडे तापमान पर हाइड्रेट्स की यह खोज बहुत ही अप्रत्याशित है। इन हाइड्रेट्स के उत्पादन का अध्ययन स्पेक्ट्रोस्कोपी के माध्यम से किया गया।

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EDITORIAL

  • असंवैधानिक नहीं है आर्थिक आरक्षण
  • मशहूर पुस्तक पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजनमें बाबा साहब भीमराव आंबेडकर एक जगह लिखते हैं कि मैन लव प्रॉपर्टी मोर दैन लिबर्टी इस कथन का सरल अर्थ तो यह है कि मनुष्य मुक्ति से अधिक धन से प्रेम करता है, लेकिन इसका गूढ़ अर्थ यह है कि मुक्ति के मुकाबले लोगों में आर्थिक सुरक्षा की चाहत कहीं से भी कमतर नहीं है। आधुनिक काल में यह आर्थिक सुरक्षा और भी अधिक अहम हो जाती है, क्योंकि आर्थिक पराधीनता हर पराधीनता की जननी है। बाबासहब आंबेडकर के दर्शन के आलोक में मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान का औचित्य सिद्ध होता है। हालांकि इस आर्थिक आरक्षण को लेकर देश में विवाद छिड़ गया है। कुछ इसे आरक्षण-जुमला कह रहे हैं तो कुछ संविधान-विरोधी बताते हुए इसके सर्वोच्च न्यायालय से खारिज हो जाने का अंदेशा जता रहे हैं। कुछ अन्य आरक्षण के आर्थिक आधार पर ही प्रश्न उठा रहे हैं तो कुछ इसे दलित-पिछड़ा विरोधी बताने में लगे हुए हैं। कई पार्टियां इसे चुनावी स्टंट मान रही हैं। हालांकि लोकसभा और राज्यसभा में अधिकांश दलों ने आर्थिक आरक्षण संबंधी विधेयक का समर्थन ही किया। सर्वप्रथम यह देखते हैं कि क्या संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान है? इसका उत्तर जानने के पहले यह जानना उपयुक्त होगा कि संविधान में आरक्षण का आधार क्या है? वर्तमान आरक्षण का आधार संविधान के अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) हैं। अनुच्छेद 16(4) के अनुसार राज्य नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के लिए नियुक्तियों-पदों में आरक्षण के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है। यहां दो बातें उल्लेखनीय हैं-पहली, अनुच्छेद 16(4) मूल संविधान में ही आरंभ से है। दूसरी, आरक्षण का यह प्रावधान पिछड़े वर्ग के लिए है। पिछड़ेपन का यह आधार सामाजिक हो सकता है, शैक्षणिक हो सकता है और आर्थिक भी हो सकता है।
  • विरोधियों द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि संविधान के अनुच्छेद 15(4) में तो सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े तबकों के लिए ही आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन यहां भी दो तथ्य जानने की जरूरत है-पहला, अनुच्छेद 15(4) मूल संविधान में आरंभ से नहीं है। इसे बाद में प्रथम संविधान संशोधन के रूप में 1951 में जोड़ा गया था, जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री और आंबेडकर कानून मंत्री थे। दूसरा, चंपकम बनाम मद्रास राज्य केस (1951) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलटने के लिए यह संविधान-संशोधन किया गया था। उपरोक्त विश्लेषण से भी कई निष्कर्ष निकलते हैं-पहला, आरक्षण किसी भी पिछड़े वर्ग के लिए हो सकता है, चाहे वह सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से हो या आर्थिक रूप से। दूसरा, जिस तरह मूल संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 15(4) जोड़ते हुए सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े तबकों के लिए विशेष प्रावधान किया गया उसी तरह एक और संशोधन कर आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए भी विशेष प्रावधान किया जा सकता है। तीसरा, केंद्र सरकार चाहे तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों को संविधान संशोधन के माध्यम से पलट सकती है। इस आलोक में आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण देने का निर्णय कहीं से भी असंवैधानिक नहीं है।
  • यह आरोप भी गलत है कि आर्थिक आरक्षणदलित-पिछड़े तबकों के हितों पर कुठाराघात है। जबकि सरकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि प्रस्तावित दस प्रतिशत आरक्षण दलित-पिछड़ों के मौजूदा 49.5 प्रतिशत आरक्षण के इतर होगा। अर्थात इन तबकों के आरक्षण कोटा पर कोई आंच नहीं आएगी। कुछ लोगों के लिए प्रस्तावित आरक्षण एक जुमलाबाजी और 2019 का चुनावी लॉलीपॉप भर है। इनके अनुसार पहले भी आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। ये लोग पीवी नरसिंह राव सरकार द्वारा दिए गए दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षणके आदेश के खारिज होने का हवाला दे रहे हैं, लेकिन हमेशा अर्ध-सत्य बोलने वाले ये बुद्धिजीवी यह नहीं बताते कि पीवी नरसिंह राव सरकार द्वारा उक्त आरक्षण एक कार्यालयी ज्ञापनके माध्यम से लाया गया था, किसी संविधान संशोधन द्वारा नहीं। तब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में आर्थिक आधार के होने पर इसे अमान्य कर दिया था, लेकिन मोदी सरकार संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार का प्रावधान करते हुए यह आरक्षण ला रही है ताकि कोर्ट में भी यह न्यायिक समीक्षा का सामना कर सके। यहां यह ध्यान रहे कि 2008 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा जब उच्च शिक्षा संस्थानों में दस प्रतिशत का आर्थिक आरक्षणदिया गया तो उसे चुनौती दी गई, लेकिन केरल उच्च न्यायालय ने इस आरक्षण को सही ठहराया। अब सुप्रीम कोर्ट में इस पर अपील लंबित है। स्पष्ट है कि यह कहना ठीक नहीं कि वर्तमान कवायद महज हवाबाजी या जुमलाबाजी भर है। आर्थिक आरक्षण पर एक अन्य हवाला यह दिया जा रहा है कि इंदिरा साहनी केस (1992) में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत की गई है। यह पूरी तरह सही नहीं है। सरकार के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने यह सीमा-रेखा एससी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्गो के कुल आरक्षण के लिए खींची थी। इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा था कि इस विविधता भरे देश में विशिष्ट परिस्थितियों में 50 प्रतिशत की इस सीलिंग से छूट ली जा सकती है। अर्थात सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को मुख्यधारा में लाने में 50 प्रतिशत की हद-बंदी लागू नहीं होती है।
  • कई लोगों की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि आर्थिक आरक्षण आम चुनाव के पहले की गई एक राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइकहै, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि हरेक दल अपनी नीतियां बनाने या फैसले लेते वक्त यह जरूर विचार करता है कि इससे उसे क्या राजनीतिक या चुनावी नफा-नुकसान हो सकता है। यह बात सभी पार्टियों पर लागू होती है और भाजपा भी अपवाद नहीं है। संविधान-कानून के दायरे में लिए गए किसी निर्णय से मोदी सरकार चुनावों में लाभ उठाना चाहती है तो यह कोई नाजायज बात नहीं है। आर्थिक आरक्षण के संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि यह सभी मजहब के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को उपलब्ध होगा, वे चाहे हंिदूू हों अथवा मुसलमान या ईसाई या अन्य समुदायों के लोग। इससे एक ओर इन समुदायों के कमजोर तबकों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी तो दूसरी ओर सभी पंथों के बीच सामाजिक समरसता का भाव पैदा होगा। इसका एक फायदा यह भी होगा कि सामान्य या अनारक्षित वर्ग के अनेक लोगों में अब तक आरक्षण पा रहे तबकों के प्रति जो असंतोष, ईष्र्या और आक्रोश का भाव है वह कम होगा।
  • अक्षय ऊर्जा से ही बचेगा जीवन
  • ग्लोबल वार्मिग की समस्या रोकने के लिए जितने कारगर कदम उठाए जाने चाहिए थे वे नहीं उठाए गए जिससे मानव जीवन और देशों के स्वास्थ्य तंत्र दोनों को खतरा है। हाल में आई लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार इससे होने वाले खतरे की आशंका पहले के अनुमानों से कहीं अधिक है। इस रिपोर्ट में दुनिया के 500 शहरों में किए गए सर्वे के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि संबंधित रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए दुनिया के अस्पताल तैयार नहीं हैं। इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं। बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला। दरअसल इंग्लैंड के अस्पताल जलवायु में अचानक हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे। वर्ष 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण 153 बिलियन घंटों का नुकसान दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा। कुल नुकसान का आधा हिस्सा भारत ने उठाया जो यहां की कुल कार्यशील आबादी का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिग दो अलग मसले नहीं हैं, बल्कि आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
  • दावोस (स्विट्जरलैंड) में आयोजित विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक बैठक के पाश्र्व में पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक 2018’ को जारी किया गया जिसमें 178 देशों पर पर्यावरण प्रदर्शन को लेकर एक अध्ययन किया गया जिसमें भारत 174वें स्थान पर रहा। पर्यावरण के मामले में भारत दुनिया के बेहद असुरक्षित देशों में है। अधिकांश उद्योग पर्यावरणीय दिशा-निर्देशों, विनियमों और कानूनों के अनुरूप नहीं हैं। देश की आबोहवा लगातार खराब होती जा रही है। शोध अध्ययन से यह पता चला है कि कम गति पर चलने वाले यातायात में विशेष रूप से भीड़ के दौरान जला हुआ ईंधन चार से आठ गुना अधिक वायु प्रदूषण उत्पन्न करता है, क्योंकि डीजल और गैस से निकले धुएं में 40 से अधिक प्रकार के प्रदूषक होते हैं। यह तो रही शहर की बात जहां यातायात प्रदूषण एक ग्लोबल समस्या के रूप में लाइलाज बीमारी बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र भी प्रदूषण विस्तार के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवार रसोई के ईंधन के लिए लकड़ी पर, करीब 10 प्रतिशत गोबर के उपलों पर और पांच प्रतिशत रसोई गैस पर निर्भर हैं। घर में प्रकाश के लिए करीब 50 प्रतिशत परिवार ही बिजली पर निर्भर हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में इसी कार्य के लिए 89 प्रतिशत परिवार बिजली पर तथा अन्य 11 प्रतिशत परिवार केरोसिन पर निर्भर हैं। लेकिन इस धुंधली तस्वीर का दूसरा पहलू यह बता रहा है कि भारत सरकार गैर-परंपरागत ऊर्जा नीतियों को लेकर काफी गंभीर है। देश में सौर ऊर्जा की संभावनाएं भी काफी अच्छी हैं। हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसार, भारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में 250 से 300 धूप निकलने वाले दिनों सहित प्रतिदिन प्रति वर्गमीटर चार से सात किलोवॉट घंटे का सौर विकिरण प्राप्त होता है। राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में यह स्थिति अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा है।
  • भारत का अक्षय ऊर्जा क्षेत्र बीते कुछ समय से सुर्खियों में बना हुआ है। हाल ही में ब्रिटेन की अकाउंटेंसी फर्म अर्नेस्ट एंड यंग द्वारा अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए आकर्षक देशों की सूची में भारत को दूसरा स्थान दिया। वहीं भारत सरकार की ऊर्जा नीति में सुधार की शुरुआत अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के फैसले के साथ हुई। जून 2015 में जवाहरलाल नेहरू नेशनल सोलर मिशन के लक्ष्य की समीक्षा करते हुए मोदी सरकार ने 2022 तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 20,000 मेगावॉट के आंकड़े से पांच गुना बढ़ाकर एक लाख मेगावॉट कर दिया। इसमें 40,000 मेगावॉट बिजली रूफटॉप सोलर पैनलों और 60,000 मेगावॉट बिजली छोटे और बड़े सोलर पॉवर प्लांटों द्वारा पैदा की जाएगी। अगर भारत इस लक्ष्य को हासिल कर लेता है तो हरित ऊर्जा के मामले में वह दुनिया के विकसित देशों से आगे निकल जाएगा। यह प्रदूषण मुक्त सस्ती ऊर्जा के साथ-साथ ऊर्जा उपलब्धता और देश की आत्मनिर्भरता बढ़ाने में सहायक साबित होगा। वैश्विक पटल पर भारत इस समय विश्व में गैर-परंपरागत ऊर्जा के संसाधनों पर चिली के बाद भारत सबसे ज्यादा निवेश करता दिख रहा है। क्लाइमेट स्कोप 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत इस समय अक्षय ऊर्जा के संसाधनों को स्थापित करने के संदर्भ में दूसरे स्थान पर है। एनर्जी रिसर्च ब्लूमबर्ग ने 103 देशों की ऊर्जा नीतियों, पावर सेक्टर तंत्र, प्रदूषण उत्सर्जन और अक्षय ऊर्जा के संसाधनों के संदर्भ में हुए कार्यो का अध्ययन किया जिसमें पाया गया कि भारत 2.57 अंकों के साथ अक्षय ऊर्जा के संसाधनों पर खर्च के मामलों में विश्व में दूसरे स्थान पर है। वहीं चिली 2.63 अंकों के साथ पहले स्थान पर है। लेकिन इसके साथ भी बहुत कुछ जरूरी है- जैसे पर्यावरण की सुरक्षा से ही प्रदूषण की समस्या को सुलझाया जा सकता है। यदि हम अपने पर्यावरण को ही असुरक्षित कर दें तो हमारी रक्षा कौन करेगा? पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम के प्रति भारत का रवैया पिछले कुछ सालों से काफी सकारात्मक दिख रहा है जिसमें गैर-परंपरागत ऊर्जा के संसाधनों के इस्तेमाल पर ज्यादा कार्य हो रहा है। इस समस्या पर यदि हम आज मंथन नहीं करेंगे तो प्रकृति संतुलन स्थापित करने के लिए स्वयं कोई भयंकर कदम उठाएगी। प्रदूषण से बचने के लिए हमें अत्यधिक पेड़ लगाने होंगे। प्रकृति में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने से बचना होगा। प्लास्टिक से परहेज करना होगा। वर्षा जल का संचय करते हुए भूमिगत जल को संरक्षित करने का प्रयास करना होगा। पेट्रोल, डीजल के अलावा हमें ऊर्जा के अन्य विकल्प ढूंढने होंगे। सौर ऊर्जा पवन ऊर्जा के प्रयोग पर बल देना होगा।
  • उत्तराधिकार आज भी पुत्रधिकार
  • हंिदूू उत्तराधिकार 2005 से संशोधन के बावजूद बेटियों के संपत्ति में अधिकार का मामला अंतर्विरोधी और पेचीदा कानूनी व्याख्याओं में उलझा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार नौ सितंबर 2005 से पहले अगर पिता की मृत्यु हो चुकी है तो बेटी को पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं मिलेगा। कानून में भी यह व्यवस्था की गई थी कि अगर पैतृक संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर 2004 से पहले हो चुका है तो उस पर यह संशोधन लागू नहीं होगा। अब यह मामला न्यायालय में विचाराधीन है।
  • अधिकांश अर्धशिक्षित, अनभिज्ञ या कुछ शहरी महिलाएं यह कहते नहीं थकतीं कि मां-बाप की संपत्ति में बेटे-बेटियों को बराबर हक मिल गया है। पति की कमाई में भी पत्नी को आधा अधिकार है। कहां है भेदभाव? बेटे-बेटियों या पत्नी को मां-बाप या पति के जीवित रहते संपत्ति बंटवाने का अधिकार नहीं और क्यों हो अधिकार? बेशक बेटी को पिता-माता की संपत्ति में अधिकार है, बशर्ते मां-बाप का निधन बिना वसीयत किए हुआ हो। जिनके पास संपत्ति है वे बिना वसीयत के कहां मरते हैं! वसीयत में बेटी को कुछ दिया, तो उसे वसीयत के हिसाब से मिलेगा। अगर वसीयत पर विवाद हुआ (होगा) तो बेटियां सालों कोर्ट-कचहरी करती रहेंगी।
  • सही है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं अर्जित संपत्ति को वसीयत द्वारा किसी को भी दे सकता है। नि:संदेह पत्नी-पुत्र-पुत्री को पिता-पति के जीवनकाल में, उनकी संपत्ति बंटवाने का कानूनी अधिकार नहीं। हंिदूू कानून में पैतृक संपत्ति का बंटवारा संशोधन से पहले सिर्फ मर्द उत्तराधिकारियों के बीच ही होता था। पुत्र-पुत्रियों से यहां अभिप्राय सिर्फ वैध संतान से है। अवैध संतान केवल अपनी मां की ही उत्तराधिकारी होगी, पिता की नहीं। वैध संतान वह जो वैध विवाह से पैदा हुई हो।
  • संशोधन से पहले पैतृक संपत्ति का सांकेतिक बंटवारा पहले पिता और पुत्रों के बीच होता था और पिता के हिस्से आई संपत्ति का फिर से बराबर बंटवारा पुत्र-पुत्रियों (भाई-बहनों) के बीच होता था। मान लीजिए कि पिता के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं और पिता के हिस्से आई पैतृक संपत्ति 100 रुपये की है, तो यह माना जाता था कि अगर बंटवारा होता तो पिता और तीन पुत्रों को 25-25 रुपये मिलते। फिर पिता के हिस्से में आए 25 रुपयों का बंटवारा तीनों पुत्रों और दोनों पुत्रियों के बीच पांच-पांच रुपये बराबर बांट दिया जाता। मतलब तीन बेटों को 90 रुपये और बेटियों को 10 रुपये मिलते। संशोधन के बाद पांचों भाई-बहनों को 20-20 रुपये समान रूप से मिलेंगे। हालांकि यह अलग बात है कि हमारे देश में अधिकांश उदार बहनेंस्वेच्छा से अपना हिस्सा अभी भी नहीं लेतीं।
  • हंिदूू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा छह में (नौ सितंबर 2005 से लागू) प्रावधान किया गया है कि अगर पैतृक संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो चुका है, तो उस पर यह संशोधन लागू नहीं होगा। हंिदूू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के बाद यह प्रावधान किया गया है कि अगर संशोधन कानून लागू होने के बाद किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना कोई वसीयत किए हो गई है और संपत्ति में पैतृक संपत्ति भी शामिल है तो मृतक की संपत्ति में बेटे और बेटियों को बराबर हिस्सा मिलेगा।
  • यहां उल्लेखनीय है कि बेटियों को पिता की स्वयं अर्जित संपत्ति में ही नहीं, बल्कि पिता को पैतृक संपत्ति में से भी जो मिला या मिलेगा उसमें भाइयों के बराबर अधिकार मिलेगा। बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार जन्म से मिले (गा) या पिता के मरने के बाद? अभी यह विवाद सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। जिन बेटियों के पिता का नौ सितंबर 2005 से पहले निधन हो चुका है, उन्हें प्रकाश बनाम फूलवती (2016) केस में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और अनिल आर दवे के निर्णय (19 अक्टूबर 2015) के अनुसार संशोधित उत्तराधिकार कानून से कोई अधिकार नहीं मिलेगा। लेकिन दनम्मा उर्फ सुमन सुरपुर बनाम अमर केस (2018) में सुप्रीम कोर्ट की ही दूसरी खंडपीठ के न्यायमूर्ति अशोक भूषण और अर्जन सीकरी ने अपने निर्णय में कहा कि बेटियों को संपत्ति में अधिकार जन्म से मिलेगा भले ही पिता की मृत्यु नौ सितंबर 2005 से पहले हो गई हो। पर इस मामले में बंटवारे का केस पहले से (2003) चल रहा था।
  • मंगामल बनाम टीबी राजू मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल और अभय मनोहर सप्रे ने अपने निर्णय (19 अप्रैल 2018) में फूलवती निर्णय को ही सही माना और स्पष्ट किया कि बंटवारा मांगने के समय पिता और पुत्री का जीवित होना जरूरी है। लगभग एक माह बाद ही दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुश्री प्रतिभा एम सिंह ने विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में 15 मई 2018 को सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णयों का उल्लेख करते हुए अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण स्थिति का नया आख्यान सामने रखा। फूलवती केस को सही मानते हुए अपील रद कर दी, मगर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की विशेष अनुमति/ प्रमाण पत्र भी दिया ताकि कानूनी स्थिति तय हो सके।
  • इन निर्णयों से अनावश्यक रूप से कानूनी स्थिति पूर्णरूप से अंतर्विरोधी और असंगतिपूर्ण हो गई है। सुप्रीम कोर्ट की ही तीन खंडपीठों के अलग-अलग फैसले होने की वजह से मामला पांच दिसंबर 2018 को तीन जजों की पूर्णपीठ को भेजा गया है जो अभी विचाराधीन है। देखते हैं सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला सुनाता है। बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार मिल जाना आसान काम नहीं है।
  • सहज बोध पर हावी हैं हड़बड़ी और सांठगांठ
  • क्या आपने कभी सोचा है कि हमारी आंखों के सामने जब हमारे नेता और बाबू पुरातनपंथी नीतियां लागू करते हैं तो कैसा लगता है? हाल के दिनों में वित्तीय क्षेत्र में जो कुछ घटा है वह इसी बात की बानगी है। बीते दो महीनों के दौरान जो नीतिगत निर्णय लिए गए हैं उन्होंने सरकार को यह मौका दिया है कि वह सरकारी बैंकों के मामले में यथास्थिति बरकरार रख सके। ये वही सरकारी बैंक हैं जिनके फंसे हुए कर्ज में आम करदाताओं का धन बड़ी मात्रा में डूब गया है। इतना ही नहीं इसकी बदौलत सांठगांठ वाले पूंजीपति अत्यधिक समृद्घ भी हो गए हैं।

  • इसकी शुरुआत वर्ष 2017 में हुई थी लेकिन वास्तविक कदम 2018 की तीसरी तिमाही में देखने को मिला जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)और सरकार के बीच दो मसलों पर विवाद गंभीर हो गया। पहला, सरकार आरबीआई के नकदी भंडार का एक बड़ा हिस्सा अपने लिए चाह रही थी और दूसरा शीघ्र सुधारात्मक उपाय (पीसीए) के मानकों को शिथिल करने को कहा जा रहा था। ये मानक कुछ बेहद खराब प्रदर्शन करने वाले सरकारी बैंकों पर लगाए गए थे ताकि वे दोबारा ऋण देने लायक बन सकें। इस बीच कई सरकारी बैंक तो ऐसे थे जहां कोई मुखिया ही नहीं था।

  • सितंबर 2018 में इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज (आईएलऐंडएफएस) डिफॉल्ट कर गई। इससे तमाम गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को लेकर भरोसे का संकट उत्पन्न हो गया। इन कंपनियों ने मदद की गुजारिश के साथ वित्त मंत्रालय की शरण ली। अब सरकार की ओर से आरबीआई के पास तीसरी मांग आई- इन एनबीएफसी की मदद के लिए और अधिक नकदी उपलब्ध कराने की मांग। इसके अलावा अगस्त में जब स्वदेशी जागरण मंच के विचारक गुरुमूर्ति आरबीआई के बोर्ड में शामिल हुए तो उन्होंने नीतिगत एजेंडे को लेकर अपनी निजी मांगें रखनी शुरू कर दीं। उन्होंने कहा कि सूक्ष्म, मझोले और लघु उद्यमों (एमएसएमई) को उबारने के लिए प्रोत्साहन पैकेज दिए जाएं। उपरोक्त चारों विचार पूरी तरह पिछली सरकारों की तरह ही उपयोगिता और सांठगांठ से जुड़े हुए थे।

  • परंतु आंकड़े बताते हैं कि इनमें से किसी उपाय की कोई आवश्यकता नहीं थी इसलिए जाहिर तौर पर सरकार की राह भी आसान नहीं थी। ये मांगें विशुद्घ रूप से राजनीतिक थीं और इनसे अर्थव्यवस्था को कोई खास लाभ नहीं होना था। बल्कि लंबी अवधि के दौरान इसका नकारात्मक प्रभाव ही पडऩा था। ऐसे में 26 अक्टूबर को आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने एक भाषण के दौरान चेतावनी दे डाली कि जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का सम्मान नहीं करती हैं वे आज नहीं तो कल वित्तीय बाजारों का संकट पैदा करती हैं, आर्थिक मोर्चे पर आग भड़कने की वजह बनती हैं और आखिर में उन्हें पछताना पड़ता है कि उन्होंने एक अहम नियामक संस्थान की स्वायत्तता को सीमित किया। तीन दिन बाद आरबीआई के एक अन्य डिप्टी गवर्नर एन एस विश्वनाथन ने कह दिया कि बैंकों का काम कठिन समय में कर्जदारों को उबारना नहीं है, उनकी प्राथमिक प्रतिबद्घता जमाकर्ताओं के प्रति होनी चाहिए। यह बात सीधे तौर पर सरकार की इस मांग पर चोट थी कि आरबीआई सरकारी बैंकों और एनबीएफसी के प्रति नरम बनी रहे।

  • नीति निर्माण से जुड़ा एक सामान्य सबक देते हुए विश्वनाथन ने कहा, 'बैंकों को कर्जदारों की कठिनाई के वक्त झटका सहने वाले जरिये के रूप में नहीं बरता जाना चाहिए क्योंकि उनके पास यह सुविधा नहीं होती कि वे अपने जमाकर्ताओं का भुगतान टाल दें।' पीसीए को शिथिल करने के मामले में उन्होंने कहा, 'ढांचागत सुधारों के स्थान पर नियामकीय शिथिलताओं को अपनाना, अर्थव्यवस्था के हित के लिए घातक हो सकता है।' परंतु देश की मजबूत 'राष्टï्रवादी सरकार' का इरादा अलग ही था। दबाव बनाए रखते हुए वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने खुलकर आरबीआई की आलोचना की और वे केंद्रीय बैंक के खिलाफ अपनी शक्तियों का प्रयोग करने को भी तैयार दिखे।

  • मीडिया में आई खबरों के मुताबिक नवंबर के मध्य में प्रधानमंत्री ने आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर ऊर्जित पटेल से मुलाकात की और मामले को समझने का प्रयास किया। इसके बाद विधानसभा चुनाव नतीजों के एक दिन पहले पटेल ने त्यागपत्र दे दिया। एक दिन बाद ही शक्तिकांत दास को आरबीआई का गवर्नर बना दिया गया जो 'वित्त मंत्रालय के आदमी' हैं। इसके तत्काल बाद पीसीए के कड़े मानक निलंबित किए गए, एमएसएमई को राहत पैकेज दिया गया और चुनाव के पहले योजनाओं में इस्तेमाल के लिए आरबीआई के भंडार से बड़ी मात्रा में नकदी निकालने की योजना तैयार की गई। नेताओं के समर्थन से अधिकारियों ने इस तमाम कवायद को अंजाम दिया।

  • सरकार ने कुछ एनबीएफसी के कारण खड़े संकट को भी थामने का प्रयास किया। बीते कुछ वर्षों में एनबीएफसी बाजार चर्चा में रहा है क्योंकि वे अल्पावधि में अधिक ऋण देकर लंबे समय के लिए उसे उधारी दे रही थीं। इससे उनके कारोबार में जबरदस्त प्रगति नजर रही थी और खूब पैसा एकत्रित हो रहा था। इनमें से अधिकांश के पास मजबूत जोखिम प्रबंधन और विविधतापूर्ण पोर्टफोलियो था। परंतु कुछ बड़ी एनबीएफसी ने बिना आधार वाली अचल संपत्ति कंपनियों को जमकर ऋण दिया। ये परिसंपत्तियां चुनिंदा मित्रवत निजी कंपनियों की बदौलत अच्छी नजर रही थीं।

  • आईएलऐंडएफएस संकट के विस्तार के साथ ही इस पर विराम लग गया और ये कंपनियां गहरे संकट में गईं। वे बचाव के लिए नकदी चाहती थीं लेकिन पटेल के नेतृत्व में आरबीआई इसके लिए तैयार नहीं था। आमतौर पर कारोबारियों के साथ कम ही दिखने वाले प्रधानमंत्री बुधवार 26 दिसंबर को कुछ घबराए एनबीएफसी कारोबारियों से मिले। यह इस बात का संकेत था कि आरबीआई को उनकी मदद करनी होगी। नए गवर्नर के अधीन आरबीआई इसके लिए तैयार हो गया। बहुत संभव है कि अप्रत्याशित परिस्थितियों में किसी खास क्षेत्र को सहायता की आवश्यकता पड़े लेकिन यहां मामला ऐसा नहीं था। अधिकांश एनबीएफसी को मदद की आवश्यकता नहीं थी। कुछ खराब एनबीएफसी ने अपने लिए समस्या खड़ी कर ली थी क्योंकि वे किसी भी कीमत पर अपना विकास चाहती थीं। उनको प्रतिस्पर्धा का सामना करने देने के बजाय सरकार ने हमेशा उन्हें उबारा।
  • 5. पूर्वोत्तर, खासतौर से असम को छोड़कर देश में कहीं भी नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिख रही है। जन-प्रतिनिधि तक इस मसले पर उदासीन दिख रहे हैं। बुधवार को राज्यसभा में इस पर बहस होनी थी, लेकिन इसे पेश तक नहीं किया गया। ऐसा लगता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में अंदरखाने यह समझ बनी थी कि सिर्फ आरक्षण विधेयक पर ऊपरी सदन में चर्चा होनी चाहिए। संभव है कि केंद्र सरकार इस पर अध्यादेश ले आए। हालांकि इसकी वैधता ज्यादा से ज्यादा छह महीने ही होगी।.
  • नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ पूर्वोत्तर में दिख रही नाराजगी की कई वजहें हैं। औपनिवेशिक काल से अब तक यहां इतनी अधिक संख्या में अप्रवासी चुके हैं कि उनकी संख्या स्थानीय लोगों से ज्यादा हो गई है। 1947 में बंटवारे के समय तो यह खासतौर पर त्रिपुरा और असम में हुआ था। नतीजतन, त्रिपुरा में अब कुल आबादी में सिर्फ एक चौथाई स्थानीय रह गए हैं। इन राज्यों के स्थानीय बाशिंदे लगातार इन बाहरी नागरिकों को देश से बाहर करने की मांग करते रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान पूर्वोत्तर की चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी (तब वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे) ने भी वादा किया था कि यहां घुस आए बांग्लादेशियों को पकड़कर वापस उनके देश भेज दिया जाएगा। मगर अब तो नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिए उन्हें यहां हमेशा के लिए बसाने की कोशिश हो रही है। स्थानीय लोग इसीलिए उबल रहे हैं।.
  • नया विधेयक 1955 के नागरिकता कानून में संशोधन करके तैयार किया गया है। अगर इसे संसद की मंजूरी मिल जाती है, तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को 11 साल की बजाय महज छह साल भारत में गुजारने पर नागरिकता मिल जाएगी। इसमें बेस ईयर को भी बढ़ा दिया गया है और अब 31 दिसंबर, 2014 तक इन तीनों देशों के जितने अल्पसंख्यक भारत आए हैं, उन सभी को नागरिक अधिकार मिल जाएंगे। बांग्लाभाषी लोगों की बढ़ती संख्या पूर्वोत्तर खासतौर से असम के जनसांख्यिकीय स्वरूप को चिंताजनक रूप से बदल देगी। जनगणना में भी स्थानीय लोगों की आबादी तेजी से घटती दिख रही है, लेकिन इसे लेकर देश के बाकी हिस्सों में कोई चिंता जाहिर नहीं की जा रही। ऐसे में, पूर्वोत्तर के लोग अब स्वाभाविक ही पिछले सौ वर्षों में हुए जनसांख्यिकीय बदलाव की समीक्षा की मांग कर रहे हैं।.
  • नए विधेयक के विरोध की एक वजह इसमें मौजूद धार्मिक विभेद भी है। 1955 के नागरिकता कानून में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया है। मगर नया विधेयक कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक यानी गैर-मुस्लिम (हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी, ईसाई आदि) को ही नागरिकता मिलेगी। इन तीनों देशों से ज्यादातर हिंदू भारत आते हैं। इसका अर्थ है कि नया विधेयक परोक्ष रूप से इन देशों के हिंदुओं को भारत की नागरिकता देने की बात कहता है। धार्मिक पहचान को नागरिकता का आधार बनाना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान का अनुच्छेद 14 जाति और धर्म के आधार पर सबको समान अधिकार देने की वकालत करता है। फिर, यह विधेयक उन समुदायों को भी नजरंदाज करता है, जो बहुसंख्यक में शामिल होने के बावजूद इन देशों में अल्पसंख्यक की हैसियत में रहते हैं। पाकिस्तान में अहमदिया ऐसा ही एक संप्रदाय है। वहां अच्छी संख्या होने के बावजूद बोहरा समुदाय के लोगों की हालत ठीक नहीं है। इनमें से कई तो भारत आकर बस चुके हैं। नया विधेयक उन्हें यहां से बेदखल कर देगा।.
  • इस समय नागरिकता विधेयक को लाया जाना चुनावी एजेंडा ज्यादा लग रहा है। इसका असर पूर्वोत्तर (खासतौर से असम) और पश्चिम बंगाल में पड़ेगा। यह चुनावी वर्ष है और अगले चंद महीनों में देश में आम चुनाव होने वाले हैं, इसीलिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इन राज्यों में भारी संख्या में मौजूद हिंदू बंगालियों को आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। संभवत: इसीलिए इस विधेयक को शीत सत्र के बिल्कुल आखिरी दिनों में लाया गया। नागरिकता संशोधन पर गठित संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) ने पूर्वोत्तर में ठीक से पब्लिक हियरिंग' भी नहीं की। उसने स्थानीय लोगों की चिंता पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। यह हियरिंग बराक घाटी में की गई, जहां बांग्लादेशी हिंदू काफी अधिक संख्या में हैं, जबकि इसका विरोध ब्रह्मपुत्र घाटी में ज्यादा था। गुवाहाटी में सिर्फ एक दिन हियरिंग की गई और वहां उमड़ी भारी भीड़ को देखकर फिर से आने का वादा किया गया था। मगर वादे के बावजूद ब्रह्मपुत्र घाटी में संजीदगी से पब्लिक हियरिंग' होना, संकेत है कि किस तरह इस मामले को निपटाने की कोशिश की जा रही है।.
  • हमारी नीति यह होनी चाहिए थी कि देश में जितने भी बाहरी हैं, उन्हें उनके देश भेज दिया जाए या फिर कोई सर्वमान्य समाधान निकाला जाए। मगर इस विधेयक से उन्हें यहां बसाने की योजना तैयार की गई है। नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 के पारित होने के बाद तमाम अप्रवासी अधिकृत रूप से भारत के नागरिक बन जाएंगे। ऐसे में, यहां की जनसांख्यिकी में भारी बदलाव आएगा, जो किसी बड़े खतरे को न्योतने जैसा होगा। फिर यह कदम अखंड भारत' की उस संकल्पना के भी खिलाफ है, जिसकी बात अभी तक की जाती रही है, क्योंकि इन देशों में हिंदू रहेंगे ही नहीं। अगर सरकार घुसपैठियों के प्रति संजीदा है, तो वह इन तीनों पड़ोसी देशों की हुकूमत से बात करके वहां के अल्पसंख्यकों का बेहतर रहन-सहन सुनिश्चित करे। इसकी कोशिश भी हो सकती है कि इन देशों में अल्पसंख्यक सम्मान के साथ अपना जीवन बिता सकें। वहां की सरकार अपने अल्पसंख्यक समुदायों की बेहतरी के काम कर भी रही है। लिहाजा इन समुदायों को मातृभूमि से काटकर भारत में बसाने की इस योजना का औचित्य नहीं दिखता। फिर, यह तो भारतीय संविधान के भी खिलाफ है।.

 
 
 
 
 
 

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