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1.महाराष्ट्र में नक्सलियों के खिलाफ सड़क पर उतरे ग्रामीण, फूंके बैनर
- सुरक्षाबलों की सख्ती और विभिन्न मुठभेड़ों में साथियों की मौत से बौखलाए नक्सलियों के खिलाफ अब ग्रामीणों ने भी मोर्चा संभाल लिया है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के कोटमी इलाके में रविवार को ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। इतना ही नहीं उनकी ओर से लगाए गए बैनरों को फूंक दिया।
- ग्रामीणों ने कहा, हम विकास की मूलधारा से पिछड़ चुके हैं। बच्चे सुरक्षित नहीं है। इन इलाकों से नक्सलियों को खदेड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं। अब हमें नक्सलियों के आतंक से मुक्ति पाने के ठोस उपाय करने होंगे।
USE IN PAPER1-SOCIETY 3-INTERNAL SECURITY,LEFT WING EXT.
2.यमुना के 76 फीसद प्रदूषण का कारण दिल्ली
- दिल्ली और आस-पास के इलाकों में रविवार को प्रदूषण का स्तर खतरनाक स्थिति में पहुंच गया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के प्रदूषण मॉनिटरिंग स्टेशन में पीएम 2.5 और पीएम 10 का स्तर एयर क्वॉलिटी इंडेक्स (एक्यूआई) में 374 इंडेक्स वैल्यू दर्ज हुई।
USE IN PAPER 3-ENVIRONMENT
3.अटार्नी जनरल ने संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत पर जताई चिंता
- अटार्नी जनरल ने कहा, ‘सबरीमाला के मामले में जज इंदू मल्होत्र ने यह कहते हुए फैसले के खिलाफ राय दी थी कि अदालत को आस्था के मामले में दखल नहीं देना चाहिए। वहीं अन्य चार जजों ने इसे संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत पर तौला। किसी एक व्यक्ति के मामले में फैसला देते हुए आप ऐसा कर सकते हैं, लेकिन यहां मामला एक बड़ी आबादी का था। धार्मिक आस्था के विषय में दखल देते समय अदालतों को सावधानी बरतनी चाहिए।’ हालांकि अटार्नी जनरल ने स्पष्ट किया कि यह उनकी व्यक्तिगत राय है। वेणुगोपाल ने कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट खुद को विधायिका जैसी शक्ति देना चाहेगा, तो यह संविधान की नहीं, सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता होगी। इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। अदालतों का यह मानना बिल्कुल गलत है कि उनके हस्तक्षेप नहीं करने से देश डूब जाएगा।
USE IN PAPER 2-CONSTITUTIONAL DEBATE
4.मताधिकार से वंचित किए जा सकते हैं एनआरसी से बाहरवाले
- असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची से बाहर रहने वाले लोगों को मतदान के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। एनआरसी मसौदे पर दावों और आपत्तियों को जमा कराने की आखिरी तारीख अगले हफ्ते खत्म हो रही है, उसके बाद एनआरसी की अंतिम सूची जारी की जाएगी। वहीं, सरकार ने यह भी कहा है कि लोग अधिकृत दस्तावेजों के साथ ही नागरिकता का दावे करें, ऐसा नहीं करने पर उनके दावों को नहीं माना जाएगा।
USE IN PAPER 3-NRC,REGIONAL CONFLICT
5.लंच रूम, कॉफी शॉप की बातों से फैसले प्रभावित नहीं होते : कोर्ट
- कोयला ब्लॉक आवंटन मामले की सुनवाई कर रही एक विशेष अदालत ने कहा कि वकीलों और जजों की लंच रूम या कॉफी शॉप में हुई बातचीत अदालती कार्यवाही या फैसले को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करते हैं।
USE IN JUDICIAL
6.भट्ठों वाली ईंटों पर प्रतिबंध की तैयारी
- पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से केंद्र भट्ठों वाली ईंटों पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रहा है। फिलहाल सरकार देश में चल रही अपनी परियोजनाओं में ही इनके इस्तेमाल पर रोक लगाने की तैयारी कर रही है।
USE IN ENVIRONMENTAL POLICY
7.चीन, पाक ने मिजोरम में उग्रवाद का समर्थन किया था: जोरमथंगा
- कभी खूंखार उग्रवादी रहे और अब पूवरेत्तर के प्रमुख राजनेता जोरामथंगा ने अपनी आत्मकथा पूरी कर ली है। मिजोरम के पूर्व मुख्यमंत्री का कहना है कि उनकी आत्मकथा ‘बहुआइजोलत’ विवादित किताब होगी और उस पर पाकिस्तान और चीन दोनों को एतराज हो सकता है। क्योंकि, इसमें मिजोरम में विद्रोह को उनके ‘समर्थन’ का विस्तृत वर्णन है। दो खंडों में लिखी गई किताब को मिजो भाषा में ‘एमआइएलएआरआइ’ (मिलारी) कहा गया है। इसका अभी अंग्रेजी में अनुवाद किया जा रहा है।
USE IN PAPER 3-INTERNAL SECURITY
8.भगवान अयप्पा के राज्य में नजर आई धार्मिक सौहार्द की मिसाल
- विविधताओं से भरे भारत में धार्मिक सौहार्द की मिसाल देखने को मिली है। सबरीमाला मंदिर को लेकर चर्चा में आए केरल राज्य में हंिदूू श्रद्धालुओं ने धर्म की खूबसूरत तस्वीर पेश की है। जी हां, जिस देश में किसी धार्मिक किताब के फटे पन्ने मिल जाने से दंगे भड़क जाते हैं, किसी गुरु के बारे में कुछ कह देने मात्र से तलवारें खिंच जाती है, उसी देश में अगर मस्जिद की परिक्रमा और चर्च के पवित्र तालाब में डुबकी लगाकर तीर्थयात्र का प्रारंभ और समापन किया जाता हो तो इससे बेहतर सर्वधर्म समभाव की मिसाल क्या हो सकती है।
- यह कोई कपोल कल्पित कहानी नहीं है, बल्कि केरल राज्य की हकीकत है। ऐसा करने वाले भी कोई और नहीं बल्कि सबरीमाला मंदिर जाने वाले श्रद्धालु ही हैं। सबरीमाला मंदिर यानी श्री अयप्पा मंदिर की वार्षिक तीर्थयात्र से पहले श्रद्धालु पहले मस्जिद की परिक्रमा करते हैं, जबकि यात्र का समापन चर्च के तालाब में डुबकी के साथ करते हैं।
- नवंबर के मध्य से शुरू होकर दो महीने तक चलने वाले वार्षिक भगवान अयप्पा तीर्थयात्र के दौरान कोट्टायम जिले की वावर पाली मस्जिद (इरुमेली नयनार जुमा मस्जिद) और पड़ोसी अलप्पुझा जिले के अर्थुकल सेंट एंड्रयू बैसिलिका चर्च के मुख्य द्वार को सबरीमाला श्रद्धालुओं के लिए खुला रखा जाता है।
USE IN PAPER 1-SOCIETY,COMMUNILISM,CULTURE 4-ETHICS
9.पीएनबी बेचेगा दो दर्जन एनपीए अकाउंट
- सार्वजनिक क्षेत्र के कर्जदाता पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) ने फंसे कर्ज (एनपीए) संबंधित दो दर्जन अकाउंट्स की बिक्री के लिए निविदाएं आमंत्रित की हैं।अपनी वेबसाइट पर बिक्री सूचना के तहत बैंक ने कहा कि वह असेट रीकंस्ट्रक्शन कंपनियों (एआरसी), गैर बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (एनबीएफसी), अन्य बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं (एफआइ) को इन अकाउंट्स की खरीद के लिए आमंत्रित करता है। अकाउंट्स की बिक्री नियामकीय दिशानिर्देशों के आलोक में बैंक की नीतियों के अनुरूप होगी।
USE IN PAPER 3-BANKING,NPA
10.1977 में ही आयकर के लिए लागू हो जाता पैन
- भारत 1977 में पूरी तरह से कंप्यूटरीकृत टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन सिस्टम लागू करने के एक बेहतरीन अवसर से चूक गया था। इस सिस्टम का प्रस्ताव टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) ने दिया था, जिसे तत्कालीन वित्त मंत्री चरण सिंह ने खारिज कर दिया था। ‘द टाटा ग्रुप : फ्रॉम टॉर्चबियर्स टू ट्रेलब्लेजर्स’ पुस्तक के लेखक और प्रबंधन रणनीतिकार व रिसर्चर शशांक शाह ने कहा कि 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों का कारोबार घट रहा था, क्योंकि केंद्र सरकार देश में कंप्यूटर को बढ़ावा नहीं देना चाहती थी।
USE IN POLICY,GOVERNANCE
11.मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में होगा गिद्धों का संरक्षण
- यहां के जंगलों में गिद्ध की चार प्रजातियां हैं, जिसमें सफेद, चमर एवं देसी गिद्ध सहित एक अन्य प्रजाति के गिद्घ पाए जाते हैं।
ENVIRONMENT,PRELIMINARY
12.जलवायु के लिए बायोप्लास्टिक भी अच्छा नहीं
- लगभग हर चीज के लिए प्लास्टिक का इस्तेमाल हो रहा है। यह जानते हुए भी कि इनका प्रयोग हमारे और पर्यावरण दोनों के लिए नुकसानदेह है, इनसे बनी थैलियां धड़ल्ले से प्रयोग की जा रही हैं। इनके विकल्प के रूप में बायोप्लास्टिक को देखा जा रहा है, लेकिन एक नवीन अध्ययन में इसके इस्तेमाल को भी उचित नहीं पाया गया है। अध्ययन में बताया गया है कि पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक के विकल्प के रूप में सोचे जा रहे बायोप्लास्टिक से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हो सकता है, जो किसी भी तरह से जलवायु के लिए अच्छा नहीं होगा।
क्या है बायोप्लास्टिक
- वैज्ञानिकों के मुताबिक, पौधों और काई से बायोप्लास्टिक तैयार कर पर्यावरण को बचाने में मदद मिल सकती है। काई को उगने के लिए किसी जमीन की जरूरत नहीं पड़ती। साथ ही इसके लिए किसी कीटनाशक का भी प्रयोग नहीं करना पड़ता। काई से बना प्लास्टिक इकोफ्रेंडली होता है और आसानी से गल जाता है। वहीं दूसरी ओर हर साल तेल से बन रहा करीब 30 करोड़ टन प्लास्टिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का अनुमान है कि 2017 में करीब 1.2 करोड़ बैरल तेल का इस्तेमाल प्लास्टिक बनाने के लिए किया गया। 2050 में यह आंकड़ा 1.8 करोड़ बैरल तक पहुंचने का अनुमान है। हालांकि अब नवीन अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बायोप्लास्टिक को भी उचित नहीं माना है। ऐसे में इस समस्या के निदान के लिए और विकल्प तलाशने की आवश्यकता है।
- EDITORIAL
1.संस्कृति से काटती शिक्षा प्रणाली
- शिक्षा की संस्था सभ्य समाज की एक जरूरी संस्था का स्थान ले चुकी है। अत: शिक्षा किसलिए हो या उसका क्या उद्देश्य हो, यह प्रश्न समाज और व्यक्ति के जीवन के संदर्भ में उठना स्वाभाविक है। देश में आजकल यह बात आम होने लगी है कि हमारी शिक्षा अपने परिवेश-संस्कृति से कटती जा रही है। जिस समाज या संस्कृति से शिक्षा का पोषण होता है और जिसके लिए वह प्रासंगिक होनी चाहिए वह एक दु:स्वप्न सरीखी होती जा रही है। इन सबके बीच जो पढ़-लिख जाता है वह मानो एक बड़ी यांत्रिक व्यवस्था के उपकरण के रूप में ढल जाता है। प्रतिस्पर्धा की दुनिया में उसका उद्देश्य सफलता, उपलब्धि और भौतिक प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ने तक सीमित हो रहा है। इस तरह यह शिक्षार्थी के मानस को संकुचित बनाने का काम कर रही है। एक ओर तो विश्वस्तरीय शिक्षा देने का संकल्प लिया जाता है तो दूसरी ओर सर्वत्र एक ही र्ढे पर पढ़ाई करने की कवायद भी जारी है। आज प्रचलित शिक्षा मनुष्य को स्वचालित रोबोट बनाने पर जोर देती है। इस शिक्षा से निकलने वाले होनहार युवाओं की स्थिति विचित्र हो रही है। जिस सीढ़ी के सहारे चढ़कर वे ऊपर पहुंचते हैं उस सीढ़ी से बेङिाझक अलग हो जाते हैं। वे उस भूमि से अलग हो जाते हैं जिसने जीवन दिया। यह शिक्षा सांस्कृतिक विचार, विश्वास, सहयोग, सहनशीलता आदि की कीमत पर दी जा रही है। लिहाजा उनमें सामाजिक सृजनात्मकता और निजी लाभ के आगे किसी तरह की सामाजिक सकारात्मकता विरल होती जा रही है।
- यदि हम स्कूली शिक्षा को लें जो शिक्षा का प्रवेश द्वार है तो पाते हैं कि भारत में पहले कई तरह के विद्यालय चलते रहे हैं। यहां प्राचीन काल में गुरुकुल, पाठशाला और मदरसा मौजूद थे। यहां आने के बाद अंग्रेज अधिकारियों ने प्रारंभिक शिक्षा के संबंध में जो रपटें लिखीं वे आश्चर्यजनक रूप से इसकी अच्छी स्थिति प्रदर्शित करती हैं। उनकी नजरों में तब यहां की शिक्षा संस्कृति से जुड़ी थी। बाद के दिनों में कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा संस्कृति पर ध्यान देने की बात की गई थी। उसने इस बात पर जोर दिया था कि कार्यक्षेत्र, शिक्षा, घर, परिवार, व्यक्ति और समाज के बीच कोई द्वंद्व नहीं होना चाहिए। महात्मा गांधी ने भी ‘नई तालीम’ का विचार दिया था जिसमें शरीर, हाथ, बुद्धि सबका संतुलन होता है और इसके लिए उन्होंने स्थानीय संसाधन के उपयोग का सुझाव दिया था। इसमें निरी बौद्धिकता पर अतिरिक्त बल न देकर शरीर, मन, आत्मा सब पर ध्यान देने की बात कही गई। इसके अंतर्गत स्वावलंबन, देशभक्ति, आत्म-संपन्नता और संयम जैसे जीवन मूल्यों पर बल देना प्रस्तावित है। प्राथमिक शिक्षा से मोहभंग के साथ कई विकल्पों पर काम शुरू हुआ। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन के पास श्रीनिकेतन बनाया था। रुक्मिणी देवी अरुंडेल, एनी बेसेंट और जे कृष्णमूर्ति ने भी अलग-अलग प्रयास किए। इन सब प्रयासों में जीवन कौशल और कला पर बल दिया गया ताकि छात्रों को आस-पास की दुनिया से जुड़ने का भी अवसर मिले। उनका मानना था कि समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिए प्राचीन और नए हुनर भी आने चाहिए जो संस्कृति विशिष्ट होते हैं।
- शिक्षा के मूल्य की अभिव्यक्ति मूर्त और अमूर्त, दोनों माध्यमों से होती है। समाज और समुदाय व्यक्ति से ऊपर होते हैं। भारत की समृद्ध वाचिक परंपरा बड़ी प्राचीन है। आज जो शिक्षा (मस्तिष्क!) विदेश से लाकर देश में प्रत्यारोपित की जा रही है वह एक हद तक भारतीय मूल्यों को जड़ से विस्थापित कर रही है। आर्थिक संपन्नता से सांस्कृतिक विपन्नता की भरपाई नहीं हो सकती। नैतिक मूल्यों का अभाव, तनाव, द्वंद्व, ¨हसा और असहनशीलता तो किसी भी तरह ग्राह्य नहीं हैं। मनुष्यता के विकास के लिए संस्कृति आधारित शिक्षा के अतिरिक्त और कोई साधन उपलब्ध नहीं है। भारतीय संस्कृति की दृष्टि में अच्छी दुनिया वह है जिसमें बहुलता, पारस्परिकता और सह अस्तित्व हों, पर हम इसे छोड़कर अंग्रेजी पर अधिकार करने चले और उसी ने हम पर अधिकार जमा लिया। सांस्कृतिक क्षति के चलते हम बोलने और सोचने को लेकर विभाजित व्यक्तित्व वाले होते जा रहे हैं। अर्थात बाहर से ग्रहण किया या लिया, पर अंदर जो मौजूद है वह गया भी नहीं। अब द्वंद्व और दुविधा के साथ किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं। औपनिवेशिक शक्तियों की भाषा हमारा माध्यम हो गई है। धर्म, भाषा, पशु, पक्षी, प्रतिमा, पुरातत्व, कला, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि के क्षेत्रों में भारतीय अपनी शिक्षा से अपरिचित होते जा रहे हैं।
- हमें अपनी संस्कृति की भी चिंता नहीं है। विद्यालयों में प्रक्रिया के स्तर पर अध्यापक और सहपाठी के साथ सहयोग कैसे स्थापित किया जाए यह आज की कठिन चुनौती बन गई है। आज शिक्षा एक खास तरह का व्यापार बनती जा रही है। विद्यालयों के साथ समाज का रिश्ता नहीं बन रहा है और जन भागीदारी बहुत सीमित हो गई है। आधुनिकता और यहां की प्राचीन ज्ञान परंपरा के बीच आज तक सामंजस्य नहीं बन पाया है। सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रगति तो हो रही है, पर इन सबके बीच इंसान खो गया है। आज बुद्ध, महावीर, ईसा, महात्मा गांधी के विचार कहां हैं? हम किधर जा रहे हैं? आज यह विचारणीय सवाल है। हमें भौतिकता के मिथक तोड़ने होंगे। मशीनीकरण की होड़ से बचना होगा। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्थित सामाजिक चेतना, ब्रrांडीय चेतना ही आधुनिक आत्मकेंद्रित उपभोक्तावाद की समस्या का समाधान कर सकती है। अहं का प्रकृति पर विजय की जगह प्रकृति और समाज के बीच संबंध स्थापित करने से ही स्वराज, स्वदेशी और सवरेदय के विचार जीवित होंगे। शांति की संस्कृति का विकास नैतिक अनुशासन से ही आ सकेगा। और तभी बच्चे में श्रेष्ठ का आविष्कार करने की ललक और स्वावलंबी जीवन व्यतीत करने की इच्छा पनप सकेगी। तभी पूर्ण सामाजिक विकास और धार्मिक समानता भी आ पाएगी।
- दरअसल विचारों का विकास और उनकी समाज में उपस्थिति के कई आधार होते हैं। प्राय: माना जाता है कि आधुनिकता का विचार पश्चिम से भारत की ओर आगे बढ़ा। यहां की अपनी आधुनिकता को औपनिवेशिक आधुनिकता ने नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया। यहां एक तरह की संकर या मिश्रित आधुनिकता का आरंभ हुआ। यहां की आधुनिकता पश्चिमी आधुनिकता से जटिल रूप में जुड़ी और फिर शिक्षा का सांस्कृतिक विमर्श भी बाधित हुआ। जाहिर है शिक्षा का प्रयोजन भविष्य के लिए तैयारी और नियोजन से जुड़ा है। इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे में जरूरी है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में समय के साथ आ गई इन खामियों को दूर किया जाए।
2.मानव अधिकारों के अधूरे लक्ष्य
- रोटी, कपड़ा, मकान, देह, मस्तिष्क और संपत्ति की सुरक्षा को सामान्यत: मानव के मुख्य हितों के रूप में देखा जाता है। परंतु मनुष्य के हित केवल इन तक सीमित नहीं हैं, इनके अतिरिक्त भी अन्य अनेक आवश्यकताएं हैं। जैसे स्वतंत्रता, समानता, धार्मिक स्वतंत्रता व शोषण से आजादी आदि। राज्यों ने सामाजिक विकास के क्रम में मानव के अनेक हितों को स्वीकार कर उन्हें अधिकार का दर्जा दिया है। कुछ अधिकार राज्य ने कानून बना कर प्रदान किए व अन्य अधिकार राज्य द्वारा सृजित न हो कर मौलिक हैं।
- मानव अधिकारों का विचार नया नहीं है। यूरोप और भारत सहित अनेक अन्य देशों में मानव अधिकार संबंधी विचार सत्रहवीं -अठारवीं सदी से पनपने प्रारंभ हो गए थे। अनेक यूरोपीय विद्वानों ने मानव के प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा दी। इन अधिकारों को नागरिक अधिकार कहा गया। परंतु मानव अधिकारों का आंदोलन केवल इन तक सीमित नहीं रहा, परंतु अन्य विचारधाराओं के उपजने से अन्य अधिकारों का जन्म हुआ।
- मानव अधिकार आंदोलन को वैश्विक स्तर पर पहचान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मिली। उस समय यह अहसास प्रबल था कि मानव अधिकारों की सुरक्षा के बिना विश्व की शांति व सुरक्षा संभव नहीं है और वैश्विक शांति, विकास व मानव अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र की संरचना में मानव अधिकार सुरक्षा की विशेष व्यवस्था सुनिश्चित करने हेतु संयुक्त राष्ट्र चार्टर में मानव अधिकारों के लिए विशेष प्रावधान किए गए। संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग द्वारा बनाए मसौदे को महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा के रूप में अंगीकार किया। इस उद्घोषणा का सर्वव्यापी प्रभाव देखने को मिला और इसमें प्रदत्त अधिकारों को भारत सहित संसार के अधिकतर राष्ट्रों ने अपने घरेलू कानूनों में विशेष स्थान दिया है। भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 में लागू हुआ था और इस पर उस समय अस्तित्व में आ चुकी मानव अधिकार उद्घोषणा का प्रभाव स्पष्ट देखने को मिलता है। इसमें प्रदत्त अनेक अधिकारों को भारतीय संविधान के अध्याय तीन में प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है तथा अन्य को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की श्रेणी में रखा गया है।
- इस उद्घोषणा के आने से मानव अधिकारों की परिभाषा संबंधी समस्या कुछ हद तक कम हो गई थी, परंतु यह उद्घोषणा महासभा का प्रस्ताव होने के कारण राष्ट्रों पर बाध्य नहीं थी। इस कारण उपजी अनुपालन की समस्या को सुलझाने के लिए प्रवर्तन प्रणाली युक्त बाध्यकारी संधियों के निर्माण की आवशयकता थी। इसके निराकरण के लिए दो अंतरराष्ट्रीय संधियों, नागरिक व राजनीतिक अधिकार संधि और आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकार संधि का निर्माण हुआ जो 1976 में अमल में आ गई थी। इन संधियों में मानव अधिकारों को दो भागों नागरिक- राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक में विभाजित कर दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि भिन्न आर्थिक क्षमताओं के चलते राष्ट्रों के लिए सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक अधिकारों की अपेक्षा नागरिक व राजनीतिक अधिकारों का अनुपालन करना आसान होता है।
- संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग ने अनेक अन्य मानव अधिकार संधियों के प्रारूप का निर्माण करने व मानव अधिकारों के प्रवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। परंतु उत्तरोत्तर यह आयोग अपनी निष्पक्षता को लेकर आलोचना का शिकार बनता गया और अंतत: वर्ष 2006 में इसे समाप्त कर इसके स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की गई। यह परिषद वर्तमान में मानव अधिकार सुरक्षा व प्रवर्तन के मामले में विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है। परिषद पर मानव अधिकार उच्चायुक्त कार्यालय के साथ मिल कर संयुक्त राष्ट्र के समस्त सदस्य देशों के मानव अधिकार संबंधी दायित्वों की समीक्षा की जिम्मेदारी है। विश्व में पिछले कुछ वर्षो में भू-राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदला है और अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं जिनका अनेक देशों में मानव अधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। राष्ट्रों के आपसी संघर्ष, ट्रेड वार, आतंकवाद, हिरासत शिविरों में यातनाएं, आंतरिक विद्रोह, शरणार्थी समस्या, स्वतंत्रता आंदोलन व अन्य अनेक घटनाक्रमों से उत्पन्न मानव अधिकार संकट का विश्व हाल ही में साक्षी बना है। मानव अधिकार उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आवश्यक है कि समस्त देश जिम्मेदारी से व्यवहार करें और विश्व शांति व सुरक्षा के प्रति अपनी जिम्मेदारी समङों।
- भारत में घरेलू स्तर पर मानव अधिकारों की सुरक्षा का प्रत्यक्ष उदाहरण भारतीय संविधान में देखने को मिलता है। भारतीय संविधान के अध्याय तीन में मौलिक अधिकारों व अध्याय चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में देखने को मिलता है। मौलिक अधिकारों को न्यायालय के माध्यम से लागू कराया जा सकता है, परंतु नीति निर्देशक तत्वों को इस प्रकार लागू नहीं कराया जा सकता है। यह सर्वविदित है कि भारतीय संविधान में समानता, स्वतंत्रता व जीवन जीने के अधिकार सहित कुछ अन्य अधिकारों को ही मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है व स्वास्थ्य, शिक्षा और कार्य करने सहित अन्य अधिकारों को मौलिक अधिकार न मान कर केवल नीति निर्देशक तत्व माना गया है जिन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य, शिक्षा व कार्य को मौलिक अधिकार घोषित करने से राज्य पर संसाधन उपलब्ध कराने का बोझ बढ़ जाता है और राज्य के स्रोतों के सीमित होने से भारत में ऐसा संभव नहीं हो पाया है। भारत में अब तक केवल छह से 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा को ही मौलिक अधिकार घोषित किया गया है।
- अंतरराष्ट्रीय संधियों का सदस्य होने के कारण भारत पर भी मानव अधिकारों की सुरक्षा व अनुपालन संबंधी दायित्व हैं। भारत ने इस दायित्व के अनुपालन में 1993 में मानव अधिकार सुरक्षा कानून का निर्माण कर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, अनेक राज्यों में राज्य मानव अधिकार आयोगों व मानव अधिकार न्यायालयों की स्थापना की है। परंतु देश में आज भी मानव अधिकार से संबंधित अनेक मुद्दे मौजूद हैं, जिनको संबोधित कर त्वरित उपचार करने की जरूरत है। आज देश में बदलते सामाजिक परिवेश व तेजी से उभरते अपराध व हिंसा के चलते मानव अधिकारों की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।
- मानव अधिकार जीवन केंद्रित हैं और जीवन संग्राम इतना विलक्षण है कि अनेक सामाजिक संस्थाएं, परंपराएं और अनुष्ठान स्वयं जीवन के विरुद्ध हो जाते हैं। नैतिक मूल्य धरे रह जाते हैं और एक मनुष्य दूसरे का दुश्मन बन जाता है। आज इंसानियत एक मोहरा बनकर रह गया है तथा समाज में भटकाव, घुटन और अनिश्चय का दौर दिख रहा है। बाजार हम पर काबिज हो रहा है और मनुष्यता को पुनर्परिभाषित कर रहा है। वैश्वीकरण व संचार क्रांति ने समृद्धि के मार्ग तो खोले हैं, लेकिन साथ ही उसने मनुष्य को वस्तु बना दिया है।
- मानव अधिकार आयोग के पास पहुंचने वाली हजारों लाखों शिकायतों का विश्लेषण करें तो नई ‘महाभारत’ रच जाए। अपराध, भ्रष्टाचार, अत्याचार, भेदभाव आदि के इतने रूप सामने आते हैं कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मानव अधिकारों का दर्शन और ध्येय हमेशा न्यायोचित कर्म पर आधारित होना चाहिए, क्योंकि उसकी सोच मनुष्यता की गहराइयों तक जाती हुई दिखाई पड़ती है। मानव अधिकार आयोग की स्थापना के पीछे मानव अधिकार के मूल भाव एवं जीवन मूल्य के रूप में उसके स्वीकार की दीर्घकालीन पृष्ठभूमि है। आधुनिक शब्द के रूप में ‘मानवाधिकार’ का प्रथम उपयोग 1941 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने किया था। इसमें चार मूलभूत स्वंतत्रताओं का उल्लेख उन्होंने किया था- विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, गरीबी एवं भय से मुक्ति। 25 जून, 1945 को सैन फ्रांसिस्को में स्वीकृत संयुक्त राष्ट्र चार्टर में मानव अधिकार शब्द का प्रयोग किया गया। दिसंबर, 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकृत किया जिसमें नागरिक व राजनैतिक अधिकारों के साथ सामाजिक अधिकारों को भी समाहित किया गया। अपनी स्थापना के 25 वर्षो में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने न केवल मानव अधिकारों के प्रति सजग जागृति के उन्नयन में एक महत्वपूर्ण संस्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, बल्कि समाज के एक सतर्क प्रहरी के रूप में हमारे सामने प्रकट है जिसकी आज किसी स्तर पर उपेक्षा नहीं की जा सकती। शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाज-कल्याण, महिलाओं, बच्चों के अधिकारों आदि के विषय में इसने प्रभावी एवं ऐतिहासिक कदम उठाए ही हैं, संवेदनशील एवं गंभीर मामलों में भी आयोग ने ऐसी व्यवस्था की है कि यथाशीघ्र तथ्यों को एकत्र कर पीड़ित को न्याय एवं राहत पहुंचाने के उपाय किए जा सकें। जन-जन तक मानव अधिकार चेतना को पहुंचाने की दिशा में आयोग के प्रकाशनों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस माध्यम से उसने हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के गौरव की स्थापना में भी अपना योगदान दिया है। आयोग ने हिंदी में भी मानव अधिकार विषयक विपुल साहित्य प्रकाशित करना प्रारंभ किया। आयोग द्वारा मानव अधिकार विषयक अनेक संस्तुतियां मानव अधिकार संरक्षण हेतु उदाहरण बन चुकी हैं। जैसे सिर पर मैला ढोने की प्रथा, हिरासतीय न्याय, किशोर न्याय गृहों में नजरबंदी, नजरबंदियों के मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का अधिकार, विचाराधीन कैदियों के मामलों का शीघ्र निस्तारण, महिलाओं-वृद्धों-मानसिक रोगियों के प्रति कारावास की परिस्थितियों को ज्यादा मानवीय बनाने पर जोर, पुलिस हिरासत में पूछताछ के दौरान शारीरिक मानसिक यातनाएं आदि के संबंध में आयोग की संस्तुतियां सामाजिक न्याय के क्षेत्र में मील का पत्थर बन चुकी हैं।
- इस प्रकार आयोग ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अन्याय के शिकार लोगों को शोषण, अन्याय और अमानवीय यातना से मुक्ति दिलाने का उदात्त प्रयास किया है। दायित्व बोध के अपने निर्वहन में समाज के सभी वर्गाे, विशेषकर मानव अधिकारों के क्षेत्र में सजग मीडिया व्यक्तित्वों, बृद्धिजीवियों और गैर सरकारी समूहों को भी अपने साथ लिया है, क्योंकि मानव अधिकार का भाव ही सबको साधकर, जोड़कर और सबके साथ मिलकर चलने का है।
- 3. सरकारी दफ्तरों में बैठे हुए हाकिमों को ‘जमीनी हकीकत' जानने में जो समस्या पेश आती है, वह कोई नई नहीं है। इतिहास बताता है कि अशोक से लेकर अकबर तक तमाम सम्राट सच जानने के लिए वेश बदलकर अपने राज्य में घूमा करते थे। आज भी हमारी सरकारों के लिए यह जानना एक बड़ी चुनौती है कि उनकी जन-हितकारी योजनाएं कैसी चल रही हैं? कनिष्ठ अधिकारी अक्सर इन योजनाओं के क्रियान्वयन की समस्याओं को कम और अपने प्रदर्शन को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। इस कारण शीर्ष नेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों तक ‘जमीनी हकीकत' मुश्किल से पहुंच पाती है।.
- आज के जमाने में जमीनी हकीकत जानने के लिए वेश बदलकर घूमने की बजाय आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। भारत में मोबाइल इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। साल 2002 में जहां प्रति 100 लोगों में एक मोबाइल था, वहीं 2017 में यह संख्या बढ़कर 62 हो चुकी है। हमारी जिंदगी को मोबाइल ने कई तरह से बदला है, फिर भी सेवा को सुधारने के लिए अब तक इसका इस्तेमाल नहीं किया गया। आज कई योजनाओं में शिकायतें दर्ज करने के लिए हॉटलाइन की सुविधा उपलब्ध है। मगर लाभार्थी शायद ही इनका इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में, बेहतर यही होगा कि सरकार खुद संजीदगी के साथ लोगों को फोन करे और सार्वजनिक योजनाओं के बारे में उनके अनुभवों को जाने। इसे नियमित रूप से करने से हमें वास्तविक आंकडे़ मिल सकते हैं।.
- इसका परीक्षण हाल ही में तेलंगाना की एक महत्वपूर्ण योजना- रायथू बंधु (किसानों का मित्र) में किया गया। इस योजना में तेलंगाना सरकार ने किसानों को खेती के हर सीजन में बीज और खाद जैसी महत्वपूर्ण लागत के भुगतान में मदद के लिए प्रति एकड़ 4,000 रुपये दिए। किसानों को पैसे का भुगतान मंडल (उप-जिला) कृषि अधिकारी के कार्यालय से चेक के रूप में किया गया। यह तेलंगाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली योजना थी और इसकी सावधानीपूर्वक निगरानी भी की गई। फिर भी, जैसा कि आमतौर पर होता है, इसके क्रियान्वयन में तमाम तरह की मुश्किलें आ सकती थीं। मसलन, चेक जारी न होना, उनका सही वितरण न होना, बांटने में देरी या फिर रिश्वत की मांग होना।.
- इस योजना के तहत दो सप्ताह के भीतर 20,000 से अधिक लाभार्थियों को फोन किया गया। हमने उनसे कुछ बुनियादी सवाल पूछे। जैसे- उन्हें चेक कब और कहां मिला? क्या उन्होंने इसे बैंक में जमा कर धन हासिल किया? और क्या उन्हें इसके लिए रिश्वत भी देनी पड़ी? लगभग 25 फीसदी मंडल कृषि अधिकारियों को यह सूचित किया गया था कि उनके मंडल में ऐसी निगरानी की जा रही है। उनको यह भी बताया गया कि इस निगरानी के आंकड़ों से उनकी व्यक्तिगत प्रदर्शन-रिपोर्ट बनाई जाएगी, जो उनको और उनके वरिष्ठ अधिकारियों को दी जाएगी। खास बात यह थी कि इन 25 फीसदी मंडल कृषि अधिकारियों का चयन लॉटरी के माध्यम से किया गया, जिससे हम फोन निगरानी वाले और बिना निगरानी वाले मंडलों की तुलना करके भरोसेमंद तरीके से निगरानी के प्रभाव का मूल्यांकन कर सकें। .
- इस सामान्य सी घोषणा का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस योजना को तेलंगाना राज्य सरकार ने प्राथमिकता दी थी। इसलिए जहां फोन आधारित निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं थी, योजना उन इलाकों में भी अच्छी तरह से संचालित हुई। वहां 83 फीसदी किसानों को चेक मिले। हालांकि जहां फोन आधारित निगरानी व्यवस्था थी, वहां पर 1.5 फीसदी अधिक किसानों को चेक मिले। इस निगरानी से उन किसानों को कहीं ज्यादा फायदा पहुंचा, जो वंचित थे। इस वर्ग में निगरानी के कारण 3.3 फीसदी अधिक किसानों को चेक मिले। अच्छी बात यह भी थी कि जिन किसानों के पास फोन नहीं था, उन्हें भी ठीक उसी तरह इस फोन आधारित निगरानी का लाभ मिला, जितना कि फोन रखने वाले किसानों को मिला। यह स्थिति बता रही थी कि मंडल कृषि अधिकारी ने सिर्फ उन्हीं किसानों की सुध नहीं ली, जिनके पास फोन थे। हमने यह सब पता करने के लिए जिस कॉल सेंटर का इस्तेमाल किया, उस पर भी काफी कम खर्च आया। महज 25 लाख रुपये खर्च करके हमने किसानों के लिए अतिरिक्त सात करोड़ रुपये का वितरण पक्का किया। हमारे पास जितनी योजनाओं के आंकड़े हैं, उनमें से इसमें सबसे कम प्रशासनिक लागत (3.6 फीसदी) है।.
- दूसरी तमाम योजनाओं में इस तरह की रणनीति काफी कारगर हो सकती है। खासतौर से, राशन योजना (पीडीएस) और मनरेगा जैसी प्रमुख योजनाओं में(जहां क्रियान्वयन में ज्यादा कमियां हैं) सुधार की गुजाइंश रायथू बंधु योजना से कहीं ज्यादा है। इनमें फोन से निगरानी के साथ-साथ योजनाओं को जमीन पर लागू करने वाले अधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार की घोषणा भी की जा सकती है (हालांकि तेलंगाना सरकार ने इस प्रयोग में ऐसा नहीं किया), और आंकड़ों को सार्वजनिक करके समाज में लोकतांत्रिक जवाबदेही की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। नियमित निगरानी से एक बड़ा असर यह भी होगा कि इन्क्रीमेंट (वेतन-वृद्धि), पदोन्नति और नियुक्ति जैसे कर्मियों के प्रबंधन के विषयों में वरिष्ठ अधिकारी कहीं अधिक निष्पक्ष बन सकते हैं। दुनिया भर के अध्ययन यही बताते हैं कि कर्मियों का प्रबंधन शासन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।.
- भारत जब पहले से ही दुनिया को कॉल सेंटर की सेवाएं देने के मामले में सबसे आगे है, तो फिर स्थानीय प्रशासन को सुधारने में हम खुद इसका लाभ क्यों नहीं उठाते? आज दुर्गम इलाकों तक मोबाइल की पहुंच है, और मोबाइल फोन द्वारा कई सामाजिक कार्यक्रमों में लाभार्थियों के अनुभवों से संबंधित आंकडे़ जमा किए जा सकते हैं। राशन वितरण से मनरेगा के काम और स्कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति तक, सभी में कॉल सेंटर से आंकडे़ जमा किए जा सकते हैं। यह सही है कि दूसरे क्षेत्रों और राज्यों में इस तकनीक को अपनाने के लिए और ज्यदा परीक्षण करने की आवश्यकता है। लेकिन अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इससे शासन-प्रशासन में उल्लेखनीय सुधार की संभावना है।.