आधी-अधूरी स्वायत्तता से साख को आंच prasar Bharati


BBC V/S Prasar Bharati


विश्वसनीयता के संदर्भ में लंबे अर्से तक BBC द्वारा प्रसारित समाचारों पर भरोसा किया जाता रहा है, और इसका कारण बीबीसी की स्वायत्तता थी। बीबीसी यानी ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन की एक स्वतंत्र सत्ता थी। इंग्लैंड की सरकार को उसके कामकाज में दखल देने का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद, स्वतंत्र भारत में आकाशवाणी और दूरदर्शन को सरकारी नियंत्रण में ही काम करना पड़ता था। प्रसारण के ये दोनों माध्यम हमारे यहां सरकारी माध्यम ही कहलाते थे-सरकार के प्रचार-तंत्र का हिस्सा।


Step towards autonomy of Prasar Bharati & Doordarshan


इसीलिए, अर्से से यह मांग होती रही थी कि आकाशवाणी और दूरदर्शन को सरकारी शिकंजे से मुक्त किया जाए। बीबीसी की तरह ही रेडियो और टेलीविजन को स्वायत्तता दे दी जाए ताकि वे जनता तक जानकारी पहुंचाने का काम ईमानदारी से कर सकें। वर्ष 1990 में संसद ने एक कानून बनाकर रेडियो और टेलीविजन को स्वायत्तता देने को मंजूरी दे दी, पर यह कानून लागू हुआ 1997 में। अर्थात पिछले लगभग दो दशक से, कम से कम कानूनी दृष्टि से आकाशवाणी और दूरदर्शन, दोनों स्वायत्त हैं। प्रसार भारती नाम से गठित यह संस्थान संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार स्वायत्तता का दावा कर सकता है। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद हमारा यह सूचना संस्थान बीबीसी जैसी वह विश्वसनीयता प्राप्त नहीं कर पाया है, जिसके चलते कभी राजीव गांधी को भारत के प्रधानमंत्री की हत्या के समाचार की पुष्टि के लिए बीबीसी पर समाचार सुनना ज़रूरी लगा था।
    इस दौरान, स्वायत्तता के प्रावधान के बावजूद, प्रसार भारती पर किसी न किसी रूप में सरकारी हस्तक्षेप बना ही हुआ है। इतने ताकतवर मीडिया को हाथ से फिसल जाने देने को स्वीकार ही नहीं कर पा रही हैं सरकारें। 

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    यूं तो देश में सैकड़ों समाचार चैनल हैं, पर आकाशवाणी और दूरदर्शन की पहुंच सर्वाधिक है-देश के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से तक इन दो माध्यमों की आवाज़ पहुंचती है और सरकार चाहती है कि इस आवाज़ में उसका प्रचार ही पहुंचे।
    देश के बाकी सभी स्वायत्त संस्थानों की तरह ही प्रसार भारती में भी सरकारी प्रतिनिधि का स्थान सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। उसकी आवाज़ सबसे ताकतवर होती है क्योंकि वह सरकार का, संबंधित मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करता है। वैसे भी, सरकार की कोशिश यही रहती है कि प्रसार-भारती जैसे संस्थान उसके कब्जे में रहें और इसीलिए समय-समय पर इस तरह की कवायद होती रहती है, जिससे संस्थान के बाकी घटक अपनी सीमा में रहें। प्रसार-भारती को नाम तो स्वायत्त संस्थान का दिया गया है पर कार्यप्रणाली कुछ ऐसी रखी गयी है कि इसके माध्यम से सरकार अपना स्वार्थ साधती रहे।


Recent attack on autonomy


    हाल ही में संस्थान में एक महत्वपूर्ण नियुक्ति के संबंध में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का निर्देश इसका ताज़ा उदाहरण है। मंत्रालय ने बोर्ड को दो निर्देश दिए हैं : पहला तो एक महत्वपूर्ण पद पर किसी आईएएस अधिकारी को नियुक्त करने का और दूसरा सभी अनुबंधित कर्मचारियों को सेवा से मुक्त करने का। 
    ये दोनों ही कदम प्रसार भारती बोर्ड की स्वायत्तता के पर कतरने वाले हैं। देखा जाए तो ये दोनों निर्देश उस कानून का उल्लंघन हैं, जिसके तहत बोर्ड को स्वायत्तता प्रदान की गई थी। ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया एक्ट में स्पष्ट लिखा है कि कॉरपोरेशन के सारे काम बोर्ड के अधिकार-क्षेत्र में होंगे। लेकिन हकीकत यह है कि गठन के दो दशक बाद भी, प्रसार-भारती की स्वायत्तता आधी-अधूरी ही है। 
    आकाशवाणी और दूरदर्शन पर आज भी इस बात की सावधानी बरती जाती है कि सरकार के विरुद्ध कुछ न चला जाए। सरकार में बैठे लोग यह स्वीकार नहीं करेंगे, पर हकीकत यही है कि आज भी आकाशवाणी और दूरदर्शन सरकारी मीडिया ही माने जाते हैं और अधिकारीगण कार्यक्रम में भाग लेने वालों को अपनी सीमाओं का संकेत दे ही देते हैं।
और ये सीमाएं इसलिए हैं कि इन विभागों की नकेल सरकार के ही हाथ में होती है। बोर्ड की संपत्ति पर अब भी मंत्रालय का कब्ज़ा है। 
    अभी भी मंत्रालय ही इनके बजट को अंतिम रूप देता है। 
    प्रसार-भारती की पूर्व अध्यक्ष एवं जानी-मानी पत्रकार मृणाल पांडे का कहना है कि बोर्ड को न संपत्ति बेचने का अधिकार है, न खरीदने का, बोर्ड अपनी मर्जी से पूर्णकालिक कर्मचारी भी नियुक्त नहीं कर सकता। बोर्ड के हर प्रस्ताव पर विभिन्न सरकारी-विभाग और मंत्रालय विचार और पुनर्विचार करते हैं।


Government changes but attitude remains the same


यह स्थिति चिंतनीय भी है और चिंताजनक भी। भाजपा जब तक विपक्ष में थी, अक्सर प्रसार-भारती के तौर-तरीकों पर आपत्ति उठाती थी। लेकिन, सत्ता में आने के बाद वह भी इस ताकत को अपने कब्ज़े में बनाए रखने का ही कार्य कर रही है। आईएएस अधिकारी की विवादास्पद नियुक्ति का आदेश कब्जा बनाए रखने की एक कोशिश के रूप में ही देखा जाना चाहिए। मंत्रालय ने प्रसार भारती बोर्ड के तीन सदस्यों में से एक आईएएस अधिकारी को बनाने का निर्देश जारी किया है। इसका मतलब यह होगा कि यह तीसरा सदस्य सरकारी अधिकारी होने के नाते बोर्ड के प्रति नहीं, अंतत कैबिनेट के सेक्रेटरी के प्रति उत्तरदायी होगा। यह आईएएस अफसर बोर्ड का कार्मिक अधिकारी होगा। स्पष्ट है, नकेल उसी के हाथ में होगी। यानी सरकारी नियंत्रण बनाए रखने का एक और माध्यम होगा यह अधिकारी। इस दृष्टि से देखें तो बोर्ड में सदस्य (कार्मिक) की नियुक्ति का विरोध सर्वथा उचित है। अनुबंधित कर्मचारियों की छंटनी का आदेश भी, सही है, तो चिंता की बात है। संदेह उत्पन्न होता है सरकार की इस कार्रवाई पर-कहीं यह अपने आदमियों को लाने की किसी सोची-समझी नीति का हिस्सा तो नहीं।


ज्ञातव्य है कि जनता पार्टी के शासनकाल में भी, जब लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, इस आशय के आरोप लगे थे कि उन्होंने अपने आदमियों की नियुक्तियां किसी योजना के तहत की थीं। इस तरह की कार्यवाहियां सरकार के इरादों पर प्रश्नचिन्ह ही लगाती हैं।
ऐसी स्थिति में जबकि समूचे मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल हो, प्रसार-भारती पर सरकारी नियंत्रण के बढ़ने के संकेत, संकट को बढ़ाने वाले ही हैं। मीडिया को सरकारी और बाज़ारी सत्ता के चंगुल में फंसने देने का मतलब उस विश्वसनीयता को खोना है जो समूचे मीडिया को अर्थवत्ता देती है। अपने भीतर की जानकारी के लिए बाहरी माध्यमों पर निर्भरता, किसी भी दृष्टि से अच्छी नहीं है। किसी भी खबर की पुष्टि के लिए किसी बीबीसी पर विश्वास करने की स्थिति लज्जा की बात है। ऐसी स्थिति न आए, इसके लिए मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा होनी ही चाहिए।


#Dainik_Tribune

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