#Business_Standard
Transparency International की तरफ से जारी भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक में भारत 176 देशों की सूची में 79वें स्थान पर है। यहां भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा हिस्सा सार्वजनिक कोष में गड़बडिय़ों से जुड़ा हुआ है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के मुताबिक भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 30 फीसदी हिस्सा सरकारी खरीद में व्यय करता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसमें होने वाला भ्रष्टाचार कितने बड़े स्तर तक पहुंचा है? अनुमान है कि सार्वजनिक परियोजनाओं में होने वाला 20-30 फीसदी सरकारी निवेश भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अगर इसके साथ सरकारी राजस्व में होने वाली गड़बड़ी को भी जोड़ लें तो भ्रष्टाचार की यह कहानी काफी परेशान करने वाली है।
To check these we have CAG
संविधान निर्माताओं ने सार्वजनिक कोष से संबंधित प्रावधानों को तय करते समय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) को एक स्वतंत्र दर्जा और प्राधिकार दिया था। इसके पीछे सोच यही थी कि यह संस्था बिना किसी भय या पक्षपात के कदाचार के खिलाफ पहरेदार के तौर पर काम कर सके। लेकिन लगता है कि सीएजी संस्था सरकारी धन की लूट पर लगाम लगाने में नाकाम रही है। चुनाव आयोग ने जहां नई चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए अपनी भूमिका का लगातार विस्तार किया है वहीं सीएजी लेखा-परीक्षण का तयशुदा काम करने तक ही सीमित रहा है।
Working of CAG
हालांकि सीएजी की रिपोर्टों पर संसद और विधानसभाओं की लोकलेखा समितियों में सरसरी तौर पर चर्चा होती है लेकिन कोई भी सीएजी के कामकाज पर न तो सवाल उठाता है और न ही इसकी समीक्षा करता है। इसका नतीजा यह होता है कि:
यह अपनी किलेबंद दीवारों के भीतर ही काम करता है। यह विशेषज्ञों, पेशेवरों या संस्थानों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद भी नहीं करता है।
यह लोक सेवकों और आम जनता के हित में अपनी नीतियों या तरीकों का विस्तार नहीं करता है और यह मूलत: एकालाप में ही भरोसा करता है। ऐसी कोई भी दूसरी संवैधानिक संस्था नहीं है जो सीएजी जैसा तनहा और पहुंच से बाहर हो। सीएजी विशेषाधिकारों और सुविधाओं की एक आरामदेह खोह में पहुंच गया है।
Is this just a post mortem agency
केवल पुराने मामलों की ही पड़ताल करने से सीएजी को असल में ‘भारत का पोस्टमॉर्टम प्राधिकरण कहा जाना चाहिए। हालांकि इस संस्था को समवर्ती लेखा-परीक्षण (Concurrent audit) की अनुमति मिली हुई है। भले ही इसकी बुनियादी भूमिका लेखा-परीक्षण की है लेकिन कोई भी प्रावधान इसे वित्तीय गड़बड़ी पर रोक लगाने वाले उपाय करने से नहीं रोकते हैं। सीएजी की तमाम रिपोर्टों को देखने से साफ है कि उसने कभी भी आर्थिक गड़बडिय़ों को रोकने के लिए दिशानिर्देश या परामर्श जारी करने की कोशिश नहीं की है। इसकी रिपोर्ट आम तौर पर घटना खत्म हो जाने के काफी बाद आती है और अमूमन उसे लिखा भी इस तरह जाता है कि गड़बड़ी करने वालों पर शायद ही उसका असर होता है। इस तरह सीएजी की पूरी मेहनत जाया हो जाती है।
Lackadaisical attitude of CAG
हमें अच्छी तरह पता है कि स्थानीय पुलिस की नाकामी से ही उस इलाके में अपराध बढ़ता है। सीएजी के मामले में भी कुछ उसी तरह की शिथिलता रही है। आखिर बड़े पैमाने पर हुई लूट-खसोट की किस तरह व्याख्या की जा सकती है? घोटाले बढ़ती तेजी से सामने आते रहे हैं लेकिन सीएजी इनमें से बहुत कम घोटालों का ही पर्दाफाश कर पाया है और उनके भी नतीजे बहुत सीमित रहे हैं। इस तरह सीएजी सरकारी धन की लूट पर अपेक्षित रोक नहीं लगा पाया है।
Other lacunas in working of CAG
CAG का झुकाव अप्रत्याशित फैसलों के प्रति नजर आता है क्योंकि यह ईमानदार एवं मेहनती निर्णय-निर्माण को अक्सर फटकार लगाता है। इसके चलते नौकरशाह फैसले लेने से ही बचना पसंद करते हैं। आम धारणा है कि सीएजी, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) का दखल बढऩे से सरकारी कामकाज धीमा हुआ है जिससे शासन और कल्याण कार्यों का काफी नुकसान हुआ है। जहां सीबीआई और सीवीसी का कामकाज सरकार के दायरे में आता है वहीं सीएजी को अपनी नीतियां तय करने और अपनी नाकामियां स्वीकार करने की पूरी आजादी है।
न्यायशास्त्र कहता है कि किसी आपराधिक कृत्य के लिए किसी व्यक्ति को दंडित करने के पहले उसके ऊपर लगे आरोप को पूरी तरह साबित करना होता है। सिविल मामले में किसी की जवाबदेही तय करने के लिए पर्याप्त सबूत होने चाहिए। हालांकि सीएजी संदेह की सूरत में नया प्रतिमान बनाते हुए नजर आता है। जब भी उसे किसी मामले में संदेह होता है तो वह संबंधित लोक सेवकों को ही दंडित कर देता है। सीएजी के कर्मचारी आम तौर पर नियमित सरकारी लेनदेन का परीक्षण करने के लिए ही प्रशिक्षित हैं लेकिन अब उन्हें जटिल आर्थिक मामले भी देखने पड़ रहे हैं जो उनकी क्षमता के बाहर की बात लगती है। नतीजा यह होता है कि अक्सर सतही और दोषपूर्ण रिपोर्ट सामने आती हैं। वे गड़बड़ी करने वाले लोगों को चिह्निïत करने के लिए सख्ती से जांच नहीं करते हैं।
ध्यान आकृष्ट करने के लिए पिछले कुछ वर्षों से इन रिपोर्टों में सनसनी की प्रवृत्ति देखी जा रही है। स्पेक्ट्रम और कोयला खदान घोटालों के संदर्भ में सीएजी की तरफ से जारी भारी-भरकम आंकड़ों को ही लीजिए। निश्चित रूप से सीएजी ने इन घोटालों को उजागर करने का उल्लेखनीय कार्य किया था लेकिन उसने पुष्ट न किए जा सकने वाले आंकड़े देकर अपनी विश्वसनीयता के साथ ही समझौता किया। सनसनीखेज रिपोर्ट जारी करने की इस प्रवृत्ति के चलते सीएजी अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल करते हुए संबंधित मामलों का वस्तुपरक एवं विवेकपूर्ण परीक्षण करने से भटकता हुआ दिख रहा है।
कोई भी राष्ट्र उसके संस्थानों से बनता है। सीएजी संस्था को संविधान-निर्माताओं ने बेहद अहम माना था लेकिन उनकी उम्मीदें गलत साबित हुई हैं। अब सीएजी को अपना आकलन करने का समय आ गया है और इसी के साथ इसकी भूमिका और दायित्वों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चा की भी जरूरत है। यह संस्था भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में अग्रणी भूमिका निभा सकती थी और भारत को भ्रष्टाचार सूचकांक में अपनी स्थिति सुधारने की सख्त जरूरत है।