रोजगार लायक कौशल नहीं दिला पा रही शिक्षा व्यवस्था 

This article discus : education and how much helpful to secure job
#Business_Standard
वैश्विक प्रतिभा प्रतिस्पर्धा सूचकांक में भारत की स्थिति सुधरी है और वह गत वर्ष के 92वें स्थान से 81वें स्थान पर आ गया है। यह सूचकांक एडेको, इनसीड और टाटा कम्युनिकेशंस द्वारा विश्व आर्थिक मंच की दावोस में आयोजित सालाना बैठक के पहले दिन जारी किया गया। इस सूचकांक में इस बात का आकलन किया जाता है कि विभिन्न देश अपनी प्रतिभाओं का विकास कैसे करते हैं, उन्हें अपनी ओर आकर्षित कैसे करते हैं और किस तरह उनको अपने साथ जोड़े रखते हैं। बहरहाल अच्छी खबर यहीं तक सीमित है क्योंकि सन 2017 में भारत की रैंकिंग पांच ब्रिक्स देशों में सबसे कमजोर थी। चीन 43वें, रूस 53वें, दक्षिण अफ्रीका 63वें और ब्राजील 73वें स्थान पर रहा।
विविधता इस सूचकांक के प्रमुख घटकों में से एक है। इसकी आवश्यकता उन जटिल कामों के लिए होती है जिनमें रचनात्मकता जरूरी होती है। रिपोर्ट के सह संपादक पॉल इवांस के मुताबिक पिछले कुछ दशकों में विविधता का सवाल काफी अहम होकर उभरा है क्योंकि अब तमाम देशों को भी यह समझ में आ गया है कि एकरूपता और समन्वय में काफी अंतर है। इनके बीच के अंतर को सक्षमता, प्रतिस्पर्धा और नवाचार के मानकों पर आंका जा सकता है। औपचारिक शिक्षा पर सहयोगपूर्ण सक्षमता तैयार करने की अहम जिम्मेदारी है। एक समावेशी विश्व के लिए यह आवश्यक है।
Human resource key to growth
जिन देशों को बतौर संसाधन विविधता का मूल्य पता है और जो उसे प्रभावी ढंग से अपनाते हैं वे इस वर्ष के सूचकांक में शीर्ष पर हैं। उदाहरण के लिए स्विट्जरलैंड एक बार फिर इस सूचकांक में शीर्ष पर है। वह अपनी प्रतिभाओं को संभालता है और नई प्रतिभाओं का स्वागत भी करता है। स्विट्जरलैंड की एक चौथाई आबादी विदेशों में पैदा हुई है, हालांकि वहां स्त्री-पुरुष अनुपात का मसला बरकरार है। मध्य आय वर्ग वाले देशों में मलेशिया का प्रदर्शन अच्छा है और वह 27वें स्थान पर है। वहां श्रमिकों को भर्ती करने के मानक आसान हुए हैं और माध्यमिक शिक्षा में रोजगार को लेकर वह प्रभावी कौशल तैयार कर सका है।
Brain drain and India
सूचकांक प्रतिभा पलायन के विषय पर भी बात करता है यानी कैसे देश अपनी सर्वश्रेष्ठï प्रतिभाओं को अपने साथ बरकरार रखता है। इस मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन काफी कमजोर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारा देश प्रतिभा पलायन के मोर्चे पर काफी सुधार कर सकता है। इसके लिए उसे बाहर जा चुकी प्रतिभाओं को दोबारा आकर्षित करना होगा। इस मोर्चे पर सूचकांक में हमें 98वां स्थान और प्रतिभाओं को बरकरार रखने के मामले में 99वां स्थान मिला है। खासतौर पर उच्च कौशल वाले लोगों बाहर जाने की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए प्रतिभाओं को आकर्षित करना अहम है।
इसकी वजह एकदम स्पष्टï है। मेहनताने की बात की जाए तो शैक्षणिक जगत में अमेरिका में एक भारतीय को मिलने वाला वेतन अपने भारतीय समकक्ष की तुलना में छह गुना तक होता है। प्रबंधन में यह अंतर तीन गुना और आईटी में दो गुना तक है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि भारत विदेशों से प्रतिभाओं को आकर्षित कर पाने में नाकाम है। इस मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन निहायत खराब है। सबसे अहम बात यह है कि शीर्ष रैंकिंग वाले तमाम देशों में एक बात समान थी। उन सभी की शिक्षा व्यवस्था अच्छी तरह विकसित है और उनमें मौजूदा श्रम बाजार की जरूरतों के मुताबिक कौशल प्रदान किया जाता है।
    इस मोर्चे पर भारत बहुत हद तक नाकाम है। असर 2017 रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण भारत में 14 से 18 की उम्र के बच्चे बड़ी तादाद में हर साल स्कूल छोड़ देते हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक करीब 17 लाख बच्चे हर वर्ष स्कूल से बाहर हो जाते हैं। 
    बड़ी समस्या यह है कि जो बच्चे स्कूल में बने भी रहते हैं वे भी एकदम बुनियादी बातें नहीं सीख पाते। ये बच्चे बमुश्किल साक्षर होते हैं और ऐसे में वे किसी कौशल विकास पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हो सकते। नतीजा, वे या तो कोई छोटा-मोटा काम करते हैं या बेरोजगार रहते हैं। उन्हें या तो खेतों में काम करना पड़ता है या फिर वे छोटी-मोटी मजदूरी करते हैं।
    सरकार ने खुद यह संकेत दिया है प्रधानमंत्री कौशल विकास कार्यक्रम के अधीन अप्रैल 2016 तक करीब 17.6 लाख लोगों को प्रशिक्षण दिया गया उनमें से केवल 5.60 लाख लोगों ने इसे सफलतापूर्वक पूरा किया। इनमें से भी केवल 82,000 लोगों को रोजगार मिला। परंतु जिन लोगों को रोजगार मिला उनका कौशल भी बहुत जल्दी पुराना पड़ गया क्योंकि देश में ऐसा कोई तंत्र नहीं है जिसके तहत इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, कृषि मशीन संचालकों और अन्य कौशल वाले श्रमिक अपने कौशल को निरंतर उन्नत बना सकें। विकसित देशों में इसके लिए संस्थागत लाइसेंसिंग की व्यवस्था है।
स्त्री-पुरुष असमानता भी एक मुद्दा है। एक बार आठ वर्ष की अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा समाप्त होने के बाद लड़कियां, लड़कों की तुलना में अच्छे नंबर पाने के बावजूद स्कूल जाना बंद कर देती हैं। 18 वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते शिक्षा छोडऩे वाली लड़कियों की तादाद इसी उम्र के लड़कों की तुलना में 4.3 फीसदी अधिक होती है। जब तक ये मुद्दे देश की प्राथमिकता सूची में नहीं आते तब तक प्रतिभा प्रतिस्पर्धा के वैश्विक सूचकांक में अपनी स्थिति सुधरने के बारे में हम सोच भी नहीं सकते।

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