कार्यस्थल पर लैंगिक समानता (gender equality) कायम करने की कीमत

What cost we have to bear for gender equality at working places
#Business_Standard
आम बजट में महिला कर्मचारियों के भविष्य निधि अंशदान को मानक 12 फीसदी से कम करके 8 फीसदी करने का प्रस्ताव रखा गया है जबकि नियोक्ता के अंशदान में कोई बदलाव नहीं है। क्या 4 फीसदी का यह अंतर और अधिक महिलाओं को कंपनियों में रोजगार की ओर ले आएगा? इसकी संभावना नहीं है। आइए जानते हैं क्यों? 
    पहली बात, यह प्रोत्साहन इतना ज्यादा नहीं है कि महिलाएं इसकी बदौलत अचानक रोजगार तलाशना शुरू कर दें। यह बात याद रखने लायक है कि एक वक्त था जब करदाता महिला कर्मचारियों को पुरुषों की तुलना में ज्यादा स्टैंडर्ड डिडक्शन का लाभ मिलता था। हालांकि 1990 के दशक में इसे खत्म कर दिया गया। उस वक्त भी हममें से अधिकांश लोगों को संतुष्टिï मिली थी लेकिन कार्यस्थल पर लैंगिक समानता कायम करने की दिशा में कोई खास मदद नहीं मिली।
    सरकार ने इस मसले को गलत जगह से उठाया है। जैसा कि वित्त मंत्री ने कहा भी भविष्य निधि संबंधी राहत का उद्देश्य श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना है। परंतु श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी में लगातार आ रही गिरावट के बारे किए गए शोध से पता चलता है कि आम धारणा के उलट महिलाओं की भागीदरी में कमी इसलिए नहीं आ रही है कि वे उच्च शिक्षा ले रही हैं। इसके लिए सामाजिक वजह भी उत्तरदायी नहीं हैं। विश्व बैंक के जेंडर विभाग की वरिष्ठï निदेशक कैरेन ग्राउन के मुताबिक द्वितीयक और तृतीयक शिक्षा में उच्च नामांकन इस गिरावट के बहुत मामूली हिस्से के लिए उत्तरदायी है।
    तीसरी बात, इस प्रोत्साहन को संगठित क्षेत्र में देना कोई खास समझदारी नहीं है क्योंकि देश के रोजगार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी बहुत सीमित है। जहां तक बाद लैंगिक संतुलन की है तो वास्तविक मुद्दा आज भी वही है जो पहले था। यानी महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने से बड़ी समस्या है कंपनियों को उन्हें काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित करना। हमें पता है कि महिलाओं को काम पर न रखने के पीछे काफी हद तक भारतीय समाज में निहित मर्दवादी धारणा जिम्मेदार है। परंतु इसके लिए कई अन्य कारक भी उत्तरदायी हैं। इनमें से एक प्रमुख वजह है महिलाओं के लिए उपयुक्त कार्य परिस्थितियों का न होना। इसमें न केवल यौन शोषण से संरक्षण का मसला है बल्कि बेहतर शौचालय और रात की पाली में काम करने वाली महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल का न होना भी बड़ी वजह है। कई फैक्टरी मालिक तो लागत बचाने के लिए शौचालय बनाते ही नहीं हैं और रात की पाली में काम करने वाले कर्मचारियों को परिवहन सुविधा नहीं दी जाती। वे फैक्टरी के फर्श पर ही सो जाते हैं। ये हालात पुरुषों के लिए चल भी जाएं तो महिलाओं के लिए नहीं चल सकते।
    इसके अलावा वह सनातन शिकायत तो है ही कि महिलाओं के मां बनने पर कंपनी को पूरी छुट्टïी देनी पड़ती है और खर्च उठाना पड़ता है और इस पूरी अवधि के लिए उनका स्थानापन्न खोजना पड़ता है। सरकार ने महिलाओं और शिशुओं के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उक्त लागत तो बढ़ा ही दी, साथ ही मातृत्व अवकाश भी 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह का कर दिया। 50 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों के लिए पालनाघर बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। ये सभी प्रावधान समझदारी भरे प्रतीत होते हैं क्योंकि भारतीय समाज में बच्चे को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है।
कई बड़े निगम, खासतौर पर MNC आईटी कंपनियों की अनुषंगियों में वर्षों से ऐसी सुविधाएं मिल रही हैं और वे अपने कर्मचारियों में महिलाओं की अच्छी खासी तादाद को लेकर सचेत हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां और बैंक भी इस मामले में उदार हैं लेकिन ऐसे बड़े और धनाढ्य संस्थान अपवाद हैं क्योंकि वे इस लागत को वहन कर सकते हैं। सरकारी कंपनियां ऐसा इसलिए करती हैं क्योंकि वे कानून का पालन करने को बाध्य हैं। कई भारतीय कंपनियों खासतौर पर छोटे और मझोले उद्यमों को यह लागत बोझ लगती है, इसलिए वे महिलाओं को काम पर रखने से ही परहेज करते हैं।
चूंकि एमएसएमई अभी भी देश में रोजगार पैदा करने के अहम स्रोत हैं और तमाम लोग ऐसे भी हैं जो औपचारिक रोजगार परिदृश्य से बाहर हैं तो ऐसे में सरकार के लिए बेहतर यही होता कि वह भविष्य निधि प्रावधान के बजाय कहीं अधिक उचित प्रोत्साहन की तलाश करती। हम मानकर चल रहे हैं कि सरकार महिलाओं को श्रमशक्ति में शामिल करने को लेकर उत्सुक है और उनको केवल वोट का जरिया नहीं समझती। उस लिहाज से देखें तो बेहतर होगा कि मातृत्व और शिशु से जुड़े लाभ का बोझ कंपनियों पर कम से कम करने के लिए सरकार इस क्षेत्र में सब्सिडी का प्रावधान करे। परंतु ऐसा करने में सक्षम आपूर्ति की समस्या बरकरार रहेगी। परंतु अगर कंपनियों को मातृत्व लाभ और पालनाघर की सुविधा देने पर कर रियायत दी जाए तो कैसा रहे? इन प्रस्तावों का क्रियान्वयन करना आसान है और इसके दुरुपयोग की आशंका भी बहुत कम है क्योंकि मातृत्व अवकाश हमेशा चिकित्सक के प्रमाणपत्र के बाद ही जारी किया जाता है। हो सकता है छोटे उद्यम इसके बाद भी अपने यहां लैंगिक संतुलन कायम करने पर विचार न करें क्योंकि उनमें से कई कर दायरे से ही बाहर हैं।
एक सवाल वेतन भत्तों में असमानता और प्रोन्नति का भी है। पुरुष कर्मचारियों को महिलाओं की तुलना में तेजी से प्रोन्नति मिलती है। ये सभी अहम मुद्दे हैं लेकिन इन्हें तभी हल किया जा सकता है जब इसकी सामूहिक आलोचना शुरू की जा सके और इतनी तादाद में हो कि वह नतीजों को प्रभावित कर सके। श्रम शक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी पर बात करके शुरुआत की जा सकती है।
 

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