निजता के अधिकार की महत्ता

Puttuswami case is landmark in Judicial History of India where Judiciary again reiterated its commitment to protect Individual liberty and freedom


#Dainik_Jagran
संवैधानिक ज्ञान, इतिहास और अंतरराष्ट्रीय कानून में समाहित निजता (Privacy) का विषय एक बार फिर चर्चा में है। केएस पुट्टास्वामी (2017) के बेहद चर्चित मामले में इस पर आए फैसले ने हमारे गरिमामयी उदारवाद पर भी एक तरह से मुहर लगाई है। नौ वरिष्ठ न्यायाधीशों के एकमत निर्णय में निजता को मानवीय गरिमा का अभिन्न अंग माना है। साथ ही कहा गया है कि राज्य यानी सरकार द्वारा इसे किसी ऐसे संवैधानिक अधिकार के तौर पर वापस नहीं लिया जा सकता, क्योंकि यह मानव अधिकारों में सबसे ऊपर है। 


    अदालत ने कहा कि ‘निजता’ गरिमा भाव को ‘सुनिश्चित’ करती है और यह उन मूल्यों का मूलाधार है जिनका लक्ष्य जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण करना है। 
    बकौल न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अदालत ने इसे ऐसे समझाया है कि अपने अंतनिर्हित मूल्यों के साथ निजता किसी व्यक्ति के जीवन को गरिमापूर्ण बनाती है और गरिमामयी जीवन के साथ ही स्वतंत्र जीवन का वास्तविक आनंद लिया जा सकता है। 
    अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत प्राप्त जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों के आलोक में संवैधानिक पीठ ने कूपर (1970) और मेनका गांधी (1978) मामलों को मद्देनजर रखते हुए वर्षों पहले न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के दार्शनिक ज्ञान को ही दोहराया कि किसी विशेष संविधान में सन्निहित मूल अधिकार जो व्यक्ति को ‘मानव’ बनाते हैं, उनसे जुड़ाव रखते हैं।


Correcting Mistake done in ADM Jabalpur case


बहरहाल एडीएम जबलपुर मामले में अपने पुराने फैसले को संवैधानिक खामी मानते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि ‘संविधान की व्याख्या को केवल उसके मूल स्वरूप के दायरे में बांधकर नहीं रखा जा सकता।’ 


    प्रख्यात अमेरिकी वकील एवं न्यायविद बेंजामिन कार्दोजो के मशहूर कथन को दोहराते हुए कहा कि संविधान केवल फौरी तौर पर लिए जाने वाले फैसलों के लिए नहीं होता है, बल्कि भविष्य के सिद्धांतों की रूपरेखा भी तैयार करता है। 
    अस्थाई बहुमत के प्रभाव के विरुद्ध संविधानवाद के दर्शन की व्याख्या करते हुए अदालत ने निर्णय दिया कि संवैधानिक अधिकारों के आगे बहुमत की राय मायने नहीं रखती और इस प्रकार इन अधिकारों को लेकर उसने विधायिका और कार्यपालिका के दखल को रोक दिया।


तब क्या सवाल इस बात का है कि इस फैसले की इस दमदार दलील का संबंध कार्यपालिका और विधायिका की सार्थक भूमिका से जुड़ा है। खासतौर से कुछ विशेष अधिकारों पर राज्य की प्रतिक्रिया को लेकर। मसलन खाने, सेहत, संतानोत्पत्ति और डाटा से जुड़ी जानकारियों के मामले में पसंद के अधिकार को लेकर क्या निजता के अधिकार की परिधि तय की जाएगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के नागरिकों को उन अधिकारों के लिए अंतहीन न्यायिक लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी जो अधिकार उन्हें विरासत में मिले हैं।
 इस मामले में सार्थक कदम उठाने की दिशा में सरकार को न्यायमूर्ति एपी शाह विशेषज्ञ समिति (2012) की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए जिसमें एक आदर्श निजता कानून का प्रारूप सुझाया गया है जिस पर एसके कौल ने भी अपने फैसले में सहमति

जताई है। प्रस्तावित निजता कानून के लिए नौ बुनियादी सिद्धांतों की सिफारिश करने वाली इस रिपोर्ट की पुट्टास्वामी फैसले के आलोक में समीक्षा की जा सकती है और निजता अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में व्यापक कानूनी ढांचा बनाने के लिए यह विश्वसनीय आधार मुहैया करा सकती है। स्वर्गीय रामा जोइस निजता की इस लड़ाई के गुमनाम नायक हैं। कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और राज्य सभा सदस्य रहे जोइस आधार के संदर्भ में लगातार निजता को लेकर अपनी आवाज बुलंद करते रहे। योजना मंत्री के रूप में मेरा भी इस मुद्दे से सामना हुआ। इसका नतीजा हुआ कि योजना आयोग ने आदर्श निजता कानून का प्रारूप तय करने के लिए न्यायमूर्ति एपी शाह के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया।
निजता की बहस में यह पूछा जाना जरूरी है कि क्या आधार की राह में कानूनी चुनौतियों को निजता की लड़ाई में तब्दील करने की जरूरत थी या फिर आधार पर बहस की वह भी तब जब कूपर (1970), मेनका गांधी (1978) और उसके बाद आए सुप्रीम कोर्ट के सिलसिलेवार फैसलों में निजता का अधिकार गरिमा के संदर्भ में मूल अधिकार के तौर पर हमारे संवैधानिक दर्शन में अक्षुण्ण बना रहा।

निजता मामले में आए फैसले का एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू भी है जिस पर बहुत ज्यादा गौर नहीं किया गया है। वह यह कि इसके जरिये न्यायिक शक्तियों को लेकर साफ संदेश दिया गया है कि अदालत के न्यायिक समीक्षा क्षेत्राधिकार में नए संवैधानिक अधिकार भी जोड़े जा सकते हैं। कुछ संवैधानिक विद्वानों ने जल्दबाजी में इस फैसले को लेकर अपनी व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट के ‘समांतर शासन’ की बात कही है। बहरहाल ऐसी अवधारणाओं को खारिज करते हुए अदालत ने कहा है कि यह कवायद संविधानप्रदत्त मौजूदा अधिकारों की व्याख्या से जुड़ी होने के साथ ही ‘यह समझने की भी है कि इन अधिकारों के मूल में आखिर किन तत्वों का समावेश है।’ इस प्रकार उसने ऐसे संवैधानिक विमर्श के शब्दकोश को स्वीकार किया है कि जो स्व-नियंत्रण के माध्यम से अतिरंजिता को सही दिशा देने के साथ ही स्वयं के लिए संवैधानिक सिद्धांतों के स्वतंत्र रक्षक के रूप में अपनी भूमिका को लेकर सामान्य स्वीकार्यता भी अर्जित करता है।
‘अपने दायरे में’ रहते हुए न्यायाधीशों ने अनुभव और कानूनी सिद्धांतों के जरिये अपना कौशल दिखाते हुए न्यायिक सीमा की परिधि का अतिक्रमण करने से परहेज कर ‘विभिन्न शाखाओं वाले एकसमान तंत्र’ में शक्तियों के पृथक्कीकरण की संवैधानिक शक्तियों वाली व्यवस्था को भी सुनिश्चित किया। यह ऐतिहासिक फैसला कई बातों को पुष्ट करता है। इनमें अकेले रहने के अधिकार को मानवीय गरिमा से जोड़ते हुए, सभी के लिए समानता और स्वतंत्रता को शामिल किया गया है कि ये सभी मानवीय गरिमा के विशिष्ट तत्व और राष्ट्र की उदारवादी मानसिकता के प्रमाण हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस फैसले को कैसे फलीभूत करते हैं ताकि अपने दौर की भावना में विश्वास रख सकें जिसमें मानवाधिकारों और उन्हें संरक्षित रखने में राज्य की भूमिका को सार्वभौमिक स्वीकृति मिल चुकी है
 

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