भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच त्रिपक्षीय बातचीत का प्रस्ताव पूरी तरह नकारने लायक नहीं

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यह अफसोस की बात है कि भारत सरकार ने पाकिस्तान और चीन के साथ त्रिपक्षीय बातचीत के प्रस्ताव को तुरंत खारिज कर दिया. चीन के राजदूत ल्यू झाओहुई ने एक कार्यक्रम के दौरान इस प्रस्ताव की चर्चा की थी. चीन के इस अस्पष्ट से प्रस्ताव और नई दिल्ली द्वारा इसे स्पष्टता के साथ खारिज किए जाने के बीच कई ऐसी दिलचस्प राजनीतिक संभावनाएं हैं, जिन पर निकट भविष्य में काम किया जा सकता है.

  • बहुपक्षीय बातचीत में पक्षों से ज्यादा अहम बातचीत का एजेंडा होता है. हालांकि भारतीय विदेश विभाग के सूत्रों के मुताबिक चीनी राजदूत द्वारा भारत से मेलजोल बढ़ाने के मकसद से दिए गए ऐसे नए प्रस्तावों को हर बार बीजिंग का समर्थन हासिल नहीं होता.
  • यहां याद किया जा सकता है कि पिछले साल ल्यू ने यह प्रस्ताव भी रखा था कि चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना पर भारत की आपत्ति के मद्देनजर वह चाइना-पाकिस्तान कॉरीडोर का नाम बदल सकता है. हालांकि जैसा तब हुआ था, चीन ने इस बार भी अपने राजदूत के प्रस्ताव पर कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं की है, तकनीकी भाषा में कहें तो उसे समर्थन नहीं दिया है.
  • वैसे यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अगर चीन किसी प्रस्ताव का सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं कर रहा तो इसका अर्थ हमेशा यह नहीं है कि वह उसके लिए बेमतलब है. ताकतवर देश अकसर अपने राजदूतों को यह निर्देश देते रहते हैं कि वे जानबूझकर कुछ मसलों पर टीका-टिप्पणी करें ताकि संबंधित देश का इन पर रुख पता चल सके. फिलहाल ताजा प्रस्ताव को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से कहा गया है कि चीनी राजदूत ने संभवत: ‘निजी बयान’ दिया था.
  • हालांकि राजदूत सार्वजनिक कार्यक्रमों में अमूमन निजी बयान नहीं देते. एक सच्चाई यह भी है कि चीन खुलकर भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों की वकालत करता रहा है. अब तो एशिया के ये दोनों देश शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के पूर्णकालिक सदस्य भी हैं और चीन इस मंच से भी इन दोनों को करीब लाना चाहता है.
  • भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता कड़ाई से नकारता है. यही वजह है कि चीनी राजदूत के प्रस्ताव पर नई दिल्ली की स्पष्ट और तुरंत प्रतिक्रिया देखने को मिली. भारत को आशंका है कि बड़ी ताकतें कश्मीर समस्या का ऐसा समाधान उसके ऊपर थोपने की कोशिश कर सकती हैं जो दशकों पहले तो राजनीतिक रूप से सही ठहराया जा सकता था लेकिन आज नहीं. फिर भी भारत जैसी उभरती ताकत को तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को लेकर इतनी असहजता नहीं दिखानी चाहिए. अगर मंगोलिया जैसा छोटा सा देश अपने दो दिग्गज पड़ोसियों – चीन और रूस के साथ एससीओ की बैठक से इतर त्रिपक्षीय बातचीत कर सकता है तो भारत को इससे डरने की क्या जरूरत है?

 

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त्रिपक्षीय बातचीत खारिज करने के बजाय भारत को इस मामले में गेंद चीन के पाले में डाल देनी चाहिए थी. भारत को स्पष्ट करना चाहिए था कि अगर बातचीत का एजेंडा सही है तो उसे इस प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं है. नई दिल्ली को इस मामले में तीन बिंदुओं वाला एजेंडा पेश करना चाहिए था. इसमें पहला बिंदु यह हो सकता था कि तीनों देश कश्मीर विवाद से जुड़े अपने पूर्वग्रह किनारे रखकर एक-दूसरे के साथ जुड़ने के लिए सहयोग करेंगे; दूसरा यह कि तीनों पक्ष बिना ‘मूल समस्या’ का हवाला दिए आतंकवाद के खिलाफ सहयोग करेंगे; तीसरा बिंदु यह हो सकता था कि तीनों देशों के बीच भारत के पश्चिमोत्तर इलाके (जिसमें अफगानिस्तान शामिल है) तक कारोबार के लिए आवाजाही की व्यवस्था सुनिश्चित हो. और अगर इस एजेंडे पर चीन पाकिस्तान को मना लेता तब तो भारत खुशी-खुशी नई दिल्ली में ही पहले चरण के लिए इस बातचीत का आयोजन कर सकता था

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