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जल संसाधन मंत्रालय ने हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी के लिए 400 अरब रुपये की लागत वाली पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ईआरसीपी) का प्रस्ताव भेजा। सात साल में पूरी होने वाली इस परियोजना का मुख्य मकसद दक्षिणी राजस्थान के जल-आधिक्य वाले क्षेत्रों से पानी को नहरों के जरिये दक्षिण-पूर्व राजस्थान के क्षेत्रों तक पहुंचाना है जहां पर पानी की भारी किल्लत है। इस परियोजना में करीब 10 लाख एकड़ भूभाग को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का लक्ष्य भी रखा गया है।
- ईआरसीपी परियोजना ढांचागत क्षेत्र के लिए एक तीव्र मोड़ का संकेत हो सकती है। राजमार्गों और ऊर्जा जैसे परंपरागत ढांचागत क्षेत्रों में हो रहे भारी निवेश के वर्ष 2025 तक उच्चतम स्तर पर पहुंच जाने की संभावना है। अगर आपूर्ति एवं मांग के बीच अहमियत को एक मापदंड माना जाए तो बड़े पैमाने पर कार्यक्रम-संबंधी निवेश आकर्षित करने वाला अगला क्षेत्र जलापूर्ति का ही होना चाहिए।
- नीति आयोग ने महज दो महीने पहले सौंपी गई अपनी ऐतिहासिक रिपोर्ट ‘कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स: ए टूल फॉर वाटर मैनेजमेंट’ में कहा है कि 60 करोड़ भारतीयों को पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ता है और पीने का साफ पानी नहीं मिल पाने की वजह से हरेक साल करीब 2 लाख लोगों की मौत हो जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2030 तक देश में पानी की मांग मौजूदा स्तर की दोगुनी होने की संभावना है
- देश भर में कावेरी विवाद जैसे जल विवादों की तीव्रता और सघनता, कृषि क्षेत्र में व्याप्त गहरा असंतोष और हाल ही में शिमला जैसे ठंडे इलाके में पानी का ‘ब्लैकआउट’ होना सभी इस बात का संकेत देते हैं कि यह समस्या कोई दूर की सोच न होकर हमारे बीच मौजूद है। नीति आयोग की रिपोर्ट में जल प्रबंधन सूचकांक के आधार पर राज्यों की रैंकिंग भी दी गई है। नीति आयोग का जल सूचकांक नौ विभिन्न विषयवस्तुओं पर राज्यों का आकलन करता है जिनमें भूजल, सिंचाई, वाटरशेड विकास, ग्रामीण पेयजल और शहरी जलापूर्ति जैसे मानक हैं।
- पानी की भारी कमी से जूझ रहे कुछ राज्यों- गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में पिछले वर्षों में भीषण सूखा पड़ा है। लेकिन इन राज्यों ने जल प्रबंधन में बढ़त हासिल कर ली है और आयोग के सूचकांक में उनका प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है। हालांकि 64 फीसदी राज्यों (24 में से 14) की गिनती ‘खराब प्रदर्शन’ वाले राज्यों में हुई है जिनमें राजस्थान भी शामिल है।
वैसे जल क्षेत्र पिछले कुछ वर्षों में बड़े पैमाने पर निवेश आकर्षित करने वाले कई दूसरे क्षेत्रों से अलग है।
- पहली बात, पानी सडक़ों, बंदरगाहों, हवाईअड्डों और ऊर्जा के उलट लोगों की जीवनशैली से जुड़ा हुआ और भावनात्मक मामला है और इसकी पहुंच में असमानता को काफी शिद्दत से महसूस किया जाता है। इसका मतलब है कि किसी भी दूसरे क्षेत्र से अधिक जल क्षेत्र में राजनीति की भूमिका कहीं अधिक होती है भले ही सरकार और निवेशक इसे पसंद करें या नहीं।
- दूसरा, केंद्र एवं राज्यों के संबंध और राज्यों के आपसी संबंध इस क्षेत्र के लिए काफी अहम होगा। इसकी वजह यह है कि बहने वाला पानी कभी भी देश या राज्यों की सीमा में बंधकर नहीं रहता है।
- तीसरा, कोई भी एक समाधान सभी जगहों के लिए कारगर नहीं होगा। कुछ राज्यों और इलाकों में नदियों के पानी को नहरों के जरिये जोडऩा जल उपलब्धता की कुंजी हो सकता है। वहीं दूसरे इलाकों में भूजल संसाधनों का समुचित प्रबंधन और पानी की अधिक जरूरत वाली फसलों की खेती को हतोत्साहित करने जैसे तरीके अपनाए जा सकते हैं।
- चौथा, शहरी इलाकों में पेयजल की आपूर्ति को बेहतर बनाने के लिए अलग तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और स्थानीय सरकारों को इसमें अहम भूमिका निभानी होगी। पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में आने वाली जटिलताओं और विविधता को देखते हुए सरकारों के लिए यह जरूरी है कि वे अपनी प्राथमिकताएं तय कर लें। मसलन, यह रिपोर्ट जमीन के भीतर के जल संसाधन को एक अहम पहलू मानती है। इसकी अहमियत को इसी आंकड़े से समझ सकते हैं कि भारत के 54 फीसदी भूजल कूप तेजी से गिर रहे हैं। केंद्र सरकार पहले से ही राज्यों को यह सलाह दे रही है कि किसानों को दी जाने वाली बिजली की दरों को पानी की उपलब्धता के आधार पर तय किया जाए। देश के 21 बड़े शहरों में वर्ष 2020 आते-आते भूजल संसाधन खत्म होने की आशंका जताई जा रही है।
दोनों ही समस्याओं- भूजल स्तर बढ़ाने और भूजल की मांग का प्रबंधन करने को हल करने में किसानों को पानी की कम जरूरत वाली फसलें उगाने पर प्रोत्साहन देने जैसे कदम मददगार हो सकते हैं और इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। शहरी क्षेत्रों में पानी आपूर्ति का प्रबंधन बेहतर आर्थिक हैसियत वाले परिवारों से पानी की पूरी कीमत वसूलकर किया जाना चाहिए। शहरी जलापूर्ति में निजी निवेश और भागीदारी को जगह देना निहायत ही जरूरी है।
वर्ष 2002 में भारत सरकार ने सुरेश प्रभु के नेतृत्व में एक उच्चाधिकार-प्राप्त कार्यबल गठित किया है जो नदियों को जोडऩे की योजना पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगा। सितंबर 2003 में इसी तरह के कार्यबल ने ऐक्शन प्लान-2 पेश किया था जिसमें कहा गया था कि नदियों को जोडऩे की वास्तविक लागत 5.6 लाख करोड़ रुपये के शुरुआती अनुमान से कहीं अधिक होगी। अब जरा 2018 की ओर रुख करते हैं तो विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के कार्यक्रम की लागत 20 लाख करोड़ रुपये तक हो सकती है।
बाढ़ एवं सूखे के हालात से निजात दिलाने में मदद करने के साथ ही इस परियोजना से कई अन्य लाभ होने का भी दावा किया जा रहा है। इन लाभों में शामिल हैं: 3.4 करोड़ हेक्टेयर भूभाग में सिंचाई की सुविधा, ग्रामीण एवं शहरी इलाकों में पीने लायक पानी और उद्योगों की जरूरत के लिए पानी की आपूर्ति, 34,000 मेगावॉट पनबिजली उत्पादन, अंतर्देशीय जल परिवहन, पारिस्थितिकीय उन्नयन एवं पेड़ों की संख्या में वृद्धि, अच्छी संख्या में रोजगार का सृजन और राष्ट्रीय अखंडता को प्रोत्साहन।
हाल में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अंतर्देशीय जलमार्गों के विकास के प्रति खासी उत्सुकता जगा रहे हैं। गडकरी ने मई 2015 में संसद में राष्ट्रीय जलमार्ग विधेयक पेश किया था जिसमें 101 नदी जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्गों के तौर पर विकसित करने की बात कही गई थी।
अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली भाजपा सरकार ने 1998 में राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना (एनएचडीपी) शुरू की थी जिसने भारत में इस समय चल रहे सडक़ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को गति दी थी। पानी के मामले में भी एनएचडीपी की ही तरह ढांचागत परियोजना की दरकार है लेकिन उसे स्थानीय जरूरतों के मुताबिक ढालना होगा