need for judicial discipline
Current Context LARR BILL
गत 21 फरवरी को न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता वाली एक तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने गत आठ फरवरी को न्यायमूर्ति अरुण मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय पीठ द्वारा दिए गए निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया। यह भूमि अधिग्रहण से जुड़ा एक मामला था। न्यायमूर्ति मिश्र की खंड पीठ ने 2014 में पुणे नगर निगम वनाम हरकचंद मिसरीमल सोलंकी में न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा की अध्यक्षता वाली एक तीन-सदस्यीय खंड पीठ के निर्णय को कानून के ज्ञान के बिना लापरवाही में दिया गया करार दिया। उस पीठ में न्यायमूर्ति लोकुर भी थे। ऐसा लगता है कि न्यायमूर्ति लोकुर तथा न्यायमूर्ति मिश्र के बीच असहजता कुछ ज्यादा बढ़ गई है, जो निर्णयों में परिलक्षित हो रही है। उल्लेखनीय है कि गत 12 जनवरी को जिन चार न्यायाधीशों ने संवाददाता सम्मेलन कर मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली पर सवाल उठाए थे, उनमें न्यायमूर्ति लोकुर शामिल थे।
न्यायिक अनुशासनहीनता संशय एवं अनिश्चितता को जन्म देती है। कानून बनाने के पीछे एक महत्तर उद्देश्य किसी विषय पर संशय खत्म कर निश्चितता लाना है। फिर भी संशय बना रहता है, जिसे अदालत दूर करती है और अंत में निश्चयात्मकता उच्चतम न्यायालय के निर्णयों से आती है, जो व्याख्या के जरिये व्यवस्था देता है और कानून के अंदर की दरारों को पाटने का काम करता है। यदि सर्वोच्च अदालत ऐसा नहीं करती है और विभिन्न स्वरों में बोलती है, तो इससे विपदा आएगी। दुर्भाग्यवश ऐसा ही हो रहा है, क्योंकि अदालत की भिन्न-भिन्न पीठें एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत फैसले दे रही हैं।
Why this decline iin Jurisprudance
न्यायिक सामूहिकता के क्षरण का कारण यह है कि अभी एक उच्चतम न्यायालय नहीं, वरन उतने न्यायालय हैं, जितनी की उसकी पीठें हैं जो अभी 13 हैं।
अलग-अलग पीठों द्वारा दिए गए फैसले अलग-अलग दिशाओं में जाते हैं, जिनमें कोई सुसंगति नहीं है। इस खतरे को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति फेलिक्स फ्रैंकफर्टर ने उसी समय भांप लिया था, जब संविधान का निर्माण किया जा रहा था। उन्होंने संविधान सभा के सांविधानिक सलाहकार बी एन राव को सलाह दी थी कि देश की सर्वोच्च अदालत को पूर्ण पीठ के रूप में बैठना चाहिए, खंडपीठों में नहीं।
प्रारंभिक वर्षों में ऐसा ही हुआ, पर धीरे-धीरे उच्चतम न्यायालय एक प्रकार से कोर्ट ऑफ अपील बन गया और उसने हर तरह के निर्णयों के खिलाफ अपीलों को स्वीकार करना शुरू कर दिया, जिनमें कोई गंभीर कानूनी या सांविधानिक मसला नहीं होता है। अब संविधान पीठों का गठन छठे-छमासे होता है और जब होता है तब पांच या सात जजों की पीठ होती है। अब तक की सबसे बड़ी पीठ केशवानंद भारती (1973) में 13 न्यायाधीशों की बनी थी जब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 14 थी। फैसले सरल, स्पष्ट एवं संक्षिप्त होने चाहिए, जिसे कोई आसानी से समझ सके। जरूरत न्यायिक अनुशासन एवं न्याय बोध की है। ऐसा न होने से संस्था को चोट पहुंचती है और उसका शिकार आम आदमी होता है।
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