निजी स्वास्थ्य संस्थानों की नकेल कसनी जरूरी

 

#Business_Standard

IS Spread of private sector in Health field cause of celeberation?

भारत में निजी स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र का उत्तरोत्तर विस्तार गौरव का विषय होने के साथ हताशा का भी मुद्दा है। निजी क्षेत्र के कई अस्पतालों ने हृदय रोग, कैंसर रोग, जटिल शल्य चिकित्सा और अंगों के प्रत्यारोपण जैसी विशेषज्ञ सेवाएं देने में कामयाबी हासिल की है। परिष्कृत निदान ने चिकित्सकीय इलाज को क्रांतिकारी रूप से बदल डाला है और विदेशों की तुलना में इस इलाज की लागत भी काफी कम है। इसके बावजूद आम धारणा यही है कि निजी अस्पताल अक्सर अनैतिक, लालची, इलाज को कारोबार मानने वाले और अस्पताल में भर्ती मरीज को अपने मुनाफे का जरिया मानते हैं। नागरिकों को सबसे ज्यादा परेशानी स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता, मापदंड और कीमत को निर्धारित करने वाले नियमों का पूरी तरह अभाव है। इसके अलावा इस क्षेत्र में एक ओम्बड्समैन का भी अभाव खटकता है।

Absence of regulatory bodies

निजी स्वास्थ्य क्षेत्र आईटी की तरह मानवीय करिश्मे की उपज न होकर आर्थिक सुधारों के लिए घोषित कई नीतियों का परिणाम है। विभिन्न सरकारों के दौरान वित्त मंत्रालय ने निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के विकास में प्रोत्साहक की भूमिका निभाई लेकिन इस क्षेत्र में होने वाली गड़बडिय़ों पर निगरानी रखने के लिए कोई नियामकीय व्यवस्था बनाए बगैर ऐसा किया गया। निजी स्वास्थ्य सुविधाएं दे रहे संबद्ध पक्षों को उद्योग का भी दर्जा दिया गया जिसके चलते उन्हें सस्ते और लंबी अवधि के कर्ज मिलने का रास्ता साफ हो गया। वर्ष 2000 के बाद इस क्षेत्र में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी मिल गई और फिर स्वास्थ्य बीमा में एफडीआई की सीमा दोगुनी होने से इस क्षेत्र का और भी विस्तार हुआ।

  • चिकित्सकीय उपकरणों पर सीमा शुल्क भी 100 फीसदी से कम करते हुए 7.5 फीसदी तक लाया जा चुका है। निजी अस्पतालों के लिए जमीन भारी सब्सिडी पर दी गई। हालत यह थी कि दिल्ली के प्रमुख स्थानों पर महज 5,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन दे दी गई। दिल्ली सरकार के साथ संयुक्त उपक्रम के रूप में स्वास्थ्य सुविधा देने के लिए एक निजी संस्थान को 15 एकड़ जमीन महज एक रुपये में सौंप दी गई।
  • हालांकि इन अस्पतालों ने सस्ती जमीन लेने के लिए आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लोगों का मुफ्त इलाज करने की जिस शर्त पर रजामंदी जताई थी, वे उसका भी पालन नहीं कर रहे हैं। इन बाध्यकारी अनुबंधों को लंबे कानूनी पचड़ों में लपेट लिया गया है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इन अन्यायपूर्ण रियायतों का जिक्र किया है। इसमें बताया गया है कि मुंबई के चैरिटी अस्पताल एवं ट्रस्ट किस तरह से गरीबों का मुफ्त इलाज करने की बाध्यता से मुकर रहे हैं?

हालांकि कुल मरीजों की देखभाल का 60-80 फीसदी काम निजी स्वास्थ्य संस्थान ही कर रहे हैं। वाह्य रोगी देखभाल का 80 फीसदी और दाखिल रोगियों की देखभाल का 60 फीसदी काम इनके भरोसे ही है। यह हालत तब है जब देश के केवल महानगरों और कुछ बड़े शहरों में ही विशेषीकृत इलाज वाले अस्पताल मौजूद हैं। अधिकांश जिलों में बड़े निजी अस्पताल भी नहीं होने से अकेले प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर खूब कमाई कर रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताबिक देश भर में इकलौते डॉक्टर वाले चिकित्सा केंद्रों की संख्या दस कर्मचारियों वाले स्वास्थ्य संस्थानों से भी काफी अधिक है। सर्वेक्षण में शामिल सभी चिकित्सकीय प्रतिष्ठानों का करीब 80 फीसदी हिस्सा इकलौते डॉक्टर वाले केंद्र ही है। इन केंद्रों का संचालन एलोपैथी, आयुर्वेद एवं होम्योपैथी डॉक्टरों के अलावा बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों द्वारा भी किया जाता है जिनके पास कोई भी मेडिकल डिग्री नहीं है।

Health structure in India and shortcomings

  • भारत में स्वास्थ्य ढांचे के सबसे निचले स्तर पर सात लाख गांव हैं जहां के निवासियों को अपनी स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सरकार की तरफ से संचालित स्वास्थ्य उपकेंद्रों पर निर्भर रहना होता है। इन उपकेंद्रों का जिम्मा सहायक मिडवाइफ (एनम) के पास होता है लेकिन वह गंभीर बीमारी के इलाज के लिए जरूरी दवाएं संस्तुत करने के लिए अधिकृत नहीं होती है।
  • इन उपकेंद्रों के ऊपर ब्लॉक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) होते हैं जहां पर डॉक्टरी सलाह मिलने की संभावना होती है। देश भर में 30,000 से भी कम पीएचसी होने से जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में गांव-देहात में रहने वाले मजदूर, रिक्शाचालक या किसान को बीमार पडऩे पर मजबूरन एक अकुशल प्रैक्टिशनर के पास ही जाना पड़ता है। एक कुशल डॉक्टर के पास जाने का मतलब होता है कि उस मजदूर को एक दिन की दिहाड़ी गंवानी पड़ेगी और उसे गांव से शहर तक आने-जाने का बोझ भी उठाना पड़ेगा। ऐसे में उस मजदूर को उस झोलाछाप डॉक्टर के यहां जाकर ही अपनी तकलीफ से फौरी राहत ले लेना अधिक किफायती लगता है।

Professionalism?

कानूनी तौर पर डॉक्टर के अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति किसी बीमार का इलाज नहीं कर सकता है। लेकिन हमें एक विरोधाभास देखने को मिला है कि प्रशिक्षित डॉक्टर इन झोलाछाप डॉक्टरों को मरीज भेजने के एवज में कमीशन (फीस का 30 फीसदी) भी देते हैं। यहां तक कि प्रशिक्षित डॉक्टर ही इन लोगों को इंजेक्शन लगाने, आईवी फ्लूड चढ़ाने, एंटीबायोटिक और स्टेरॉयड दवाएं देने का मामूली प्रशिक्षण भी देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 में कहा था कि भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों की तुलना में अप्रशिक्षित ही अधिक हैं। नियमों को कड़ाई से लागू नहीं किए जाने से ये झोलाछाप डॉक्टर मरीजों को कड़े असर वाली दवाएं भी दे देते हैं। नाकाबिल लोगों के इलाज करने और इसके व्यवसायीकरण के चलते टीबी के मरीजों पर मल्टी ड्रग का असर कम होने, एंटीबायोटिक दवाओं के नाकाम होने और चौथी पीढ़ी की दवाओं के अतार्किक इस्तेमाल जैसे मामले सामने आ रहे हैं।

भारत में समृद्ध या गरीब किसी को भी इलाज में शोषण या चिकित्सकीय कदाचार के खिलाफ कोई संरक्षण नहीं मिला है। राष्ट्रीय नियामक भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) और राज्यों में बनी चिकित्सा परिषदें बहुत कम मौकों पर ही इस कदाचार के खिलाफ आवाज उठाती हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 भी मुआवजे पर ही ध्यान देता है जबकि इलाज में गड़बड़ी को रोकना सबसे ज्यादा जरूरी है। सरकारी संस्थानों के डॉक्टर तो इस तरह के नियंत्रण से बाहर ही रखे गए हैं।

केंद्र सरकार 2010 में क्लिनिकल इस्टेब्लिशमेंट ऐक्ट लेकर आई थी जिसमें सभी स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों, उनके मापदंडों, कार्यबल की योग्यताओं के नियमन का जिक्र था। लेकिन अभी तक एक भी राज्य ने अपने यहां स्वास्थ्य सेवाओं के नियमन के लिए निकाय बनाने की पहल नहीं की है। आधे से अधिक राज्यों में तो ऐसे नियम भी नहीं हैं जो निजी स्वास्थ्य केंद्रों को लाइसेंस लेने के लिए बाध्य करते हों। जिन राज्यों में दिल्ली नर्सिंग होम्स ऐक्ट 1953 जैसे कानून लागू भी हैं वहां पर इसके प्रावधानों का उल्लंघन करने पर महज 100 रुपये का ही दंड लगाया जा सकता है।

तकनीकी एवं नियामकीय नियंत्रण ने दूरसंचार, ऊर्जा, नागरिक उड्डïयन और कंपनी जगत में सक्रिय निजी इकाइयों को नियंत्रित करने का काम किया है। तमाम प्राधिकरण, बोर्ड, आयोग, न्यायाधिकरण और अपीलीय निकायों ने इन क्षेत्रों की निगरानी और नियमन की है। बहरहाल इंसानी जिंदगी को बचाने और उसका बेहतर इलाज करना कहीं अधिक जरूरी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक हरेक स्तर की निगरानी के लिए नियामकीय प्रणाली की जरूरत है। अब ऐसा किया जाना अनिवार्य हो चुका है

Question: 

सार्विक स्वास्थ्य सरंक्षण  प्रदान करने में सार्वजनिक प्रणाली की अपनी परिसीमाएं है | क्या आपके विचार में खाई को पाटने में निजी क्षेत्रक सहायक हो सकता है ? आप अन्य कौनसे व्यवहार्य विकल्प सुझाएंगे |

 

Public health system has limitations in providing universal health coverage. Do you think that the private sector could help in bridging the gap? What other viable alternatives would you suggest? (UPSC 2015)

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