सेंसस गांव बनाम राजस्व गांव

जनगणना आयुक्त के कार्यालय के अनुसार कोई गांव वैधानिक रूप से चिह्नित वह इकाई होता है जिसकी एक निश्चित सीमा और अलग भू-रिकॉर्ड हो. इसलिए सरकार देश के सभी गांवों को ‘राजस्व गांव’ के नाम से भी बुलाती है. हालांकि गांव की इस परिभाषा में कहीं भी रहवासी (या उनके घरों) की अनिवार्यता का कोई जिक्र नहीं है. इसका यह मतलब हुआ कि किसी इलाके के ‘गांव’ कहलाने के लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि वहां लोग भी रहते हों. वैसे जिस गांव में लोग भी रहते हों उसे रिकॉर्ड में ‘सेंसस गांव’ के रूप में एक अलग दर्जा दिया गया है. इसका मतलब यह हुआ कि सेंसेस गांव का अर्थ हम सबके अनुभव में आने वाले सामान्य गांव से है.

देश की जनगणना केवल इन्हीं गांवों में होती है. बिजली, पानी, शौचालय, स्कूल जैसी बुनियादी जनसुविधाओं के लिए भी केवल ऐसे ही गांवों का महत्व होता है. इसलिए जनगणना रिकॉर्ड में यहां की जनसुविधाओं का पूरे विस्तार से जिक्र होता है. दूसरी ओर जिन गांवों में लोग नहीं रहते जनगणना वाले रिकॉर्ड में केवल इनके नाम, एरिया कोड, क्षेत्रफल (हेक्टेयर में) और भू-उपयोग आंकड़े लिखे जाते हैं. इसके अलावा रिकॉर्ड में यहां की जनसुविधाओं के लिए ‘शून्य’ लिख दिया जाता है.

शहरों के भी कई प्रकार होते हैं

जनगणना आयुक्त का कार्यालय के अनुसार देश में दो तरह के शहर हैं. पहली तरह के शहरों को वह ‘वैधानिक’ शहर कहता है. इनमें नगर निगम, नगर पालिका, कैंटोनमेंट बोर्ड और अधिसूचित शहरी क्षेत्र आते हैं. वहीं दूसरी तरह के शहर को वह ‘सेंसस’ शहर कहता है. इसमें पहले वर्ग से बचे वैसे शहर आते हैं जहां की आबादी न्यूनतम 5,000 और जनघनत्व 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से ज्यादा का हो. इसके साथ ऐसे शहरों में से 75 फीसदी आबादी का खेती से इतर कामों में लगा होना जरूरी होता है. हालांकि जनगणना आयुक्त का कार्यालय जनसंख्या के लिहाज से देश के सभी शहरों को छह भागों में बांटता है. यह एक अलग तरह का वर्गीकरण है.

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