घटती बहस और कम होती साख

Parliament of india has become a place of disruption only with little time spent on quality debates.
#Amar_Ujala


Parliament’s life lies in Debate & Discussion


सदीय लोकतंत्र शासन प्रणाली में श्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती है, क्योंकि इसमें किसी विधेयक और नीति या मुद्दे पर व्यापक बहस और हर पहलू को सामने रखने की गुंजाइश होती है। संसदीय प्रणाली का मूलाधार संसद में बहस है। किंतु यदि संसद में पर्याप्त बहस ही न हो, बहस हो तो उसकी गुणवत्ता काफी कमजोर हो, विधेयक तक बिना बहस के पारित किए जाने लगें, तो यह समझना चाहिए कि हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली पूर्ण स्वस्थ नहीं है।


Declining standards of debate


अभी हाल में एक अध्ययन में यह सामने आया है कि पिछले दस वर्षों में संसद में करीब 47 प्रतिशत विधेयक बिना किसी बहस के पारित कर दिए गए। इनमें से भी अनेक विधेयक सत्र के आखिरी कुछ घंटों में पारित हुए। बस विधेयक पटल पर रखा गया, पीठासीन अधिकारी महोदय ने यस और नो कहलवाया और विधेयक कानून बना।
सका अर्थ हुआ कि हमारी संसद हाल के वर्षों में ऐसे कानून बना रही है, जिस पर बहस नहीं होती। जब बहस नहीं होती, तो फिर उसके गुण-दोषों पर पूरी तरह विचार नहीं होता और इसके आधार पर विधेयक में संशोधन-परिवर्तन की गुंजाइश खत्म हो जाती है। ऐसी स्थिति में कई बार निर्दोष कानून या विधान मिलने की संभावना भी खत्म होती है। कई बार ऐसे गंभीर मामले होते हैं, जिनको बहस के बीच में या बहस के पहले या फिर बहस के बाद भी संसदीय समितियों को सौंपना पड़ता है।

 

Responsibility of parliamentary committees


समिति का दायित्व होता है कि गंभीर विमर्श के बाद अपनी अनुशंसाओं के साथ वह फिर से संसद को वह विधेयक वापस करे। ऐसा होता भी है। किंतु रिपोर्ट यह बताती है कि इस अवधि में करीब 31 प्रतिशत विधेयक ऐसे पारित हुए, जिनकी किसी संसदीय समिति में समीक्षा तक नहीं हुई। अगर विधेयक पर बहस नहीं हो और उसकी समीक्षा करने का अवसर संसदीय समितियों को भी न मिले, तो फिर उसकी क्या दशा होगी। यानी सरकार जैसा चाहती है वैसे एकपक्षीय विधेयकों को पारित करके कानून बना दिया जाता है। यह एक खतरनाक स्थिति है।
हालांकि किसी विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजा जाना अनिवार्य नहीं है। ऐसा कोई प्रावधान नहीं कि विधेयकों को समितियों के पास भेजा ही जाए, किंतु आम तौर पर गंभीर विषयों को भेजने की परंपरा-सी बन गई है। वैसे संसदीय मामले पर अध्ययन करने वाले अनेक लोग यह मानते हैं कि संसदीय समितियों के होने से भी बहस पर जोर कम हुआ है।
जिस भी मुद्दे पर मतभेद उभरा या जिसमें विषयों की थोड़ी जटिलता है, गहराई है उसे तुरंत माननीय सदस्य समिति को भेज देने की मांग करते हैं और इसे प्रायः स्वीकार कर लिया जाता है।

 

No place of 4th D in Parliament


 पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी संसद के काम के लिए ‘थ्री डी’ का प्रयोग बार-बार करते थे। इसका मतलब है- डिबेट, डिस्सेंशन और डिसिजन।
उनके मुताबिक, इन तीनों भूमिकाओं में चौथे डी यानी डिसरप्शन या बाधा के लिए कोई जगह नहीं है। दुर्भाग्य से चौथा डी इस समय हावी है और बाकी तीन डी को कमजोर हो रहा है। अगर आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं, तो जहां 1952 यानी पहली संसद से 1971-72 यानी चौथी संसद तक संसद वर्ष में निर्धारित 128 से 132 दिनों तक बैठती थी, वहीं यह अब 64 से 67 दिनों तक ही संसद की बैठक होती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि संसदीय प्रणाली को उसके वास्तविक चरित्र के अनुरूप सार्थक और पर्याप्त बहस के चरित्र में फिर से ढालना है, तो उसके लिए व्यापक राजनीतिक सुधार करना होगा। राजनीतिक सुधार के बगैर हम चाहे, इसकी जितनी आलोचना करें, जितनी चिंता प्रकट करें, कोई अंतर नहीं आएगा।
 

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download