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राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोकने को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर चिंता जताई है। इस मामले से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान समय-समय पर शीर्ष अदालत ने सुझाव भी दिए हैं। लेकिन यह कवायद अब तक इसलिए रंग नहीं ला पाई है कि उसके पास कानून बनाने का अधिकार नहीं है। कानून संसद को बनाना है।
Recent comment by Supreme court
प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाले संविधान पीठ ने साफ कहा कि राजनीति में अपराधीकरण सड़ांध का रूप ले चुका है। शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी हालात की गंभीरता बताने के लिए पर्याप्त है। अब अदालत ने साफ कहा है कि उसे इस बारे में चुनाव आयोग का सहारा लेना पड़ेगा। संविधान पीठ चुनाव आयोग को निर्देश देकर कह सकता है कि वह राजनीतिक दलों से अपने निर्वाचित सदस्यों का आपराधिक रिकार्ड उजागर करने को कहे। तभी मतदाताओं को पता चलेगा कि किस दल में कितने दागी जनप्रतिनिधि हैं जिन्हें उम्मीदवार नहीं होना चाहिए था। जाहिर है, इससे राजनीतिक दलों पर भी एक दबाव बनेगा।
Initiative by Political Parties
- चुनावी राजनीति में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का प्रवेश तभी रोका जा सकता है जब राजनीतिक दल खुद इसके लिए पहल करें। लेकिन हैरान करने वाली और दुखद बात यह है कि राजनीतिक दलों की ओर से अब तक ऐसा कोई भी प्रयास नहीं हुआ।
- किसी भी दल ने ऐसा साहस नहीं दिखाया जो अपराधियों को चुनावी राजनीति में आने से रोकने की पहल करता हो, बल्कि ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल खुद नहीं चाहते कि चुनावी राजनीति में अपराधियों को आने से रोका जाए।
- अगर कोई ऐसी बात उठती भी है या सुझाव आता है तो उसमें संवैधानिक-कानूनी नुक्ते निकाल कर उससे बचने के तरीके खोज लिए जाते हैं। यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर एक तरह से सारे दलों की भीतरी सांठगांठ नजर आती है।
- इसी का नतीजा है कि चुनावी राजनीति में हत्या, हत्या की कोशिश और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों तक में शामिल नेताओं का असर कायम है। ये लोग अपने धन-बल के बूते राजनीति में दबदबा रखते हैं। राजनीतिक दल सिर्फ यही दलील देते आए हैं कि जब तक कोई आरोपी दोषी करार नहीं दे दिया जाता, उसे अपराधी नहीं माना जा सकता। दागदार नेता इसी का फायदा उठा रहे हैं, क्योंकि लंबी और जटिल कानूनी प्रक्रिया के चलते मुकदमों के निपटान में बरसों गुजर जाते हैं और आरोपी के लिए दोषी साबित नहीं होने तक चुनाव लड़ने और जीतने पर सदन में पहुंचने का रास्ता खुला रहता है।
सन 2009 में तीस फीसद लोकसभा सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर चौंतीस फीसद हो गया। अफसोस की बात यह है कि मौजूदा लोकसभा में तीन सांसद ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं। सवाल है कि जिस लोकसभा में एक तिहाई सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हों और अपने दलों का उन्हें पूरा संरक्षण हासिल हो, तो ऐसे नेता और दल कैसे कठोर कानून बनने देंगे? यह भारतीय राजनीति की त्रासदी है कि उसमें शायद ही कोई ऐसा दल हो जो दागदार नेताओं से सुशोभित न हो रहा हो। अगर ऐसा कठोर कानून बन जाए जो आपराधिक मामले दर्ज होने वालों के लिए चुनाव लड़ने के रास्ते बंद कर सके, तो हमारी संसद और विधानसभाएं दागदार चेहरों से मुक्त हो सकती हैं। जाहिर है, ऐसा कानून संसद को ही बनाना है। हालांकि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते इस तरह के कानून के दुरुपयोग की आशंका बनी रहेगी। लेकिन सिर्फ इस वजह से राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए जगह बनाए रखने को सही नहीं कहा जा सकता।