Not just economic factors but judicial lacunaes also hampering growth.
#DAINIK_JAGRAN
इस बार की आर्थिक समीक्षा जिन कारणों से कुछ खास है उनमें एक कारण यह भी है कि उसमें न्यायिक सुधारों को गति देने पर भी जोर दिया गया है। कारोबारी माहौल सुगम बनाने के लिए यह जरूरी है कि आर्थिक क्षेत्र से जुड़े मामलों का निपटारा तेजी से किया जाए। विवाद निपटाने की सुस्त प्रक्रिया न केवल निवेश को हतोत्साहित कर रही है, बल्कि कर संग्रह का लक्ष्य हासिल करने में भी बाधक बन रही है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न अदालतों और न्यायाधिकरणों में प्रत्यक्ष कर से संबंधित 1.37 लाख और अप्रत्यक्ष कर संबंधी 1.45 लाख मामले लंबित है।
इसके चलते 7.58 लाख करोड़ रुपये का राजस्व फंसा हुआ है।
यह राशि कुल जीडीपी का 4.7 फीसद है। ये आंकड़े स्थिति की गंभीरता को बयान करने के लिए पर्याप्त है।
आर्थिक समीक्षा में न्यायिक सुधारों पर बल देते हुए न केवल कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए है, बल्कि इसे भी रेखांकित किया गया है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका को मिलकर समाधान निकालने के लिए आगे आना चाहिए।
यह कहना कठिन है कि बजट में न्यायिक सुधारों को गति देने वाले कोई प्रावधान होंगे या नहीं, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह काम केवल संसाधनों की ही मांग नहीं करता
What to be done?
न्यायिक तंत्र को सुगम बताने के लिए संसाधनों की आवश्यकता से इन्कार नहीं, लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है इस दिशा में आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति।
विडंबना यह है कि कार्यपालिका और विधायिका की ओर से तो इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जा रहा है, लेकिन न्यायपालिका के रवैये से ऐसी प्रतीति कठिनाई से ही होती है कि वह अपने ढांचे में सुधार लाने के लिए प्रतिबद्ध है।
न्यायिक सुधारों को केवल इसलिए ही गति नहीं दी जानी चाहिए कि उनके अभाव में आर्थिक विकास प्रभावित हो रहा है, बल्कि इसलिए भी कि आम जनता की मुश्किलें बढ़ रही है। अनुमान है कि करीब तीन करोड़ मुकदमें लंबित है। यदि प्रति परिवार पांच सदस्य ही गिने जाएं तो एक तरह से 15 करोड़ लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं। तमाम लोग ऐसे मुकदमों में फंसे हुए है जो दशकों से लंबित है। बेहतर हो कि न्यायपालिका के नीति-नियंता यह समझें कि उनके सहयोग और समर्थन के बिना न्यायिक सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता और महज न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने की मांग के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका न्यायिक सुधारों को लेकर गंभीर है। यदि मुकदमों के निपटारे के तौर-तरीके नहीं बदले जाते और तारीख पर तारीख का सिलसिला इसी तरह कायम रहता है तो अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाए जाने से भी अभीष्ट की पूर्ति होने वाली नहीं है। अच्छा होगा कि कार्यपालिका और विधायिका के साथ ही न्यायपालिका आर्थिक समीक्षा का हिस्सा बने न्यायिक सुधार के मसौदे पर चिंतन-मनन करने में और देर न करे। पहले ही बहुत देर हो चुकी है।