असल चुनाव सुधारों का इंतजार

 

#दैनिक जागरण

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सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस समय सांसदों और विधायकों के मामलों से जुड़ी दो जनहित याचिकाएं लंबित हैं। इन याचिकाओं में मांग की गई है कि चुनाव लड़ते समय दायर किए जाने वाले हलफनामे में दी गई जानकारियां यदि गलत पाई जाएं तो चुनाव बाद उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। इनमें उनके द्वारा घोषित संपत्ति और देनदारी के अलावा आपराधिक ब्योरे जैसे पहलुओं को शामिल किया गया है। साथ ही आय से अधिक संपत्ति के पैमाने को भी जोड़ा गया है।

Cases filed for election reform

  • इनमें से एक मामला लोक प्रहरी नाम की गैर सरकारी संस्था यानी एनजीओ ने दायर किया है। इसमें याचिकाकर्ता की दलील है कि शपथपत्र दाखिल करते समय केवल संपत्ति की घोषणा ही काफी नहीं है। उसका कहना है कि प्रत्येक प्रत्याशी के लिए आमदनी के स्नोत का उल्लेख भी अनिवार्य बनाया जाए, क्योंकि दो चुनावों के दौरान तमाम सांसदों और विधायकों की संपत्ति में कई गुने का इजाफा देखने को मिलता है। उसने अदालत को बताया कि 2014 में लोकसभा के लिए पुन: चुने गए 320 सांसदों की संपत्ति में 100 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई। इनमें से भी छह सांसदों की संपत्ति में तो 1000 फीसद की हैरतअंगेज उछाल दिखी और 26 सांसदों की संपत्ति 500 प्रतिशत तक बढ़ी। तमाम विधायकों की धन-संपदा में अप्रत्याशित उछाल देखने को मिली। इन सांसदों-विधायकों की संपत्ति की जांच करने के बाद आयकर अधिकारियों ने अदालत को बताया कि सात सांसदों और 98 विधायकों की संपत्ति उनके चुनावी हलफनामे में उल्लिखित आमदनी से अधिक पाई गई। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि सांसदों और विधायकों से जुड़े आय से अधिक संपत्ति के मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित की जानी चाहिए।
  • दूसरे मामले में याचिकाकर्ता ने कहा कि भले ही शीर्ष अदालत ने यह सुनिश्चित कराया हो कि शपथपत्र में प्रत्याशी संपत्ति और देनदारी, शैक्षणिक योग्यता और आपराधिक ब्योरे का उल्लेख करें, लेकिन उसमें किए गए दावों की सत्यता की पुष्टि के लिए कोई तंत्र नहीं है। साथ ही गलत हलफनामे दाखिल करने वालों को सजा देने के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है। याचिकाकर्ता ने कहा कि यह चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की शीर्ष अदालत की कोशिशों का ही नतीजा है कि प्रत्याशियों के लिए तमाम तरह की जानकारियां देना अनिवार्य हो गया है, लेकिन उन जानकारियों को परखने की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। इसकी सख्त जरूरत है।

Court’s Position

 इस पर अदालत ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से जवाब मांगा है। इन दो मामलों में आने वाले फैसले ही तय करेंगे कि हम चुने हुए जनप्रतिनिधियों को कानूनों के प्रति किस हद तक जवाबदेह बना पाएंगे? यह ध्यान रहे कि नेताओं को सभी मामलों में पारदर्शी बनाना किसी भी सूरत में आसान नहीं रहा है।

  • इस मामले में सबसे पहले विधि आयोग ने कदम उठाए थे जब चुनाव सुधारों पर 1999 में पेश अपनी 170 पन्नों की रिपोर्ट में उसने कहा था कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में निश्चित रूप से संशोधन किया जाए और उसमें संपत्ति-देनदारी और आपराधिक ब्योरे से जुड़ा हलफनामा अनिवार्य बनाएं।
  • हालांकि चुने हुए जनप्रतिनिधि इस पर कुंडली मारकर बैठे रहे, क्योंकि चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता-जवाबदेही लाने वाला कोई भी सुधार उन्हें कभी रास नहीं आया। आखिरकार राजनीतिक बिरादरी को तब यह प्रस्ताव स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा जब इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन प्रावधानों को लगभग एक कानून की शक्ल दे दी। शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह हलफनामे दाखिल कराना सुनिश्चित कराए जिसमें अगर प्रत्याशी का कोई आपराधिक इतिहास रहा है तो उसका भी उल्लेख हो।
  • सभी हलकों से पड़ने वाले दबाव को देखते हुए संसद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आंशिक रूप से बदलाव करते हुए यह तय किया कि आपराधिक मामले में अदालत से दोष सिद्ध हुए मामले का ही हलफनामे में उल्लेख करना होगा। उसके अनुसार संपत्ति, देनदारी और शैक्षिक योग्यता सहित चुनाव प्राधिकरण द्वारा मांगी गई किसी तरह की अन्य जानकारी देने की जरूरत नहीं।

इन प्रावधानों को एक अन्य मामले में चुनौती दी गई और एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और उसने अपने पुराने आदेश को निष्प्रभावी बनाने को असंवैधानिक करार दिया। परिणामस्वरूप सभी वांछित पहलुओं के आधार पर प्रत्याशियों को शपथपत्र दाखिल करना अनिवार्य हो गया। अब कानून के अनुसार सांसद और विधायक पद के सभी प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति, देनदारी और अगर कोई आपराधिक रिकॉर्ड रहा है तो उसकी जानकारी हलफनामे में देना जरूरी है।

हलफनामे में प्रत्याशी का पैन नंबर, आयकर रिटर्न, जीवनसाथी और सभी आश्रितों का ब्योरा, प्रत्याशी, जीवनसाथी और उसके आश्रितों की संपूर्ण चल-अचल संपत्ति के ब्योरे के साथ ही सभी सरकारी एवं सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों की देनदारी का उल्लेख करना भी अनिवार्य है। प्रत्याशी को अपने पेशे, व्यवसाय और शैक्षिक अर्हताओं की जानकारी देना भी जरूरी है। चुनावी मोर्चे पर पारदर्शिता लाने के लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला क्रांतिकारी सुधार का सूत्रपात करने वाला रहा। जब तक ऐसे शपथपत्र दाखिल करना अनिवार्य नहीं था तब तक जनता को यह मालूम ही नहीं पड़ता था कि प्रत्याशी शिक्षित है या नहीं? गरीब है या अमीर? उसका कोई आपराधिक अतीत तो नहीं रहा? प्रत्याशियों के बारे में सभी जानकारियों के अभाव में ही जनता को अपने मत के लिए पसंद तय करना पड़ता था। शपथपत्र अनिवार्य किए जाने के बाद से मतदाताओं के पास सूचनाओं का अंबार लग गया है, क्योंकि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में स्थानीय मीडिया शपथपत्र का विस्तृत ब्योरा प्रकाशित करता है। निश्चित रूप से इससे पारदर्शिता बढ़ी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित इन याचिकाओं को देखते हुए लगता है कि पारदर्शिता का स्तर अभी और बढ़ाने की जरूरत है।

जैसा कि लोक प्रहरी द्वारा जुटाए साक्ष्य दर्शाते हैं कि पांच वर्षों की अवधि में तमाम सांसदों और विधायकों की संपत्ति में 500 प्रतिशत से अधिक की उछाल आई है। यह निश्चित रूप से आयकर विभाग और भ्रष्टाचार की जांच करने वाली अन्य एजेंसियों के लिए जांच का विषय होना चाहिए। दोनों ही याचिकाओं में इस तथ्य पर जोर दिया गया है कि आय के स्नोत के संबंध में पर्याप्त सूचनाओं का अभाव है। वहीं दूसरी याचिका इस बात पर जोर देती है कि हलफनामे में दी गई जानकारियों की सत्यता जांचने के लिए कोई तंत्र नहीं है। साथ ही ऐसा कोई कानून भी नहीं है जो प्रत्याशी को इसके लिए बाध्य करे कि वह अपने दावों की पुष्टि के समर्थन में कोई प्रमाण पेश करे। इन दोनों याचिकाओं के नतीजों पर नजर बनाए रखने की जरूरत है। उम्मीद है कि हम यह गुत्थी सुलझाने में सक्षम होंगे कि कुछ नेताओं की चुनावी सफलता उनकी संपत्ति सृजन के इतनी समानुपाती कैसे होती है?

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