सत्ता-संघर्ष और संविधान की मर्यादा

सत्ता-संघर्ष और संविधान की मर्यादा

संविधान किसी भी देश की आजादी और खुशहाली के वायदे का दस्तावेज होता है। यह शब्दों का समूह भर नहीं, बल्कि देश के समस्त नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतीक होता है। हमारा संविधान हम भारत के लोगों द्वारा लिपिबद्ध करके स्वयं को अर्पित किया गया है। इसलिए इसकी सफलताएं भी हमारी हैं और यदि कहीं कोई कमी रह जाती है, तो उसकी जिम्मेदारी भी हमें ही लेनी होगी।

बीते दशकों में हमने अपने संविधान के तमाम आदर्शों के पालन का प्रयास किया है। अधिकतर मामलों में हमारा रिकॉर्ड शानदार रहा है। आजादी के समय हमारेे देश में 560 से अधिक रियासतें थीं। उनके अपने शासक व अलग नियम-कानून थे। उन्हें भारत का हिस्सा बनाना और एकजुट रखना आसान न था। दुनिया में किसी अन्य देश ने इतनी बड़ी चुनौती का सामना नहीं किया। पर यह हमारी गौरवगाथा है कि हमने उसे सफलता के साथ अंजाम दिया। आज हम पहले से भी अधिक एकजुट हैं, तो इसका श्रेय हमारे संविधान और देश के नागरिकों को जाता है।

हमारा संविधान हमसे लोकतांत्रिक मर्यादाओं के पालन की अपेक्षा रखता है। चुने हुए नुमाइंदों वाली सरकार पर भरोसा करने की उम्मीद करता है। इस कसौटी पर भी हम खरा उतरे हैं। लगभग हमारे साथ ही आजाद हुए करीब 50 देशों में से कहीं भी लोकशाही वहां के जनजीवन में वह पैठ नहीं बना पाई है, जो हमारे देश में बनी है। हमारे पड़ोसियों- पाकिस्तान, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे किसी भी देश में लोकतंत्र कभी भी खुली हवा में सांस नहीं ले पाया। वे हर समय सैनिक तानाशाही से भयभीत रहे। इस बीच हम 17 बार आम चुनावों के जरिए देश की सत्ता के शालीन हस्तांतरण के गौरवपूर्ण क्षणों के साक्षी बने। तमाम राज्यों में तो इस लोकतांत्रिक मर्यादा को 200 से भी अधिक बार दोहराया गया है। यहां तक कि कुल 55 सांसदों वाली पार्टी की चंद्रशेखर सरकार भी पदारूढ़ रही है, तो लोकतंत्र और उसकी सर्वोच्चता पर कभी किसी को संदेह नहीं हुआ। लोकतंत्र अपनी गति से बढ़ता रहा।

बीते सात दशकों में शिक्षा, स्वास्थ्य-सेवा, अर्थव्यवस्था तथा अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हम विश्व के अग्रणी देशों में शामिल हो चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, लेकिन एक लोकतंत्र के रूप में हमारे अब तक के सफर में कुछ क्षण ऐसे भी आए, जब संविधान की मर्यादा को चोट पहंुंची, उसकी अवमानना हुई, किंतु इसका सकारात्मक पहलू यह रहा कि हमने उससे सबक सीखा।

हमारी सांविधानिक मर्यादा को पहला गंभीर झटका 26 मई, 1975 को लगा, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए संविधान का दुरुपयोग करते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया। उस दौरान कई तरह की ज्यादतियां हुईं, मगर आपातकाल समाप्त होते ही जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गईं, लेकिन इससे जो सबसे बड़ी क्षति हुई, वह कहीं अधिक गहरी थी। आम आदमी का राजनेताओं से भरोसा टूट गया। यह हमारे लेाकतंत्र के लिए बहुत बड़ा झटका था।

इसी तरह, संविधान के अनुच्छेद 356 के मामले में भी हमारे राजनीतिक नेतृत्व का रवैया स्वार्थपरक रहा। इस उपबंध का प्रावधान देश की अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए किया गया था। भीमराव आंबेडकर ने तो यह उम्मीद जताई थी कि संविधान में यह उपबंध निष्प्राण अक्षरों का समूह बना रहेगा और इसका इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। मगर हमने आंबेडकर की उम्मीदों के खिलाफ काम किया, और यह बदला लेने के निरंकुश अस्त्र के रूप में इस्तेमाल होने लगा। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मोरारजी देसाई तक इस दोष से मुक्त नहीं हो सके, बल्कि इसका सिलसिला आगे भी जारी रहा। 1959 में कांग्रेस ने केरल की साम्यवादी सरकार को पदच्युत किया, तो 1977 में संविधान की रक्षा के नाम पर सत्ता में आई जनता सरकार ने भी नौ कांग्रेस शासित राज्यों को झटके में बर्खास्त कर दिया। यह सब संविधान की रक्षा के लिए नहीं, अपितु दलगत स्वार्थों के लिए किया गया।

संविधान लागू होने के शुरुआती 57 वर्षों में इस अधिकार का 117 बार उपयोग किया गया। आंबेडकर जिसे निर्जीव अक्षर बने रहने देना चाहते थे, वे दलगत स्वार्थ-पूर्ति के घातक अस्त्र बन गए। लोकतंत्र के लिए यह बहुत महंगा साबित हुआ। राजनेताओं को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। धीरे-धीरे आम जनता की निगाह में तस्वीर साफ होने लगी। सरकारों की नीयत में खोट नजर आने लगा। शुरुआत में तो अदालत ने इसे राजनीतिक मामला मानते हुए इस पचड़े से खुद को दूर रखा, लेकिन जब राजनीतिक स्वार्थपरता जगजाहिर हो गई और जन-विश्वास लगभग समाप्त हो गया, तो फिर अदालतों ने हस्तेक्षप किया और अंततोगत्वा 1994 में एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि अदालत 356 के दुरुपयोग की जांच कर सकती है। इसका दूरगामी असर पड़ा। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन को असांविघानिक घोषित किया गया। जनता की निगाह में न्यायपालिका संविधान की रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हुई, किंतु हमारे राजनीतिक नेतृत्व की पराजय हुई। जो काम राजनीतिक नेतृत्व को करना चाहिए था, वह उससे छीन लिया गया। पर इसके लिए राजनेता स्वयं जिम्मेदार थे।

आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में कहा था कि किसी भी देश के संविधान की सफलता उसके नागरिकों व संविधान को चलाने वालों के चरित्र व उनकी नीयत पर निर्भर करती है। उन्होंने आगे कहा कि संविधान चाहे जितना अच्छा क्यों न हो, यदि उसे चलाने वालों में संविधान के मूल्यों के प्रति समर्पण और उसे लागू करने का जज्बा नहीं है, तो वह निर्जीव अक्षरों का समूह मात्र बना रहेगा। इसके उलट यदि संविधान में कोई कमी रह गई हो, किंतु उसका पालन करने वाले लोग संविधान के प्रति निष्ठावान हैं, तो वे उन कमियों को दूर करके जीवंत समाज का निर्माण कर लेंगे। कोई भी संविधान केवल अपने मंत्राक्षरों के बल पर सफल नहीं हो सकता। यह देश के नागरिकों के जज्बे से सफल होता है। इसके लिए संविधान के सपने को आत्मसात करके उसके मुताबिक आचरण करना होता है। संविधानवाद की संस्कृति विकसित करनी होती है। इस मामले में हम अभी भी बहुत पीछे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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